Atmadharma magazine - Ank 275
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.

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आत्मधर्म
वर्ष २३
सळंग अंक २७५
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001 Jan 2005 First electronic version.

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२७प
निजभाव
परभावमां ज रमी रह्यो
निजभावमां आव्यो नहि;
रे जीव! तुं तो दु:खथी
संसारमां ज भम्यो भम्यो.
हवे छोड ए परभावने,
निजभावमां तुं आव रे!
सुखथी भरेला आत्मामां
बस, मोक्ष मोक्ष ज मोक्ष छे.
वर्ष २३ : अंक : १० * वीर सं. २४९२ द्वि श्रावण
तंत्री: जगजीवन बावचंद दोशी * संपादक: ब्र हरिलाल जैन

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युगयुग जुनुं आपणुं पूज्य तिर्थ
ज.....य स....म्मे....द....शि....ख....र
श्रावण सुद सातमे सम्मेदशिखर उपरथी भगवान पार्श्वनाथ मोक्ष पधार्या.
हालमां सम्मेदशिखर संबंधी दिगंबर जैनोना समस्त अधिकारोनुं रक्षण थाय एवा
संतोषकारक करार बिहारसरकार साथे थया, अने तीर्थसंबंधी अगाउ ऊभी थयेली विकट
परिस्थिति दूर थई, तेथी भारतभरना दिगंबर जैनसमाजमां संतोष अने हर्षनी लागणी
फेलाई गई हती. अने आ लागणी व्यक्त करवा, तथा पोताना महान तीर्थराज प्रत्येनी
अतीव भक्ति व्यक्त करवा देशभरमां सर्वत्र घणा ज हर्षोल्लास सहित “सम्मेदशिखर
दिवस” श्रावण सुद सातमे उजवायो हतो. सर्वत्र ए शाश्वततीर्थना पूजनभक्ति करवामां
आव्या हता; ने आ कार्यना उकेल माटे दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमिटीए जे सफळ प्रयत्न कर्या
तथा बिहारना मुख्यप्रधानश्रीए न्यायनी जाळवणी थाय ने दि. जैनोना हक्कनुं संरक्षण
थाय तेवा करार करवामां जे सहकार आप्यो, ते बदल तेओ प्रत्ये सौए आभारनी
लागणी व्यक्त करी हती. सोनगढमां पण ए दिवस खूब उत्साहपूर्वक उजवायो हतो.
सवारमां जिनमंदिरमां तीर्थराजनुं समूहपूजन थयुं; तथा प्रवचन पछी सभामां (जेमां
अनेक गामना जिज्ञासुओ उपस्थित हता तेमां सम्मेदशिखरना करार संबंधी प्रसन्नता
व्यक्त करतो ठराव पसार कर्यो हतो. बपोरे जिनमंदिरमां पू. बेनश्रीबेने सम्मेदशिखरजीनी
जे परमभक्ति करावी त्यारे तो जाणे सम्मेदशिखरनी यात्रा करता होईए एवो हर्षोल्लास
थतो हतो.......सम्मेदशिखर आपणा हृदय साथे जोडायेलुं छे.....युगयुग जुनुं आपणुं आ
परमपूज्य तीर्थ आपणने सिद्धिपंथनी प्रेरणा सदाय आप्या करो.......
जय सम्मेदशिखर।

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : १ :
वर्ष २३
वार्षिक लवाजम अंक ११
त्रण रूपिया वीर सं. २४९२
भादरवो
वे मुनिवर
(राग: मल्हार)
वे मुनिवर कब मिलि हैं उपकारी....वे मुनिवर
साधु दिगम्बर नगन निरम्बर, संवर भूषणधारी
...... वे मुनिवर ।।।।
कंचन काच बराबर जिनकैं, ज्यों रिपु त्यौं हितकारी
महल मसान मरन अरु जीवन, सम गरिमा अरु गारी
..... वे मुनिवर ।।।।
सम्यग्ज्ञान प्रधान पवन बल, तप पावक परजारी ।।
सेवत जीव सुवर्ण सदा जे, काय–कारिमा टारी
..... वे मुनिवर ।।।।
जोरि जुगल कर ‘भधूर’ विनवे, तिन पद ढोक हमारी ।।
भाग उदय दरशन जब पाऊं, ता दिनकी बलिहारी
..... वे मुनिवर ।।।।

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: २ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
दश धर्मनुं स्वरूप
(पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी)
सम्यक्त्वपूर्वकना वीतरागभाव वडे जेनी आराधना
थई शके छे एवा उत्तमक्षमादि दश धर्मोनुं स्वरूप अहीं
पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी संक्षेपमां आपवामां आव्युं छे.
मुनिवरो एना मुख्य आराधक छे, ने श्रावके पण तेनुं स्वरूप
ओळखीने शक्ति अनुसार तेनी उपासना करवी.
* गमे ते परिस्थितिमां पण चैतन्यभावनाना बळे वीतरागी समभावमां टकी
रहेवुं ने क्रोधरूप विषमभाव थवा न देवो ते उत्तम क्षमाधर्म छे. मोक्षमार्गी
सन्तोने आ क्षमा सहचरी छे. क्रोधनी उत्पत्ति साधकभावमां बाधा करनारी छे,
एम समजीने तेने दूरथी ज छोडवो, ने क्षमाभावने मोक्षनो साधक जाणीने
अंगीकार करवो.
* देह–रूप–जाति–कूळ वगेरे करतां मारो ज्ञानस्वभावी आत्मा ज जगतमां श्रेष्ठ
छे–एवी भावनावडे मदनी उत्पत्तिनो अभाव थाय छे, एटले के मार्दवधर्म थाय छे.
* मारा रत्नत्रयमां मने कोई दोष न हो–एवी भावनावडे, रत्नत्रयमां लागेला
कोई दोषने छूपाव्या वगर गुरु समीपे सरलपणे व्यक्त करीने ते दोष छोडवा ते
आर्जवधर्म छे.
* भेदज्ञानवडे सत्य स्वभावने जाणनार जीव, जिनवाणीअनुसार सत्य वचन
बोले ने असत्य बोलवानी वृत्ति न थाय ते सत्यधर्म छे.
* भेदज्ञाननी भावनाना बळथी रत्नत्रयनी आराधनामां तत्पर अने भव–तन–
भोगथी विरक्त एवा जीवने ममत्वरूप मलिनभाव थतो नथी, ने रत्नत्रयनी
शुचिता टकी रहे छे ते शौचधर्म छे. (शौच=पवित्रता)
* चैतन्यना परम शांतरसमां निमग्नतावडे ईन्द्रिय विषयो तरफनी वृत्ति के
क्रोधादि कषायोनी उत्पत्ति न थाय, स्वरूपनी आराधनामां सम्यक् प्रकारे उपयोग
जोडायेलो रहे ते संयमधर्म छे.

