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परिस्थिति दूर थई, तेथी भारतभरना दिगंबर जैनसमाजमां संतोष अने हर्षनी लागणी
अतीव भक्ति व्यक्त करवा देशभरमां सर्वत्र घणा ज हर्षोल्लास सहित “सम्मेदशिखर
आव्या हता; ने आ कार्यना उकेल माटे दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमिटीए जे सफळ प्रयत्न कर्या
थाय तेवा करार करवामां जे सहकार आप्यो, ते बदल तेओ प्रत्ये सौए आभारनी
सवारमां जिनमंदिरमां तीर्थराजनुं समूहपूजन थयुं; तथा प्रवचन पछी सभामां (जेमां
व्यक्त करतो ठराव पसार कर्यो हतो. बपोरे जिनमंदिरमां पू. बेनश्रीबेने सम्मेदशिखरजीनी
थतो हतो.......सम्मेदशिखर आपणा हृदय साथे जोडायेलुं छे.....युगयुग जुनुं आपणुं आ
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साधु दिगम्बर नगन निरम्बर, संवर भूषणधारी
महल मसान मरन अरु जीवन, सम गरिमा अरु गारी
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पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी संक्षेपमां आपवामां आव्युं छे.
मुनिवरो एना मुख्य आराधक छे, ने श्रावके पण तेनुं स्वरूप
ओळखीने शक्ति अनुसार तेनी उपासना करवी.
सन्तोने आ क्षमा सहचरी छे. क्रोधनी उत्पत्ति साधकभावमां बाधा करनारी छे,
एम समजीने तेने दूरथी ज छोडवो, ने क्षमाभावने मोक्षनो साधक जाणीने
अंगीकार करवो.
छे–एवी भावनावडे मदनी उत्पत्तिनो अभाव थाय छे, एटले के मार्दवधर्म थाय छे.
कोई दोषने छूपाव्या वगर गुरु समीपे सरलपणे व्यक्त करीने ते दोष छोडवा ते
आर्जवधर्म छे.
बोले ने असत्य बोलवानी वृत्ति न थाय ते सत्यधर्म छे.
भोगथी विरक्त एवा जीवने ममत्वरूप मलिनभाव थतो नथी, ने रत्नत्रयनी
शुचिता टकी रहे छे ते शौचधर्म छे. (शौच=पवित्रता)
क्रोधादि कषायोनी उत्पत्ति न थाय, स्वरूपनी आराधनामां सम्यक् प्रकारे उपयोग
जोडायेलो रहे ते संयमधर्म छे.
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विषयकषायोरूपी चोरने उपयोगघरमां प्रवेशवा न देवा ते तप छे. आ तप
विषयकषायोरूपी चोरथी पोताना रत्नत्रयरूपी धनने बचाववा माटे महान
योद्धासमान रक्षक छे, ने आनंदनो दातार छे.
एम शुद्धात्मा सिवाय सर्वत्र ममत्वनो अभाव ते त्यागधर्म छे. श्रुतनुं प्रवचन,
शास्त्रदान वगेरे पण आ त्यागधर्मना पोषक छे.
चैतन्यभावना वडे देहादि समस्त परद्रव्यो प्रत्ये ममत्वनो त्याग ते अकिंचनधर्म छे.
वृत्ति ज ऊडी जवी ते उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म छे. विशुद्ध बुद्धिना बळे एवी निर्विकार
भावना थई जाय के देवी ललचावे तोपण विकारनी वृत्ति न थाय ने माता के
बहेनवत् निर्विकार भावना रह्या करे; एवा जीवने उत्तम ब्रह्मचर्य छे.
उत्तमक्षमादिक आ दश धर्मने आराधनारा सन्तोने अत्यंत भक्तिपूर्वक
ज भावना.
भक्तिपूर्वक उपासना वडे सम्यक्त्व पामीने आत्माने
अनुभवीए छीए, तीर्यंचपणुं भूलीने सिद्ध जेवो अनुभव
करीए छीए....तो तमे तो मनुष्य छो.....तमे पण आवो
अनुभव केम नथी करता! अमे सिंह अने सर्प जगतमां कू्रर
गणाईए छतां भगवाननी वाणीना प्रतापे फ्रूररस छोडीने
परम शांतरसने पाम्या.....तो तमे तो भगवाननी जेम
रह्या छो! ने धर्मनी आराधना करी रह्या छो! तमने धन्य छे. तिर्यंच होवा छतां तमे अमारा
साधर्मी बन्या छो. तमने देखीने अमनेय धर्मनी प्रेरणा अने वात्सल्यभाव जागे छे.
