“तमने आवुं अनेक भवनुं ज्ञान आवी पवित्रता, ते लोकमां जराक प्रसिद्ध
थाय....तो.....” त्यां तो सहज भावे ते धर्मात्मा बोल्या– “जगतमां बहार
पडीने शुं काम छे!” आहा! जुओ, वैराग्य! अरे, अमारां सुख तो अमारी
पासे छे ने अमारा उपायथी ज ते मळे छे. बहारमां सुख नथी ने बहारना
उपायथी पण सुख नथी. अंतरमां अमारा सुखनो उपाय वर्ती रह्यो छे, त्यां
जगतने देखाडवानुं शु काम छे! पोतानुं काम पोतामां थई ज रह्युं छे. जुओ, तो
खरा! केटली निस्पृहता! पोताने पोतामां समावानी भावना छे.
जाणीने तेना प्रयत्नमां प्रवर्ते छे, ने तेने मोक्षमंदिरनुं उद्घाटन थाय छे, तेना
आत्मामां शुद्धआत्मारूप समयसारनी स्थापना थाय छे. जुओ, आजे
स्वाध्यायमंदिरनुं उद्घाटन ने समयसारनी प्रतिष्ठानो दिवस छे. तेमां अहीं
धर्मात्मा मोक्षमार्गना मंदिरनुं उद्घाटन करीने, आत्मामां शुद्ध समयसारनी
स्थापना करे छे–तेनी आ वात छे.
धर्मात्मा–गुरु तो गतिमां धर्मास्तिकायवत् निमित्तमात्र छे. जे स्वयं अज्ञानी छे
तेने बीजावडे ज्ञानी करी शकातो नथी. ते स्वयं जागीने मोक्षमार्गमां गमन करे
तो धर्मात्मा धर्मास्तिकायनी माफक तेने उदासीन निमित्त छे. पण जे जीव स्वयं
पोते मोक्षमार्गमां गमन करतो नथी तेने कांई पराणे गुरु ज्ञान करावी शकता
नथी,–जेम स्थिर रहेला पदार्थने धर्मास्तिकाय कांई पराणे गति करावतुं
नथी तेम.
उद्यम वडे मोक्षसुख साधवा नीकळ्यो तेने गुरुनो ईष्ट उपदेश निमित्त छे. तेवा
गुरु–धर्मात्माओ प्रत्ये तेने भक्ति बहुमान–विनय वगेरे भावो होय छे. पण
कार्यनी उत्पत्ति तो पोताना उपादानना स्वाभाविक गुणवडै पोताना प्रयत्नथी
ज थई छे; योग्यता वगरना जीवने लाख गुरुओनो उपदेश वडे पण ज्ञाननी
उत्पत्ति करावी शकाती नथी. योग्यतावाळो जीव स्वत; प्रेरणाथी ज्यारे
ज्ञानादिमां प्रवर्ते छे त्यारे गुरुनो उपदेश तो मात्र निमित्त (धर्मास्तिकायवत्) छे.