: जेठ : २४९२ आत्मधर्म : ३प :
कटिबद्ध थया छे. जिनशासनना संतोनी दशा जगतथी नीराळी छे. जिनशासनने जेणे
स्वीकार्युं तेणे सर्वज्ञने स्वीकार्या, तेणे पोतानी मुक्ति स्वीकारी, ते मोक्षमार्गमां आव्यो.
(२४८) ज्ञान
‘ज्ञान’ बधा परिणामथी जुदुं रहीने जाणे छे....आनंद वगेरे निजपरिणाममां ते
तन्मय थाय छे. आ रीते, स्वने तन्मय थईने जाणे छे, परने पृथक् रहीने जाणे छे.
(२४९) अनेकान्तनी मूर्ति
* अनेकान्तमय आत्मवस्तुने जेओ श्रध्धे छे तेओ सम्यग्द्रष्टि छे.
* अनेकान्तमय आत्मवस्तुने जेओ जाणे छे तेओ सम्यग्ज्ञानी छे.
* अनेकान्तमय आत्मवस्तुमां लीन थईने तेने जेओ अनुभवे छे तेओ सम्यक् चारित्री छे.
* आ रीते अनेकान्तमय आत्मवस्तुनी श्रद्धा ज्ञान अने अनुभव करनार जीवो
साक्षात् ज्ञानस्वरूप थाय छे एटले के मोक्षदशारूप परिणमे छे, अने तेओ स्वयं
‘अनेकान्त नी मूर्ति छे.
(२प०) सिंहना पंजामां हरण
एकाकी जंगलमां क्रूर सिहना पंजामां फसायेलुं हरण मृत्युथी बचवा माटे केवुं
आतुर अने प्रयत्नशील होय छे? मात्र एक ज वखतना मरणथी बचवा माटे पण ते
आवी तालावेली अने प्रयत्न करे छे. तो आ जीवरूपी हरण अज्ञानरूपी सिंहना पंजामां
फसाईने अनंत जन्म–मरणमां पडेलो छे, ते अनंत जन्म–मरणरूपी सिंहना मुखमांथी
आ आत्मारूपी हरणने छोडाववा माटे केटली तालावेली अने धगशपूर्वक प्रयत्न होय!!
सिंहना मुखमां पडेला हरणने शुं ऊंघ आवे! शुं लीला घास खावानुं एने याद
आवे? शुं हरणी के बच्चां ते वखते याद आवे? जीवननी आशा आडे बधुं भूली जाय.
तेम आत्मजिज्ञासुनुं पण समजवुं. आत्मजीवन साधवानी एक ज धून आडे बीजे
बधेथी तेनो रस ऊडी जाय छे.
चिदानंद भगवाननी स्तुति
शोभित निज अनुभूतिजुत चिदानंद भगवान।
सार पदारथ आतमा सकल पदारथ जान।।
आ चिदानंदभगवान पोताना स्वानुभवथी सुशोभित छे,
ते सर्व पदार्थमां सारभूत छे अने समस्त पदार्थोनो ज्ञाता छे.
पं. बनारसीदासजी