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : ३ :
* गमे तेवो उपद्रव आवे तोपण पोताना चैतन्यना चिंतनथी च्यूत न थवुं ने
विषयकषायोरूपी चोरने उपयोगघरमां प्रवेशवा न देवा ते तप छे. आ तप
विषयकषायोरूपी चोरथी पोताना रत्नत्रयरूपी धनने बचाववा माटे महान
योद्धासमान रक्षक छे, ने आनंदनो दातार छे.
* स्वसंवेदनमां आवेलो शुद्ध आत्मा ते ज मारो छे. बीजुं कांई पण मारुं नथी,–
एम शुद्धात्मा सिवाय सर्वत्र ममत्वनो अभाव ते त्यागधर्म छे. श्रुतनुं प्रवचन,
शास्त्रदान वगेरे पण आ त्यागधर्मना पोषक छे.
* शुद्ध चैतन्य एक ज मारो छे, बीजुं किंचित्त् मारुं नथी, आवी अकिंचनरूप
चैतन्यभावना वडे देहादि समस्त परद्रव्यो प्रत्ये ममत्वनो त्याग ते अकिंचनधर्म छे.
* ब्रह्मस्वरूप आत्माना आनंदना अतीन्द्रिय स्वादना बळे बाह्य विषयोमांथी
वृत्ति ज ऊडी जवी ते उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म छे. विशुद्ध बुद्धिना बळे एवी निर्विकार
भावना थई जाय के देवी ललचावे तोपण विकारनी वृत्ति न थाय ने माता के
बहेनवत् निर्विकार भावना रह्या करे; एवा जीवने उत्तम ब्रह्मचर्य छे.
उत्तमक्षमादिक आ दश धर्मने आराधनारा सन्तोने अत्यंत भक्तिपूर्वक
आराधीए, अने तेमना जेवी आराधनाना दीवडा आत्मामां प्रगट करीए....ए
ज भावना.
आ सिंह अने सर्प छे के–अरे मनुष्यो! अमे तीर्यंच
होवा छतां, आ भगवान सर्वज्ञदेवना मार्गनी परम
भक्तिपूर्वक उपासना वडे सम्यक्त्व पामीने आत्माने
अनुभवीए छीए, तीर्यंचपणुं भूलीने सिद्ध जेवो अनुभव
करीए छीए....तो तमे तो मनुष्य छो.....तमे पण आवो
अनुभव केम नथी करता! अमे सिंह अने सर्प जगतमां कू्रर
गणाईए छतां भगवाननी वाणीना प्रतापे फ्रूररस छोडीने
परम शांतरसने पाम्या.....तो तमे तो भगवाननी जेम
मनुष्य छो....कषायनो कलुषरस छोडीने चैतन्यना परम उपशांतरसने अनुभवो.
सिंह अने सर्पनी आ वात सांभळीने बालविभागना सभ्यो कहे छे के वाह! वनराज!
अने सर्पराज! तमे बंने तीर्यंच गतिमां होवा छतां, केवा भक्तिभावपूर्वक भगवाननी सेवा करी
रह्या छो! ने धर्मनी आराधना करी रह्या छो! तमने धन्य छे. तिर्यंच होवा छतां तमे अमारा
साधर्मी बन्या छो. तमने देखीने अमनेय धर्मनी प्रेरणा अने वात्सल्यभाव जागे छे.

