Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: ४० : आत्मधर्म : अषाढ : २४९२
तो मूखचा सरदार
राजगृहीनगरीमां वीरप्रभुनी दिव्यवाणी सांभळीने राजकुमार
वारीषेण वैराग्य पामे छे ने दीक्षा लेवा तैयार थयो छे....त्यारे तेनी
परीक्षा करतां राजा श्रेणीक तेने पूछे छे के हे कुमार! आवुं युवान
शरीर, आवो राजवैभव अने स्वरूपवान राणी–ए बधा वैभवने
छोडीने एथी विशेष बीजो क््यो वैभव शोधवा तुं जाय छे? –
सारे वैभव चरणस्पर्शिते शचिसम सुंदर नार।
त्यजुनी सर्वा कुठे निद्यालास तूं सुकुमार?
त्यारे वारिषेणकुमार उत्तर आपे छे के–
कोण कुणाचे आधार पिताजी,
अखिल वस्तु स्वाधार।
बनवी परद्रव्याला जो आधार
तो मूर्खाचा सरदार।।
हे पिताजी! जगतमां कोण कोनो आधार छे! बधी वस्तुओ
पोतपोताना स्व–आधारे ज छे. एटले मारा आत्मानो वैभव पण मारा
आत्माना ज आधारे छे, परद्रव्यमां निजवैभव जरापण नथी; आवा
निजवैभवने प्राप्त करवा हुं जाउं छुं. निजवैभवने भूलीने परद्रव्यने जे
पोताना वैभवनो आधार बनाववा मांगे छे ते मूरखनो सरदार छे.
(‘
सम्मति’ मराठीना आधारे)
* * * * *
ज्यां झेर पण अमृत बनी जाय छे.
झेरपणे परिणमेला जगतना परमाणुओ, ज्यां वीतरागमार्गी
मुनिना हाथमां आवे त्यां अमृतरूपे परिणमी जाय....अहा,
मोक्षमार्गना आनंदरूपी अमृतने साधनारा मुनिराजनी समीप झेर केम
रही शके? ए तो अतीन्द्रिय आनंदना अमृतनुं भोजन करनारा छे.