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पहेला पांचमी गाथामां तो कह्युं हतुं के–अमारा समस्त आत्मवैभवथी अमे शुद्ध
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त्यां पूर्वे नहि समजेलुं समज्यो, ने पूर्वे नहि सांभळेलुं सांभळ्युं, वाच्य–वाचकभावनी
संधिपूर्वकनुं आवुं श्रवण पूर्वे कदी कर्युं न हतुं. पहेलां ‘व्यवहारीजन’ हतो ते हवे
परमार्थने पामी गयो. वच्चे आवेल भेद–व्यवहारमां ते अटकी न रह्यो पण तेना
स्वभावने ज अनुसरवुं योग्य छे, ने व्यवहारनुं अनुसरण छोडवा जेवुं छे.
व्यवहारना विकल्पमां रोकाता नथी, ने श्रोता–शिष्यजने पण व्यवहारना विकल्पमां
रोकावा जेवुं नथी. अभेदमां अंतर्मुख था.....तो ‘आत्मा’ समजाय.
अवलंबन छोडाव्युं छे. जो भाई! वच्चे गुणगुणी भेदनो आवो व्यवहार आव्या विना
रहेतो नथी पण तेना अवलंबनमां तुं न अटकीश, ते व्यवहारनय अनुसरवायोग्य
नथी. शिष्य पण एवो छे के गुरुना–ज्ञानीना अंतरंगभावने बराबर समजी ल्ये छे.
कथनमां भेद आवतो होवा छतां ज्ञानीनो अंतरंग अभिप्राय अंदरनो परमार्थ स्वभाव
बताववानो छे. एवा अंतरंग अभिप्रायने समजीने शिष्य पोते अंतर्मुख थईने
परमार्थ स्वभावने तरत समजी जाय छे. पछी करशुं एम कहीने छोडी देतो नथी, पण
एटली पात्रता छे के तरत ज समजी जाय छे. पहेलां भेदथी लक्ष हतुं त्यां सुधी हजी
समजेलो न कह्यो, पण ज्यारे आनंदसहित अंदर भावश्रुतना सुंदर तरंग ऊछळ्या
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ज्ञानीनी ओळखाण करावी छे, जे ओळखाण अति आनंदकारी छे ने
थाय छे. निश्चयने जाणनारा ज्ञानीओए एम कह्युं छे के आत्मा अज्ञानथी
ज विभावनो कर्ता थाय छे. ज्यां भिन्न चैतन्यस्वभावनुं भान थयुं त्यां
पोताना शुद्ध चैतन्य सिवाय बीजे क््यांय आत्मविकल्प थतो नथी, एटले
ते ज्ञानी समस्त परभावने पोताना स्वभावथी भिन्न जाणतो थको तेनुं
कर्तृत्व छोडी दे छे.
जाण्यो त्यां कडवा स्वादवाळा कषायोमां आत्मबुद्धि केम थाय? रागादि
भावो मारा स्वभावमांथी उत्पन्न थयेला छे. एम ज्ञानीने जरापण
भासतुं नथी. शुद्धज्ञानमय परम भाव ज तेने पोतानो भासे छे, तेथी
शुद्धज्ञानमय स्वभावना आधारे तेने निर्मळ ज्ञानभावोनी ज उत्पत्ति
थाय छे अने तेनो ज ते कर्ता थाय छे. विकल्पनी उत्पत्ति ज ज्यां मारा
ज्ञानमां नथी तो पछी ते विकल्पवडे ज्ञाननी पुष्टि थाय–ए वात क्यां
रही?–आथी ज्ञानीने ज्ञानथी भिन्न समस्त विकल्पोनुं कर्तृत्व छूटी गयुं छे.
अनुभवे छे; देहथी भिन्नतानी वात तो स्थूळमां गई, अहीं तो अंदरना
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चैतन्यना अतीन्द्रिय स्वाद पासे आ ईंद्रपद तो शुं!–आखा जगतनो
वैभव पण तूच्छ छे. चैतन्यनो रस अत्यंत मधुर..... अत्यंत शां....त!
अत्यंत निर्विकार...जेना संवेदनथी एवी प्राप्ति थाय के आखा जगतनो
रस ऊडी जाय. शां....त शां.....त चैतन्यनुं मधुरुं वेदन थयुं त्यां
आकुळताजनक एवा कषायोनुं कर्तृत्व केम रहे? कषायोथी अत्यंत
भिन्नतानुं भान थयुं. जुओ, स्वसन्मुख थईने आवा स्वादनुं स्वसंवेदन
करवानी मति श्रुतज्ञाननी ताकात छे. मति–श्रुतने स्वसन्मुख करीने
धर्मात्मा आवा चैतन्यस्वादनुं प्रत्यक्ष स्वसंवेदन करे छे.
