: ३० : आत्मधर्म : द्वि. श्रावण : २४९२
समीपमां ज थयो होय छे.
(३) आहारक–शरीरधारी मुनिवरोने
मनःपर्ययज्ञान होतुं नथी, केमके–
आहारक–शरीर, मनःपर्ययज्ञान,
उपशम सम्यक्त्व–एमांथी कोई एक
वस्तु ज्यां होय त्यां बीजी वस्तुओ
होती नथी–एवो नियम छे.
(४) क्षायिकसमकिती तिर्यंचो असंख्याता
छे; परंतु तेमांना कोई पण
क्षायिकसमकिती तिर्यंचने पंचम
गुणस्थान होतुं नथी; केमके
क्षायिकसमकिती जो तिर्यंचमां
(पूर्वबद्धआयुष्यने) कारणे, ऊपजे
तो ते भोगभूमिमां असंख्य वर्षना
आयुपणे ज ऊपजे छे; ने जेम
स्वर्गमां पंचम
गुणस्थान नथी तेम भोगभूमिमां
पण पंचमगुणस्थान नथी.
(प) पंचम गुणस्थानवर्ती तिर्यंचो
असंख्यात छे; परंतु तेमांना कोई
जीवने क्षायिक सम्यक्त्व होतुं नथी,
केमके–पंचम गुणस्थान कर्मभूमिना
जीवोने ज होय छे, ने क्षायिक
सम्यग्द्रष्टि जीवो कदी कर्मभूमिना
तीर्यंचपणे उपजता नथी.
(६) सर्वार्थसिद्धिमां कोई जीव बे वार
जाय नहि, केमके–सर्वार्थसिद्धिना
जीवो नियमथी एकावतारी होय छे;
एक मनुष्यभव करीने चोक्कस
तेओ मोक्ष पामे छे.
जेटलो अनुराग विषयोमां करे छे, मित्र–
पुत्र–भार्या अने धन–शरीरमां करे छे तेटलो रुचि–
श्रद्धा–प्रतीतिभाव स्वरूपमां तथा पंच परमगुरुमां
करे तो मोक्ष अति सुलभ थाय.
–अनुभवप्रकाश.
परिग्रहवंत सम्यग्द्रष्टि पण अनुभवने
कोई कोई वेळा करे छे, तेओ पण धन्य छे, मोक्षना
साधक छे; जे समये अनुभव करे छे ते समये
सिद्धसमान अम्लान आत्मतत्त्वने अनुभवे छे.
–अनुभवप्रकाश.