Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९२ आत्मधर्म : १५ :
वि वि ध व च ना मृ त
(आत्मधर्मनो चालु विभाग: लेखांक: १९)
(२प१) पूर्णताना मार्गनो प्रारंभ
पोतामां पूर्णतानी प्रतीत वगर पूर्णतानी प्राप्ति थई शके नहि. पूर्णता
एटले मुक्ति; ते पूर्णताना मार्गनो प्रारंभ पूर्णस्वभावनी प्रतीत वडे थाय छे.
(२प२) जैनमार्ग एटले वीतरागभाव
जैनमार्ग वीतरागभाव–स्वरूप छे.
वीतरागता ते मोक्षमार्ग छे.
वीतरागभावमां रागने स्थान नथी,–पछी भले ते राग वीतराग उपरनो होय!
राग ते राग छे, वीतरागता ते वीतरागता छे.
राग ते वीतरागता नथी, वीतरागता ते राग नथी.
रागने धर्म माने ते वीतरागीधर्मने साधी शके नहि.
(२प३) आत्मानो चमत्कार
आत्मा ‘ज्ञायक’ छे.
ज्ञायकपणुं–स्वपर प्रकाशकशक्ति ते चैतन्यनो चमत्कार छे.
ज्ञान ते आत्मानो असाधारण गुण छे. आत्मानी ज्ञानशक्ति पोताथी ज छे.
ज्ञेयोने आधारे ज्ञान नथी, ईन्द्रियोवडे ज्ञान नथी.
विकल्पोवडे ज्ञान नथी, ज्ञान ज्ञानथी ज छे.
आत्माना स्वआधारे ज ज्ञान छे.
आवा ज्ञानस्वरूपनी उपासना ते ज मोक्षनो मार्ग.
(२प४) साचुं ज्ञान; ने आत्मप्रेम
अगियार अंग अने नवपूर्व जाणवा छतां अज्ञानी जे आत्मस्वभावने
न जाणी शक््यो, ते आत्मस्वभावने ज्ञानीए तीव्र आत्मप्रीतिना बळे
स्वानुभूतिवडे एक क्षणमां जाणी लीधो. तो ए आत्मप्रीति अने ए
स्वानुभूतिज्ञान केवां,–के अगियार अंगना ज्ञाने जे काम न कर्युं ते काम तेणे
एकक्षणमां करी लीधुं!