समजावी छे.
छे. समजवा मागे तो बधुं सुगम छे. आ भावो समजे तो अमृतना सागर
ऊछळे ने झेरनो स्वाद छूटी जाय. भेदज्ञाननो आ महिमा छे. भेदज्ञान
थतां ज जीवनी आवी दशा थाय छे. ज्ञानी धर्मात्मा चैतन्यरसना स्वाद
पासे जगतना बधा स्वाद प्रत्ये सदाय उदासीन अवस्थावाळो थयो छे,
रागादिने पण अत्यंत उदासीन अवस्थावाळो रहीने मात्र जाणे ज छे.
पण तेनो कर्ता थतो नथी. आ रीते ज्ञायकस्वभावने ज स्वपणे
अनुभवतो ज्ञानी निर्विकल्प–अकृत्रिम–एक विज्ञानपणे परिणमतो थको
अन्य भावोनो अत्यंत अकर्ता ज छे.–आवी दशाथी साधक ओळखाय छे.
आवी अंतरदशाथी ज्ञानीने ओळखतां अति आनंद थाय छे ने विकारमां
तन्मयबुद्धिरूप अज्ञाननो नाश थईने अपूर्व भेदज्ञान प्रगट थाय छे.
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सुविधिकुमार एमनुं नाम. तेमना पिता सुद्रष्टि राजा, अने माता सुन्दरनंदा. अनेक
कळानो भंडार ते सुविधिकुमार बाल्य अवस्थामां ज बधाने आनंदित करतो हतो, अने
तेने समीचीन धर्मना संस्कार प्रगट्या हता.–ए खरुं ज छे केमके आत्मज्ञानी पुरुषोनुं
चित्त सदाय आत्मकल्याणमां ज अनुरक्त रहे छे. सुशोभित मुकुटथी अलंकृत उन्नत
मस्तकथी मांडीने स्वाभाविक लालाशवाळा चरणकमळ सुधीनी सर्वांगसुंदरताने धारण
करनार ते राजकुमार उत्तम सामुद्रिक लक्षणो वडे बधाना मननुं हरण करतो हतो.
शरूआतमां ज जीती लीधा हता, तेथी युवान होवा छतां पण ते वृद्ध–समान गंभीर
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कार्य सहज छे.
थवानो छे ते) अहीं सुविधिकुमारने त्यां केशव नामना पुत्र तरीके उपज्यो. वज्रजंघनी
पर्यायमां जे तेनी श्रीमती–स्त्री हती ते ज अहीं तेनो पुत्र थई. अरे, शुं कहेवुं?
संसारनी स्थिति ज एवी छे! ते पुत्र उपर सुविधि राजाने घणो ज प्रेम हतो. जीवोने
अवतर्यो त्यां तेना उपरना प्रेमनुं तो शुं कहेवुं?
आ वत्सकावती देशमां ज सुविधिकुमारनी समान विभूतिना धारक राजपुत्रो थया.
वरदत्त, वरसेन, चित्रांगद अने प्रशांतदमन नामना ते चारे राजपुत्रोए घणा काळ
सुधी राजवैभव भोगव्यो. राजवैभवनी वच्चे पण चैतन्यवैभवने तेओ भूल्या न
हता; आत्मानुं भान तेमने सदैव वर्ततुं हतुं.
दिव्य उपदेश सांभळ्यो. अहा, ए दिव्यध्वनिनी शी वात! शी एनी गंभीरता! ए
सांभळतां बधाय चैतन्य–रसमां मशगुल बन्या अने संसारथी विरक्त थईने जिनदीक्षा
धारण करी. चक्रवर्तीनी साथे बीजा अढार हजार राजाओ तथा पांच हजार पुत्रोए पण
दीक्षा लीधी. ए बधाय मुनिवरो संवेग अने निर्वेदरूप परिणाम वडे मोक्षना मार्गने
साधता हता. रत्नत्रय धर्ममां अने तेना फळमां उत्कृष्ट प्रीति करीने उत्साहपूर्वक तेनी
परिणाम ते निर्वेद छे. आवा संवेग–निर्वेदपूर्वक ते मुनिवरो मोक्षमार्गने साधवा लाग्या.
