Atmadharma magazine - Ank 272
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : जेठ : २४९२
* बेंगलोरथी चंपालाल जैन (नवा सभ्य) लखे छे के–आत्मधर्ममें
बालविभाग पढकर बडी खुशी हुई; बहुत अच्छा लगा; मैं दीनभर अंक पढता हुं,
हमारे बन्धुओको भी सुनाता हुं; मेरे लिये यह बहुत अच्छा खेल है! जीतनी वार
पढता हुं नई नई जानकारी होती है! जबतक नया अंक नहीं आता ईसीको पढता
रहता हुं, बीना पढे चेन नहीं पडता! यह सब परमपूज्य श्री कहानगुरुकी कृपा है,
जिसको हम किसी जन्ममें भूल नहीं सकेंगे!
* बडी सादडी [राजस्थान] थी आपणा मोदीजी साहेब लखे छे के–
बालविभागथी भारतवर्षमां धर्मप्रेमी बाळकोने माटे एक नवीन स्फुरणानी लहेर जागी
छे. बाल विभागनी आ पेढी भविष्यमां पण धर्म उपर लक्षित थया वगर रहेशे नही;
अने तेने साचा देव–गुरु–धर्मनी श्रद्धाना संस्कार जरूर उत्पन्न थशे. दर्शनकथा पुस्तक
जे कोई बाळक वांचवा हाथमां ल्ये छे तेने एवो रस आवे छे के पूरी कर्या वगर छोडता
नथी. खावा–पीवानुं पण भूली जाय छे. आवी कथा अमारा प्रान्तमां पहेलां
सांभळवामां आवी न हती. (राजस्थानना हिन्दीभाषी बाळको–जेमने हजी
गुजरातीभाषानो पूरो परिचय पण नथी तेओ पण गुजराती बालसाहित्यमां
केवी होंशथी भाग लई रह्या छे! आ वात ‘बालसाहित्य’ नी तीव्र उपयोगिता बतावे
छे. –सं)
* जेतपुरथी मुकेश जैन (नं. १८प) लखे छे के वैशाख मासनुं ‘आत्मधर्म’
पुस्तक वांच्युं अने धर्मसंबंधी घणुं घणुं ज्ञान मेळव्युं. विनंति साथ जणाववानुं के
दरवखते आवो सुंदर अंक बहार पाडवो–जेथी मारा जेवा बाळको पण होंशभेर वांचवा
लागी जाय.
भाईश्री, आपनी भावना बदल धन्यवाद! वैशाख मासना खास अंक जेवा
बधा अंको बहार पाडीए–परंतु आपणी पासे एटलुं बजेट जोईए ने? आम छतां
जिज्ञासुओ तरफथी आत्मधर्मना विकास माटे जे उमंगभर्यो सहकार मळी रह्यो छे तेना
प्रमाणमां ‘आत्मधर्म’ ने विकसाववा पूरतो प्रयत्न करी रह्या छीए....अने धीमे धीमे
तमे लखो छो तेवी परिस्थितिमां पहोंची जईशुं. अत्यारे तो जग्याना अभावे कोई
कोईवार जरूर लेखो पण मुलतवी राखवा पडे छे.
* चोटीलाथी राजेन्द्र जैन (सभ्य नं. ३९८) पूछे छे:–
प्रश्न:– बीजा भवो करतां मनुष्यभवने दुर्लभ केम कह्यो?