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: ४ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
छठ्ठी–सातमी गाथावडे ज्ञायकस्वभाव सांभळीने
शिष्यने सम्यक्त्व थवानुं अपूर्व वर्णन
आचार्यदेवे गाथा ६–७मां ज्ञायकभाव बतावतां कह्युं के जेमां अशुद्धता नथी,
जेमां पर्यायभेद नथी ने जेमां दर्शन–ज्ञान–चारित्रना गुणभेद नथी एवो शुद्ध ज्ञायक
आत्मा छे, ने ते शुद्धनयनो विषय छे. भेदरूप जे व्यवहार छे तेना अवलंबने
शुद्धआत्माने जणातो नथी. हवे आवा शुद्ध आत्माने जाणवाना जिज्ञासु शिष्यने प्रश्न
ऊठे छे के प्रभो! आवा परमार्थरूप शुद्धआत्मानो एकनो ज उपदेश देवो हतो, वच्चे
अनेक भेदरूप व्यवहार केम कह्यो? तेना उत्तरमां आठमी गाथामां आचार्यदेव कहे छे के
जेम आर्यभाषा नहि जाणनार कोई अनार्यने समजाववा माटे अनार्यभाषामां कहेवुं
पडे छे तेम परमार्थ एक स्वभावनो जे अजाण छे एवा जिज्ञासु शिष्यने ते स्वभाव
समजाववा माटे एक अभेद आत्मामां गुण भेद उपजावीने समजाव्युं के जे ज्ञान–दर्शन–
चारित्रस्वरूप छे ते आत्मा छे. त्यां शिष्य ते गुणभेदना विकल्पमां अटकतो नथी पण
आचार्यनो आशय समजीने अभेद आत्माने अनुभवमां ल्ये छे.
समयसारमां आचार्य भगवान जे शुद्धात्मानुं स्वरूप समजाववा मांगे छे ते
शुद्धात्मस्वरूप समजवानी जिज्ञासावाळो शिष्य अंतरमां कया प्रकारे समजी जाय छे, ने
ते समजता तेना अंतरमां ज्ञान–आनंदना केवा सुंदर तरंग ऊछळे छे–ए वात
अलौकिक प्रकारे आठमी गाथामां बतावी छे. जे शिष्य अंतेवासी थयो छे एटले के
समजवानो जिज्ञासु थईने ‘नजीक’ आव्यो छे तेने आचार्यदेव समजावे छे.
अंतेवासी:– शिष्य अंतेवासी छे, ते बे प्रकारे नजीक छे, एक तो शुद्धआत्मानुं
श्रवण करवा आव्यो छे एटले क्षेत्रथी अंतेवासी थयो छे; ने अंतरमां पात्रता प्रगट
करीने भावथी पण नजीक थयो छे, आवा अंतेवासी शिष्यने ‘दर्शन–ज्ञान–चारित्र’
स्वरूप आत्मा छे’ एम अभेदमां भेद उपजावीने परमार्थस्वरूपनो उपदेश आप्यो. त्यां
बताववो छे अखंड आत्मा, कांई भेद बताववो नथी. पण अभेदस्वरूप समजवा जतां
वच्चे एटलो भेद आव्या वगर रहेतो नथी.
आ समयसारनी पारायण छे. समयसार ए भरतक्षेत्रनुं महान भागवत छे;
पात्र थईने सांभळे ते भगवान थई जाय–एवी आ वात छे. भगवान पासेथी
सांभळीने कुंदकुंदाचार्यदेवे आ महान शास्त्र रच्युं छे, तेथी आ

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : प :
जैन भगवतशास्त्र छे. स्वानुभवमां पहोंचवा माटेनी छेल्लामां छेल्ली वात आचार्यदेव
निकटवर्ती शिष्यने समजावे छे. शिष्यने मनमां एक ज धून छे के जेवो ज्ञायक
शुद्धआत्मा श्रीगुरु कहे छे तेवो अनुभवमां लेवो; बीजो कोई रोग मनमां नथी. आम
आत्मानी जिज्ञासावडे रागथी दूर थईने स्वभावनी समीप आव्यो छे. आवा शिष्यने
असाधारण धर्मो द्वारा एटले के ज्ञान–दर्शन–चारित्ररूप धर्मो द्वारा एक धर्मीनुं स्वरूप
समजावे छे. आमां जोके वच्चे सूक्ष्म गुणभेद आवे छे, पण ते गुणभेद अनुभवमां
नथी. तैयारीवाळो शिष्य ते भेदना अवलंबनमां न अटकतां अभेद आत्माने
अनुभवमां ल्ये छे.
आत्मा रागी छे के बंधनवाळो छे–एवी अशुद्धपणानी वात तो दूर रहो, ज्ञान
ते आत्मा–एवा गुण–गुणी भेदना लक्षे पण शुद्धात्मा अनुभवमां आवतो नथी. जो के
ज्ञान–दर्शन–चारित्रादि गुणोनो कांई आत्मामां अभाव नथी; पण अहीं शुद्धआत्मानो
अनुभव करवो ते प्रयोजन छे, ने गुणभेदना आश्रये ते प्रयोजन सिद्ध थतुं नथी; माटे
कहे छे के ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम कहेतां ते भेद उपर जोईने तुं अटकीश नहि, कथनमां
भले भेद आव्यो पण तुं भेदनुं अवलंबन छोडीने अभेद आत्माने अनुभवमां लेजे.
आ वात द्रष्टांतथी समजावे छे: जेम कोई म्लेच्छने कोई ब्राह्मण एम आशीर्वाद
आपे के ‘स्वस्ति!’ त्यारे स्वस्ति एटले मारुं अविनाशी कल्याण थवाना आशीर्वाद
मने आपे छे एम नहि समजनारो ते म्लेच्छ ब्राह्मण उपर कंटाळो लाव्या वगर
बहुमान अने विनयपूर्वक तेनी सामे जिज्ञासाथी जोई रहे छे;–कोनी जेम? के मेंढानी
जेम; मेंढाने अनुसरवानी टेव छे तेम शिष्य पण गुरुए शुं कह्युं तेने अनुसरवा मागे
छे, एटले ते मेंढानी जेम आंखो फाडीने टगटग जोई रहे छे.
आंखो फाडीने टगटग अनिमेष नेत्रथी जोई रहे छे, तेमां न समज्यानो कंटाळो
नथी पण समजवानी तीव्र जिज्ञासा छे. आ कंईक मारुं हित बताववा मांगे छे एवो
विश्वास छे.
आंखो फाडीने:– समजवानी तीव्र जिज्ञासा छे एटले आंखो फाडीने जोई रहे
छे, तेम अंतरमां ज्ञानरूपी आंखो फाडीने एकाग्रताथी शिष्य समजवा मांगे छे. आंख
बंध नथी राखतो, बेदरकारी नथी करतो पण अनिमेषपणे, टमकार वगर आंखो फाडीने
टगटग जोई रहे छे. शिष्यजन आत्मा समजवा माटे ज्ञानचक्षु ऊघाडीने, एटले के
क्षयोपशमभावने ते तरफ जोडीने समजवा तैयार थयो छे.
पछी ज्यारे ते ज ब्राह्मणद्वारा, अथवा ब्राह्मण अने म्लेच्छ बंनेनी भाषा
जाणनारा बीजा कोई द्वारा स्वस्ति शब्दनो अर्थ ते म्लेच्छ समजी जाय छे के तरत तेना
नेत्रो आनंदमय आंसुओथी भराई जाय छे के अहो! आ तो मारा अविनाशी कल्याण माटे
आशीर्वाद आपता हता! तेम आत्मा ज्ञान–दर्शन–चारित्रस्वरूपी छे एम आत्मानुं स्वरूप

