: ४ : आत्मधर्म : द्वि. श्रावण : २४९२
तेमां राग रही शके नहि. ज्यां सिध्धोनो आदर कर्यो त्यां रागनो आदर रहे नहि:
एटले सिद्धने पोतामां स्थापतां ज राग साथेनी एकत्वबुद्धि तूटी गई. पंचमकाळनो
साधक आत्मा पोताना सिद्धपद माटे प्रस्थानुं मूके छे. हे सिद्धभगवंतो! सिद्धपदने
साधवा हुं उपड्यो छुं. त्यां शरूआतमां ज मारा आत्मामां आपने स्थापुं छुं. अने
ना
न पाडशो. अमारो श्रोता एवो ज होय के जे पोताना आत्मामां सिद्धपणुं स्थापीने
सांभळे छे. एकला रागमां ऊभो रहीने नथी सांभळतो, पण पहेले धडाके सिद्धपदना
भणकार लेतो आवे छे. “हुं सिध्ध....तुं सिध्ध” एम श्रवण करतां ज आत्मा अंदरथी
हकार करतो आवे छे.
आ समयसार भरतक्षेत्रनुं अलौकिक अमृतरसथी भरेलुं शास्त्र छे.
मांगळिकमां ज सिद्धपद स्थापीने साधकपणानी अपूर्व शरूआत करावे छे.
अहा, चैतन्य साथे संबंध जोडतां निर्मळ साधकभावनी संतति शरू थाय छे.
सिध्धपदना पूर्ण ध्येये साधक उपड्यो त्यां तेनो पुरुषार्थ पण एवो छे. अहो, अनंत
परमात्माओ! अमारा चैतन्यमां एटलो अवकाश छे के अनंता सिद्धपरमात्मा सर्वज्ञोने
पोतामां स्थापीए छीए.
अनादिथी अत्यार सुधी अनंता सिद्धो थया, तेने प्रतीतमां लईने, तेमज तेना
मार्गने प्रतीतमां लईने चैतन्यनी सन्मुखता वडे पोते पण तेनी नातमां भळे छे. हे
सिध्धभगवंतो! हवे हुं आपनी नातमां आवुं छुं; संसारथी–रागथी जुदा पडीने
सिध्धनी–शुद्धात्मानी नातमां भळुं छुं.
मारा अने श्रोताना बंनेना आत्मामां हुं सिध्धोने स्थापुं छुं एम कहीने
आचार्यदेवे शरूआतथी ज श्रोताने भेगो उपाडीने वात करी छे.
आ रीते सर्वसिध्धोने आत्मामां स्थापीने आ समयसारनुं भाववचनथी
(श्रुतज्ञानथी) अने द्रव्यवचनरूप वाणीथी परिभाषण करीए छीए. जेवी शरूआत करी
तेवी पूर्णता थई छे–अलौकिक रचना छे. अहा, भरतक्षेत्रमां जन्मीने देहसहित जेमणे
विदेहक्षेत्रना तीर्थंकरना साक्षात् दर्शन कर्या तेमनी पात्रता अने पुण्यनी शी वात!!
सिद्धभगवंतोने ओळखीने, अने पोताना आत्मामां तेवी ताकात छे एने
ओळखीने, ए रीते बंनेने ओळखीने सिद्धने पोतामां स्थाप्या छे. साध्य जे शुद्धात्मा
तेना प्रतिछंदना स्थाने सिद्धभगवंतो छे, तेथी ते ध्येयरूप छे ते सिद्धभगवंतनुं स्वरूप
चिंतवीने अने तेमनी समान पोताना स्वरूपने ध्यावी–ध्यावीने संसारी जीवो पण
तेमना जेवा सिद्ध थई जाय छे. जेणे अंतरमां सिद्धने स्थाप्या ते सिद्धनो वारस थयो, ते
सिद्धनो साधक