स्नेहने लीधे मुनिपणुं लई न शक््या; तेथी मुनिपणानी भावना राखीने तेओ श्रावकना
उत्कृष्ट धर्मोनुं पालन करवा लाग्या. जिनेन्द्र भगवाने गृहस्थधर्ममां सम्यक्त्व उपरान्त
अगियार स्थानो (अगियार प्रतिमा) कहे छे; (१) दर्शन प्रतिमा, (२) व्रत प्रतिमा,
(३) सामायिक,
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(७) ब्रह्मचर्य, (८) आरंभत्याग, (९) परिग्रहत्याग (१०) अनुमतित्याग अने
(११) उदिष्टत्याग; सुविधिराजा श्रावकधर्मनां आ अगियार स्थानोनुं क्रमक्रमथी पालन
करतां हता. अहिंसा वगेरे पांच अणुव्रतोनुं तेओ पालन करता हता. ते दरेक
अणुव्रत ते दरेक व्रतनी पांच–पांच भावनाओ साथे अने सम्यग्दर्शननी विशुद्धिथी
संयुक्त धारण करवामां आवे तो तेनाथी गृहस्थने मोटा मोटा फळनी प्राप्ति थाय छे.
गृहस्थोने माटे बार व्रतनुं पालन ते स्वर्गरूपी राजमहेलनी सीडी छे, अने ते नरकादि
दुर्गतिने दूर करनार छे. सम्यग्दर्शनवडे व्रतोनी शुद्धताने पामेला ते राजर्षि सुविधि
दीर्धकाळ सुधी श्रावकपणे रहीने श्रेष्ठ मोक्षमार्गनी आराधना करता हता. अने जीवनना
अंत समये तेमणे सर्व परिग्रह छोडीने दिगंबर मुनिदीक्षा धारण करी, ने विधिपूर्वक
उत्कृष्ट मोक्षमार्गनी आराधना करीने समाधिपूर्वक शरीर छोडयुं ने अच्युतस्वर्गमां
ईन्द्रपणे ऊपज्या. तथा तेनो पुत्र केशव (–श्रीमतीनो जीव) पण निर्ग्रंथ मुनि थई
राजपुत्रो (सिंह वगेरेना चारे जीवो) पण पोतपोताना पुण्योदयथी ते अच्युत स्वर्गमां
ज ईंद्र समान ऋद्धिधारक देव थया.–खरूं ज छे, पूर्वभवना संस्कारोथी जीवो एक
जग्याए एकठा थई जाय छे.
पहोंची शकती न हती. मस्तक उपर धारण करेला कल्पवृक्षना मनोहर पुष्पोथी ते एवा
लागता हता–जाणे के पूर्वभवना तपश्चरणना महान फळने माथे उपाडीने बधाने
तेना प्रत्येक अंग उपर दयारूपी वेलडीनां फळ झुलतां होय. कल्पवृक्षनी जेम ते ईन्द्र
शोभता हता, एना चरणोनी पण अद्भुत शोभा हती. एना अच्युत स्वर्गमां उत्पन्न
थयेला भोगोने ते अनुभवता हता. सोळमुं अच्युत स्वर्ग जो के आ मनुष्यलोकथी छ
राजु (असंख्याता योजन) ऊंचे छे, छतां पण सुविधिराजाने पुण्यप्रभावथी ते स्वर्ग
भोगोपभोगनुं स्थान बनी गयुं. खरेखर, पुण्यथी शुं प्राप्त न थाय!
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गणता हता. तेना परिवारमां दश हजार बीजा सामानिक देवो हतो, तेओनो वैभव जो
के ईन्द्रनी समान हतो, परंतु ईन्द्रनी माफक तेमनी आज्ञा चालती न हती. तेना
अंगरक्षक जेवा ४०००० देवो हता. स्वर्गमां जोके कोई प्रकारनो भय नथी होतो परंतु
ते अंगरक्षक देवो ईन्द्रनी विभूतिना सूचक छे. ईन्द्रने त्रण प्रकारनी परिषद–सभा होय
छे. ते अच्युत स्वर्गनी सीमानी रक्षा करनारा चार दिशामां चार लोकपाल हता अने
दरेक लोकपालने ३२ देवीओ हती, अच्युतेन्द्रने आठ महादेवीओ हती, ते उपरांत बीजी
६३ वल्लभिका देवीओ हती, अने एकेक महादेवीने अढीसो–अढीसो बीजी देवीओनो
परिवार हतो. ए रीते ते अच्युतेन्द्रने कुल बे हजार–एकोतेर देविओ हती. तेनुं चित्त
ए देवीओना स्मरण मात्रथी ज संतुष्ट थई जतुं हतुं. आ ईन्द्रनी दरेक देवीमां एवी
विक्रियाशक्ति हती के ते सुंदर स्त्रीनां दशलाख चोवीस हजार रूप बनावी शकती हती.