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: ६ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
आचार्यदेव समजावे छे; ते समजनार जिज्ञासु शिष्यने अंतरमां पांचे लब्धि आवी जाय
छे; ते वात आचार्यदेवे आठमी गाथामां अलौकिक रीते बतावी छे.
सम्यक्त्वनी पांच लब्धि आमां आवी जाय छे
चैतन्यस्वभाव सांभळता श्रोताना अंतरमां अपूर्व हर्षोल्लास छे; ते आंखो
फाडीने जोई ज रहे छे एटले के समजवाने योग्य क्षयोपशमलब्धि थई छे, ने स्वरूप
समजवा माटे उपयोगने एकाग्र करे छे.
टगटग जोई रहे छे–तेमां समजवा माटेनी जिज्ञासाथी परिणामनी विशुद्धि थई
छे एटले विशुद्धिलब्धि थई छे.
‘दर्शन–ज्ञान–चारित्रस्वरूप आत्मा छे’ एवी आचार्यदेवनी देशना प्राप्त थई छे
एटले के देशनालब्धि थई छे.
प्रायोग्यलब्धि एटले अंदर कर्मस्थितिनी अल्पता तथा परिणामनी तेवी
योग्यता पण थई छे.
आम चारलब्धि तो थई छे; ने पांचमी करणलब्धि अनुभव करवाना काळमां
थाय छे ते पण बतावशे. तेमां सुंदर आनंदतरंग–बोधतरंग ऊछळे छे एम कहेशे.
उपदेश देनारा आचार्य केवा छे?
पहेला पांचमी गाथामां तो कह्युं हतुं के–अमारा समस्त आत्मवैभवथी अमे शुद्ध
आत्मानुं स्वरूप देखाडशुं. शुद्धात्मानुं प्रचुर संवेदन करनारा एवा परमगुरुओना
अनुग्रहपूर्वक अमने जे शुद्धात्मतत्त्वनो उपदेश मळ्‌यो तेनाथी अमारो आत्मवैभव
प्रगट थयो, एटले के जेवो शुद्धात्मा श्रीगुरुए कह्यो हतो तेवो अमने अनुभवमां
आव्यो, एवा स्वानुभवपूर्वक अमे शुद्धात्मानुं स्वरूप आ समयसारमां देखाडशुं.
उपदेश करनारा आचार्य केवा होय ते आमां आवी जाय छे. एक आचार्य
उपदेश आपीने चाल्या जाय तो शिष्य ते वात छोडी देतो नथी, पण धीरज राखी
रुचिने लंबावी बीजा आचार्य पासेथी समजे छे. “ते ज अथवा बीजा आचार्य तेने
परमार्थ समजावनारा मली ज जाय छे;” –आम कहीने श्रोतानी जिज्ञासानुं लंबाण
बताव्युं छे; तेनी जिज्ञासा अने समजवानी योग्यतानी तीव्रता छे एटले कदाचित
पहेला आचार्य चाल्या गया होय तो कोईने कोई बीजा उपदेशक ज्ञानी तेने मली ज जशे.
एनी पात्रता छे एटले जरूर तेने समजावनार पण मली ज रहे छे, –एवी ज संधि छे.
आचार्य तो स्वरूपमां झूलतां होय, एटले “दर्शन–ज्ञान–चारित्रस्वरूप आत्मा
छे” एटलो उपदेश आपीने तेमने विकल्प छूटी जाय अथवा अन्यत्र विहार करी जाय,
पण शिष्य पोतानी जिज्ञासा छोडतो नथी, पण जिज्ञासा लंबावीने बीजा आचार्य
पासेथी तेनो परमार्थ समजे छे–एवी तेनी पात्रता छे.
दर्शन–ज्ञान–चारित्रस्वरूप आत्मा छे एम कहेवामां कहेनारनो आशय भेद बताववानो

