Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : अषाढ : २४९२
प्रभो! परनी आशा राखी दुःखी थयो, तुं परने सहारे अंध बन्यो,
अंध एवो बन्यो शुं कहुं? जाणनारने जोई ना शक््यो;
प्रभो! स्व भणी नजरुं तो मांड, तने नहीं शोभे पर घर.....हवे
(७)
प्रभो! चिरकालथी परमां वासा कीधा, हवे निजघरमां आवी कर तुं वास्ता,
निजने निज, परने पर जाण, तने नहीं शोभे पर–घर.
एकवार चैतन्य मंथन कर, तने नहीं गमे पर घर....हवे
(८)
परथी भिन्न जाणवानी न दरकार कीधी, वस्तुमां वसवानी वात न लक्षमां लीधी;
अनंत गुण वस्तुने स्वघर जाण, तने नहीं शोभे पर घर;
धीरो थई, धीर! स्वरूप विचार, तने नहीं गमे पर घर....हवे
(९)
प्रभो! अनंतकाळे नरभव मळ्‌यो, भवना अभाव माटे अवसर मळ्‌यो,
एम समजी आव निज घर, तने नहीं शोभे पर घर;
भवनो अंत एकवार तुं लाव, ‘चेतन’ शोभे नहीं पर घर;
मने आनंद आवे निजघर, हवे नहीं गमे पर घर....हवे
(१०)
* * * * * * * *
क््यांय न गमे तो...
हे जीव! तने क्यांय न गमतुं होय
तो बधेथी तारो उपयोग पलटावी
नांख.....ने आत्मामां गमाड! आत्मामां
आनंद भर्यो छे एटले त्यां जरूर
गमशे....माटे आत्मामां गमाड. आत्मार्थीने
जगतमां क्यांय गमे तेवुं नथी पण एक
आत्मामां जरूर गमे तेवुं छे, माटे तुं
आत्मामां गमाड.
(रत्नग्रहमांथी)