Atmadharma magazine - Ank 272
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : आत्मधर्म : १७ :
साधर्मी पाठकोना विचारोने व्यक्त करतो आ विभाग जो के बधा
साधर्मीओ माटे खुल्ला छे, परंतु बालविभागमां उत्साहथी भाग लईने
आ विभागनो मोटो भाग आपणा बाल–सभ्योए ज रोकी लीधो छे. अने
बाळकोना हृदयमां आ रीते धार्मिक तरंगो विकसे–ते बहु सारी वात छे.
* बगसराथी एक भाई लखे छे के छोकराव उत्साहथी बालविभाग वांचे छे,
अने वेन करे छे के बापुजी, पुस्तक (दर्शनकथा) क््यारे आवशे? ने गुरुजीना दर्शन
करवा सोनगढ जवुं छे–तो अमने क््यारे तेडी जशो?
* रंजनबेन वाडीलाल (स. नं. २४४) वढवाण–पूछे छे–के कोई पण धर्मी जीव
देवलोकमांथी अहीं आवी प्रभावनाना निमित्त शा माटे नहीं बनता होय?
उत्तर:– अत्यारे पण अनेक धर्मात्माओ धर्मनी प्रभावना करी ज रह्या छे. अने
ज्यारे तेवा प्रकारनो विशिष्ट प्रभावनानो योग होय त्यारे देवोनुं आगमन वगेरे पण
थाय छे. धर्मात्मा जीव स्वर्गमां पण धर्मनी प्रभावना करता होय छे, ने अनेक जीवोने
सम्यक्त्व पमाडता होय छे. बाकी तो पंचमकाळमां जेम मनःपर्ययज्ञान; क्षायिक
सम्यक्त्व वगेरेनो अभाव थयो तेम देवोनुं आगमन वगेरे पण घटतुं गयुं. भले देवोनुं
आगमन न देखाय तो पण आपणे आपणुं हित साधी लेवा पूरतो महान प्रभावना
योग धर्मात्माओना प्रतापे अत्यारे वर्ती ज रह्या छे. धर्मात्मा ज्यां बिराजता होय त्यां
तेमना अष्टांग–किरणो वडे धर्मनी जाहोजलाली वर्ते छे ने जीवो पोतानुं हित साधे छे.
सोनगढनुं आवुं वातावरण एकवार तो तमने देवना आगमननी वात पण
भुलावी देशे.
* राजकोटथी रजनीकान्त पारसराम (स. नं. ६०८) लखे छे के–आत्मधर्म हुं
वारंवार वांचु छुं ने दरेक बालमित्रोने वांचवा खास भलामण करुं छुं. शैलि घणी सुंदर
छे. वांचतां जाणे एम लागे छे के गुरुदेवनुं प्रत्यक्ष प्रवचन सांभळुं छुं, ने गुरुदेव मारा
हृदयमां वसे छे. ‘दर्शनकथा’ पुस्तक में वाच्युं छे ने बीजा बाळकोने पण वांचवा आपुं छुं.