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : ७ :
नथी पण अभेदस्वरूप आत्मा बताववानो आशय छे; ने शिष्य ते आशय पकडी,
भेदना विकल्पनुं अवलंबन छोडीने अभेदस्वरूप एक आत्माने तत्काळ अनुभवमां
लई ल्ये छे.
सद्य एटले तुरत ज आनंदपूर्वक आत्माने अनुभवे छे,–एटले के गुरुना
सान्निध्यमां ज अधिगमज सम्यक्त्व पामे छे एवी वात लीधी छे.
समजतां शुं थाय छे? के अंतरमां तत्काळ आनंद उत्पन्न थाय छे ने सुंदर–
मनोहर बोधतरंग ऊछळे छे. आनंद अने ज्ञानतरंग बंने साथे लीधा. पहेला ‘आनंद’
कहीने तेनी वात करी. चोथा गुणस्थाने सम्यक्त्वनी साथे आवो अत्यंत आनंद उत्पन्न
थाय छे, ने सम्यग्ज्ञानना मनोहर तरंग ऊछळे छे, ज्ञानकला खीले छे. शिष्य तत्काळ
आवो आनंद प्रगट करीने, सुंदर ज्ञानतरंग वडे आत्मस्वरूप समजी जाय छे.
जुओ तो खरा, शिष्यनी तैयारी केटली! टूंकामां बधो सार (–बार अंगनो
सार) समजीने तरत आनंदसहित आत्मानो अनुभव करी लीधो.
‘दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप आत्मा छे’ एटला उपदेशवडे शिष्य परमार्थ आत्माने समजी
गयो. आटलो भेद वच्चे आव्यो, पण तेनुं अवलंबन छोडीने शिष्य परमार्थने समजी गयो.
समजतां शुं थयुं? के अत्यंत आनंदनो अनुभव थयो. ने सुंदर–मनोहर एवा
सम्यग्ज्ञान तरंग ऊछळ्‌या. अहा, जाणे आनंदना दरिया ऊछळ्‌या. परभावोथी आत्मा
जुदो पडी गयो, भेदनुं अवलंबन छूटी गयुं ने अभेद ज्ञायकभावमात्र आत्मा
अनुभवमां आव्यो. आ रीते सम्यग्दर्शन प्रगट थयुं. सम्यग्दर्शन प्रगट थवानुं आ
अपूर्व वर्णन छे. सम्यग्दर्शन प्रगटवाना काळे आत्मामां शुं थाय छे ते आचार्यदेवे
बताव्युं छे; ने परमार्थ आत्माने समजवानी अलौकिक रीत बतावी छे.
आवा आत्मानो जे अनुभव करवा मांगे छे ते जीवने शुद्धनयना विषयरूप शुद्ध
आत्मानो ज महिमा छे; तेने बहारनी कोई क्रियानो महिमा नथी, ने अंदर गुणभेदना
विकल्पनोय महिमा एने नथी. ए तो बधा अशुद्धनयना विषयो छे. अंदरमां
शुद्धनयना विषयरूप जे एकाकार ज्ञायक आत्मा तेने ज ते अनुभवमां लेवा मांगे छे.
अज्ञानी जीवो आवा शुद्ध आत्माने जाणता नथी, पण अशुद्धनयना विषयने ज
ते आत्मा तरीके अनुभवे छे. एवा जीवने समजाववा “ज्ञान ते आत्मा आनंद ते
आत्मा” एम गुण–गुणीभेदद्वारा उपदेश कर्यो, त्यां प्रयोजन भेदना विकल्पनुं नथी,
अभेद आत्मानुं लक्ष कराववानुं ज प्रयोजन छे. ने एवा आत्माने लक्षमां लईने समजे
त्यारे सम्यग्ज्ञानना ने आनंदना तरंग ऊछळे छे.–ए रीते सम्यग्दर्शन पामे छे.
आत्माने समज्यानी निशान
आत्माना अनुभवनुं आ खास लक्षण अने ट्रेडमार्क छे के अत्यंत आनंदथी एना

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: ८ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
अंतरमां सुंदर बोधतरंग ऊछळे छे. जुओ, आ आत्मा समज्यानी निशानी! बहारना
उघाडनी साथे संबंध नथी, अंदरनुं कार्य अंदरमां थाय छे. आत्मा समजवा माटे ज्ञानी
सामे टगटग जोतो हतो, तेणे ज्ञानने अंतरमां एकाग्र कर्युं के तुरत ज अंतरमां
आनंदनी उत्पत्ति थई; तुरत ज उपदेश परिणमी गयो, ते अनुसार अंदरमां अनुभव
प्रगट क््यो; ए रीते अधिगमज सम्यक्त्वनी वात आचार्यदेवे लीधी छे. समजनारने
ऊंडी धगश छे एटले जाणे उपदेश देनारनी हाजरीमां ज अनुभव करी ल्ये छे एवी
शैलि छे. जेवी वात काने पडी के तुरत ज अंदर परिणमी गई. जेवुं गुरुए संभळाव्युं
तेवुं समजीने शिष्ये अनुभव्युं. त्यां अंदर निर्विकल्प आनंदसहित सुंदर मनोहर
ज्ञानतरंग ऊछळे छे. ‘अनुभव थतां आत्मामां अतीन्द्रिय सुखनो सागर ऊछळ्‌यो!’
अनंतकाळमां नहि मळेलो एवो आनंद ने उल्लास एने स्वसंवेदनमां थाय छे.
लक्षने भेद उपरथी खसेडीने ज्यां अंदर अभेद आत्मामां आव्यो त्यां सुंदर
‘ज्ञानचेतना’ जागी, साथे आनंदनो अनुभव थयो, ‘चैतन्यना आ.....आत्मा आ....हुं
आवो....मारो स्वाद आ.....’ एम विकल्प वगरनो आत्मानो साक्षात्कार कर्यो त्यारे
आत्मा शब्दने अर्थ सुंदर रीते–साची रीते समज्यो. अने आ जे आनंद अने ज्ञाननुं
वेदन थयुं ते ज हुं छुं–एम पोते पोताने बराबर ओळख्यो. बोलतां ने बीजाने
समजावतां आवडे के न आवडे तेनी साथे संबंध नथी, अंदर आत्मामां एकाग्र थयो ने
आनंदना अनुभव सहित सम्यग्ज्ञानना किरण फूटया त्यारे ज समज्यो एम कह्युं.
आवी दशा वगर शास्त्रना भणतरथी कदाचित ‘आत्मा’ नी वात करे तोपण ते
आत्मा’ ना भावने समज्यो छे एम कहेता नथी. अहीं तो वाच्य–वाचकना अपूर्व
मेळनी वात छे. ‘आत्मा’ एवो वाचक शब्द कहेनार ज्ञानीना आशयमां जेवुं वाच्य हतुं
तेवुं वाच्य पोते अंतर्मुख थईने पकडी लीधुं, त्यारे ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ समज्यो–ए
समज्यानी निशानी शुं? तो कहेे छे के तरत ज एना अंतरमां अत्यंत आनंदसहित
सुंदर बोधतरंग ऊछळ्‌या, ते आत्माने समज्यानी निशानी छे.
अहा, कुंदकुंदाचार्यदेवनी शैली ज कोई अलौकिक छे. धोधमार दिव्यध्वनि जेवा
तेमनां वचनो छे. तेओ कहे छे के अमे अमारा अने श्रोताना आत्मामां सिद्धपणुं
स्थापीने शरूआत करीए छीए; आवुं मांगळिक करीने सिद्धने साथे राखीने
साधकभावमां ऊपड्या, ते हवे सिद्धपद सुधी वच्चे क्यांय अटकवाना नथी.
श्रोतानी श्रवणमां अपूर्वता
जुओ तो खरा, श्रोता पण केवो लीधो छे! के आत्मानो खपी छे. एकला
आत्मानो खपी छे. आचार्यदेवे उपदेशमां जे कह्युं ते तुरत ज सुंदर रीते समजी जाय छे.
“ज्ञान ते आत्मा–एम कहीने श्रीगुरु मने जे बताववा मागे छे ते आ” एम अंतरमां
वाच्य तरफ वळीने ज्यारे स्वसंवेदन कर्युं त्यारे सुंदर बोधतरंग ऊछळ्‌या एटले रागथी

