Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९२ आत्मधर्म : १३ :
मने आनंद आवे निज–घर
हवे गमे नहीं पर घर
जेठ सुद पूर्णिमाए शेठश्री चीमनभाईना मकानना वास्तुप्रसंगे
थयेल पू. गुरुदेवनुं सुंदर प्रवचन–जे आ अंकमां छपायेल छे तेना
अनुसंधानमां अमारा बालविभागना सभ्य नं. २६३ (चेतनकुमार जैने)
बनावेल काव्य सुधारीने अहीं आपवामां आव्युं छे.–परघरमां भटकता
जीवने स्वघरमां आववानो साद पाडतुं आ काव्य सौने गमशे. सं०
हवे समजाय महिमा स्व–घर, मारे नथी रहेवुं पर घर,
साद आवे निज–घर तणो, मने नहीं शोभे पर घर;
मने आनंद आवे निज घर....हवे गमे नहीं पर घर. (१)
काळ अनादिथी परनी प्रीत कीधी, स्वभावनी प्रीति छोडी दीधी,
सद्गुरु कहे पर घर तुं छोड, तने नहीं शोभे पर घर.
संतो बोलावे आव तुं घेर, तने नहीं गमे पर घर...हवे
(२)
प्रभो, परमां रही तुं दुःखी थयो, स्वनुं लक्ष तेमां तुं चूकी गयो,
साद पाडी कहे वारंवार, तने नहीं शोभे पर घर;
स्वने परथी भिन्न तुं जाण, तने नहीं गमे पर घर...हवे
(३)
देखाय अशुद्धता पर्यायमहीं, ते निजघरमां कदी शोभे नही;
जरा याद कर कुंदकुंद–वचन, तने नहीं शोभे पर घर;
प्रभो, प्रभुतानी हा तो पाड! तने नहीं गमे पर घर;...हवे
(४)
सुखनी शोधमां भटकी थाकी गयो, राग द्वेषनी जाळमां अटवाई गयो,
संतो पोकारे आव तुं घेर, तने नहीं शोभे पर घर;
तुं पुद्गलादिथी भिन्नता जाण, तने नहीं गमे पर घर...हवे
(प)
प्रभो, पर घरनी वातो सांभळ्‌ये राखी, निजघरनी वात न उरमां लीधी,
निज घरनी तुं वात सांभळ, तने नहीं शोभे पर घर;
प्रभो! एक वार हा तो पाड, तने नहीं गमे पर घर...हवे
(६)