दरेक देवीने अप्सराओनी त्रण त्रण सभाओ हती. तथा ते ईन्द्रने हाथी, रथ, घोडा
वगेरे सात प्रकारनी सेना हती–जे देवोनी ज विक्रिया द्वारा बनेली हती. ते अच्युतेन्द्र
बावीसहजार वर्षमां एकवार आहार करतो हतो; तथा अगियार महिने एकवार श्वास
लेतो हतो. तेनुं अति सुंदर शरीर त्रण हाथ ऊंचुं हतुं. शास्त्रकार कहे छे के भगवान
आदिनाथनो जीव अच्युतेन्द्रनी पर्यायमां धर्मना प्रतापे आवी उत्तम विभूतिने पाम्यो
हतो, माटे भव्य जीवोए जिनेन्द्रदेवना कहेला धर्ममां पोतानी बुद्धि लगाववी जोईए,
ने भक्तिपूर्वक तेनुं आराधन करवुं जोईए. ते जीव आवी बाह्य विभूतिने पामवा छतां
अंतरमां तेनाथी भिन्न चैतन्यनुं भान हतुं. अंतरना चैतन्यवैभव पासे आ बधा
ईन्द्रवैभवने ते तूच्छ समजता हता. आ वैभवनी वच्चे रहीने पण अंतरना
चैतन्यवैभवनी महत्ताने एक क्षण पण ते भूलता न हता. सम्यग्दर्शननी अखंड धारा
टकावीने स्वर्गनां दिव्य भोगोनो अनुभव करतां; तेमां कोई वार देवे विक्रियावडे हाथीनुं
रूप धारण कर्युं होय–ते हाथी उपर चडीने गमन करता, क््यारेक जिनेन्द्र भगवाननी
महान पूजा करता, क््यारेक मध्यलोकमां आवीने तीर्थंकरदेवनी वंदना करता. एम
आनंदपूर्वक स्वर्गलोकनो दीर्घ काळ पसार करता हता.
कल्पवृक्षना फूलोनी माळा एकवार अचानक करमाई गई. आना पहेलां क््यारेय ते
माळा करमाई न हती. स्वर्गथी च्यूत थवानां जेवां चिह्नो अन्य साधारण देवोने प्रगट थाय
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जवाथी जो के ईन्द्रने ख्याल आवी गयो हतो के हवे अल्पकाळमां हुं आ अच्युत
स्वर्गमांथी च्युत थईश;–तो पण ते ईन्द्र जरापण दुःखी न थया. केम के महापुरुषो एवा
ज धैर्यवान होय छे. ज्यारे मात्र छ मासनुं आयुष्य बाकी रह्युं त्यारे पवित्र बुद्धिवाळा
पंडितजनो आत्मकल्याणना अभिलाषी होय छे तेथी तेवा कार्योमां ते प्रवर्ते छे. आयुना
अंतसमयमां ते धर्मात्माए पंचपरमेष्ठीपदमां पोतानुं चित्त लगाव्युं. अने देवलोकमां
भोगवतां बाकी वधेला पुण्यथी संयुक्त आपणा आ चरित्रनायक स्वर्गमांथी च्यवीने
आ मनुष्यलोकमां अवतर्या.
छतां पण तेओ स्वर्गथी च्यूत थई जाय छे; माटे संसारनी आवी क्षणभंगुर–स्थितिने
धिक्कार हो. संपूर्ण सुखथी भरेलुं अने पुनरागमन रहित एवुं जे अविनाशी मोक्षपद
पुंडरीकिणीनगरीमां वज्रसेन तीर्थंकरना पुत्र तरीके अवतरशे, चक्रवर्ती थशे,
मुनिपणुं लईने तीर्थंकरप्रकृति बांधशे, उपशमश्रेणीमां चडीने अगियारमा
गुणस्थाने वीतरागताने अनुभवशे: त्यांथी सर्वार्थसिद्धिना अहमेन्द्र
थशे.......ने पछी छेल्ला अवतारमां ऋषभतीर्थंकर तरीके अवतरीने
भरतक्षेत्रना जीवोने माटे मोक्षमार्ग खुल्लो मुकशे.
सर्वे शास्त्रो भणवा छतां वैराग्य सिद्धि पमाती नथी–
ण हु सिज्झंति विरागेण विणा पढिदेसु वि सव्वसत्थेसु।।