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: भादरवो : २४९२ : आत्मधर्म : ९ :
जुदो पडी गयो; व्यवहारना भेदनो आश्रय छोडीने परमार्थस्वभावमां पहोंची गयो;
त्यां पूर्वे नहि समजेलुं समज्यो, ने पूर्वे नहि सांभळेलुं सांभळ्‌युं, वाच्य–वाचकभावनी
संधिपूर्वकनुं आवुं श्रवण पूर्वे कदी कर्युं न हतुं. पहेलां ‘व्यवहारीजन’ हतो ते हवे
परमार्थने पामी गयो. वच्चे आवेल भेद–व्यवहारमां ते अटकी न रह्यो पण तेना
परमार्थने समजी गयो.
आ रीते परमार्थ समजावतां व्यवहारद्वारा (भेदद्वारा) तेनुं प्रतिपादन थतुं
होवाथी ते व्यवहारनय स्थापन करवायोग्य छे, पण अनुसरवा योग्य नथी; परमार्थ
स्वभावने ज अनुसरवुं योग्य छे, ने व्यवहारनुं अनुसरण छोडवा जेवुं छे.
जुओ, शिष्य पण ज्यारे व्यवहारनुं अनुसरण छोडीने, परमार्थस्वभावमां
वळ्‌यो त्यारे तेने आनंदसहित सम्यक् ज्ञानतरंग ऊछळ्‌या. कहेनारा आचार्य पण
व्यवहारना विकल्पमां रोकाता नथी, ने श्रोता–शिष्यजने पण व्यवहारना विकल्पमां
रोकावा जेवुं नथी. अभेदमां अंतर्मुख था.....तो ‘आत्मा’ समजाय.
जुओ, आ गाथामां ‘व्यवहार विना परमार्थनो उपदेश अशक््य छे’ एम कह्युं
तेथी कांई ते व्यवहारना अवलंबननो उपदेश नथी, ऊलटुं ते व्यवहार बतावीने तेनुं
अवलंबन छोडाव्युं छे. जो भाई! वच्चे गुणगुणी भेदनो आवो व्यवहार आव्या विना
रहेतो नथी पण तेना अवलंबनमां तुं न अटकीश, ते व्यवहारनय अनुसरवायोग्य
नथी. शिष्य पण एवो छे के गुरुना–ज्ञानीना अंतरंगभावने बराबर समजी ल्ये छे.
कथनमां भेद आवतो होवा छतां ज्ञानीनो अंतरंग अभिप्राय अंदरनो परमार्थ स्वभाव
बताववानो छे. एवा अंतरंग अभिप्रायने समजीने शिष्य पोते अंतर्मुख थईने
परमार्थ स्वभावने तरत समजी जाय छे. पछी करशुं एम कहीने छोडी देतो नथी, पण
एटली पात्रता छे के तरत ज समजी जाय छे. पहेलां भेदथी लक्ष हतुं त्यां सुधी हजी
समजेलो न कह्यो, पण ज्यारे आनंदसहित अंदर भावश्रुतना सुंदर तरंग ऊछळ्‌या
त्यारे ते शिष्य आत्माने समज्यो एम कह्युं.
चैतन्यनिधान खोलनार, अपूर्व आत्मस्वरूप समजावीने
मुमुक्षुअंतरमां आनंदमय सुंदर बोधतरंग उछाळनार अपूर्व रत्ननिधि एवा
सन्तोने नमस्कार हो.
आवता अंके आत्मधर्मना चालुवर्षना बधा ग्राहकोनुं लवाजम पूरुं थाय छे. तो आगामीवर्षनुं
(सं. २०२३नुं) लवाजम त्रण रूपिया नीचेना सरनामे वेलासर मोकली आपवा विनंति:
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ (सौराष्ट्र)

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: १० : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
ज्ञानीनुं मधुर वेदन
अंतरमां अमृतना सागरमां डूबकी दईने धर्मात्माओए
चैतन्यना आनंदनुं जे मधुर वेदन कर्युं छे–तेना वर्णनद्वारा आचार्यदेवे
ज्ञानीनी ओळखाण करावी छे, जे ओळखाण अति आनंदकारी छे ने
अज्ञाननो नाश करनारी छे.
अज्ञानथी ज विकारनुं कर्तापणुं छे, ने ज्ञानथी ते कर्तापणानो नाश
थाय छे–आम जे जीव जाणे छे ते सकल परभावनुं कर्तृत्व छोडीने ज्ञानमय
थाय छे. निश्चयने जाणनारा ज्ञानीओए एम कह्युं छे के आत्मा अज्ञानथी
ज विभावनो कर्ता थाय छे. ज्यां भिन्न चैतन्यस्वभावनुं भान थयुं त्यां
पोताना शुद्ध चैतन्य सिवाय बीजे क््यांय आत्मविकल्प थतो नथी, एटले
ते ज्ञानी समस्त परभावने पोताना स्वभावथी भिन्न जाणतो थको तेनुं
कर्तृत्व छोडी दे छे.
जुओ, आ ज्ञाननुं कार्य! ज्ञानी थयो ते आत्मा पोताना चैतन्यना
भिन्न स्वादने जाणे छे. ज्यां चैतन्यना अत्यंत मधुर शांतरसनो स्वाद
जाण्यो त्यां कडवा स्वादवाळा कषायोमां आत्मबुद्धि केम थाय? रागादि
भावो मारा स्वभावमांथी उत्पन्न थयेला छे. एम ज्ञानीने जरापण
भासतुं नथी. शुद्धज्ञानमय परम भाव ज तेने पोतानो भासे छे, तेथी
शुद्धज्ञानमय स्वभावना आधारे तेने निर्मळ ज्ञानभावोनी ज उत्पत्ति
थाय छे अने तेनो ज ते कर्ता थाय छे. विकल्पनी उत्पत्ति ज ज्यां मारा
ज्ञानमां नथी तो पछी ते विकल्पवडे ज्ञाननी पुष्टि थाय–ए वात क्यां
रही?–आथी ज्ञानीने ज्ञानथी भिन्न समस्त विकल्पोनुं कर्तृत्व छूटी गयुं छे.
आ आत्मा अनादिथी अज्ञानी वर्ते छे, तेने पोताना स्वभावना
स्वादनुं अने विकारना स्वादनुं भेदज्ञान नथी एटले बंनेने एकमेकपणे
अनुभवे छे; देहथी भिन्नतानी वात तो स्थूळमां गई, अहीं तो अंदरना

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : ११ :
अरूपी! विकल्पोथी पण चैतन्यनी भिन्नता बताववी छे. अज्ञानीने
भेदज्ञाननी शक्ति बीडाई गई छे, भेदज्ञान करवानी शक्ति तो दरेक
आत्मामां छे पण अज्ञानी ते शक्ति प्रगट करतो नथी, तेनी ते शक्ति
अनादिथी बिडाई गयेली छे. आवा अज्ञानने लीधे ज ते पोताने अने
परने एकमेक माने छे, ज्ञानने अने रागने एकमेक अनुभवे छे. ‘हुं
चैतन्य छुं’–एवो स्वानुभव करवाने बदले ‘हुं क्रोध छुं, हुं राग छुं’–एम ते
अनुभवे छे. अहो, दिव्यध्वनि चैतन्यना एकत्वस्वभावनो ढंढेरो वगाडे
छे, गणधरो–संतो अने चारे अनुयोगना शास्त्रो भेदज्ञाननो ढंढेरो पीटीने
कहे छे के चैतन्यस्वभाव तो अनादि–अनंत, अकृत्रिम, निर्मळ विज्ञानघन
छे, ने रागादिभावो तो क्षणिक, नवा, पराश्रये, उत्पन्न थयेला मलिन
भावो छे, तेमने एकता केम होय?–न ज होय.–पण अज्ञानी आवा
वस्तुस्वभावथी भ्रष्ट थईने वारंवार अनेक विकल्परूपे तद्रूप परिणमतो
थको तेनो कर्ता प्रतिभासे छे.
अहीं तो ते कर्तापणुं छूटवानी वात समजाववी छे. “रागादिनुं
कर्तापणुं अज्ञानथी ज छे” –एम जे जीव जाणे छे ते जीव ते रागादिना
कर्तृत्वने अत्यंतपणे छोडे छे. मारा चैतन्यस्वभावमां रागनुं कर्तृत्व छे ज
नहि. रागनी खाण मारा चैतन्यमां नथी, मारी चैतन्यखाणमां तो
निर्विकल्प अनाकुळ शांतरस भर्यो छे. शांतरसनो स्वाद ते ज मारो स्वाद
छे, जे आकुळता छे ते मारो स्वाद नथी, ते तो रागनो स्वाद छे–एम
बंनेना स्वादने अत्यंत भिन्न जाणतो थको ज्ञानी, चैतन्यने अने रागने
एकस्वादपणे नथी अनुभवतो, पण चैतन्यना स्वादने रागथी जुदो ज
अनुभवे छे. चैतन्यना आनंदना निधानने पहेलां अज्ञानथी ताळां दीधा
हता, ते ताळांने भेदज्ञानरूपी चावी वडे खोली नांख्या, चैतन्यना
आनंदनिधानने खुल्ला करीने तेनुं स्वसंवेदन कर्युं. ज्यां पोताना
निजरसने जाण्यो त्यां विकारनो रस छूटी गयो, तेनुं कर्तृत्व छूटी गयुं.
पहेलां निरंतर विकारनो स्वाद लेतो तेने बदले हवे निरंतर स्वभावना
आनंदनो स्वाद ल्ये छे.
जुओ, आ चोथा गुणस्थानवाळा समकिती धर्मात्मानी दशा! जे
साधक थयो, जे मोक्षना पंथे चडयो, अंतरमां जेने चैतन्यना भेटा थया,
एवा धर्मात्मा–ज्ञानी मतिश्रुतज्ञानथी चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनुं
स्वसंवेदन करे छे: अहा, जगतना रसथी जुदी जातनो चैतन्यनो रस छे.

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: १२ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
ईंद्रपदना वैभवमां पण ते रस नथी. समकिती ईंद्रो जाणे छे के अमारा
चैतन्यना अतीन्द्रिय स्वाद पासे आ ईंद्रपद तो शुं!–आखा जगतनो
वैभव पण तूच्छ छे. चैतन्यनो रस अत्यंत मधुर..... अत्यंत शां....त!
अत्यंत निर्विकार...जेना संवेदनथी एवी प्राप्ति थाय के आखा जगतनो
रस ऊडी जाय. शां....त शां.....त चैतन्यनुं मधुरुं वेदन थयुं त्यां
आकुळताजनक एवा कषायोनुं कर्तृत्व केम रहे? कषायोथी अत्यंत
भिन्नतानुं भान थयुं. जुओ, स्वसन्मुख थईने आवा स्वादनुं स्वसंवेदन
करवानी मति श्रुतज्ञाननी ताकात छे. मति–श्रुतने स्वसन्मुख करीने
धर्मात्मा आवा चैतन्यस्वादनुं प्रत्यक्ष स्वसंवेदन करे छे.
अहा, जुओ तो खरा केवा शांतभावो आचार्यदेवे भर्या छे!
अमृतना सागर केम ऊछळे–ते वात अमृतचंद्राचार्यदेवे आ समयसारमां
समजावी छे.
साधकनी अंदरनी शुं स्थिति छे तेनी जगतना जीवोने खबर नथी;
एना हृदयना गंभीर भावो ओळखवानुं साधारण जीवोने मुश्केल पडे तेवुं
छे. समजवा मागे तो बधुं सुगम छे. आ भावो समजे तो अमृतना सागर
ऊछळे ने झेरनो स्वाद छूटी जाय. भेदज्ञाननो आ महिमा छे. भेदज्ञान
थतां ज जीवनी आवी दशा थाय छे. ज्ञानी धर्मात्मा चैतन्यरसना स्वाद
पासे जगतना बधा स्वाद प्रत्ये सदाय उदासीन अवस्थावाळो थयो छे,
रागादिने पण अत्यंत उदासीन अवस्थावाळो रहीने मात्र जाणे ज छे.
पण तेनो कर्ता थतो नथी. आ रीते ज्ञायकस्वभावने ज स्वपणे
अनुभवतो ज्ञानी निर्विकल्प–अकृत्रिम–एक विज्ञानपणे परिणमतो थको
अन्य भावोनो अत्यंत अकर्ता ज छे.–आवी दशाथी साधक ओळखाय छे.
आवी अंतरदशाथी ज्ञानीने ओळखतां अति आनंद थाय छे ने विकारमां
तन्मयबुद्धिरूप अज्ञाननो नाश थईने अपूर्व भेदज्ञान प्रगट थाय छे.

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : १३ :
भगवन ऋषभदव
तेमना छेल्ला दस अवतारनी कथा
(महा पुराणना आधारे ले ब्र. हरिलाल जैन: लेखांक छठ्ठो)
*
[६]
ऋषभदेवनो पूर्वनो पांचमो भव: सुविधिराजा (श्रावकधर्मनुं पालन)
श्रीधरदेव ऐशान स्वर्गनुं आयुष्य पूर्ण थतां त्यांथी च्युत थईने आपणा
चरित्रनायक जंबुद्वीपना पूर्व विदेहक्षेत्रमां महावत्स देशनी सुसीमानगरीमां अवतर्या.
सुविधिकुमार एमनुं नाम. तेमना पिता सुद्रष्टि राजा, अने माता सुन्दरनंदा. अनेक
कळानो भंडार ते सुविधिकुमार बाल्य अवस्थामां ज बधाने आनंदित करतो हतो, अने
तेने समीचीन धर्मना संस्कार प्रगट्या हता.–ए खरुं ज छे केमके आत्मज्ञानी पुरुषोनुं
चित्त सदाय आत्मकल्याणमां ज अनुरक्त रहे छे. सुशोभित मुकुटथी अलंकृत उन्नत
मस्तकथी मांडीने स्वाभाविक लालाशवाळा चरणकमळ सुधीनी सर्वांगसुंदरताने धारण
करनार ते राजकुमार उत्तम सामुद्रिक लक्षणो वडे बधाना मननुं हरण करतो हतो.
युवानीमां उद्रेक करनारा काम–क्रोधादि शत्रुओने ते जितेन्द्रिय राजकुमारे यौवननी
शरूआतमां ज जीती लीधा हता, तेथी युवान होवा छतां पण ते वृद्ध–समान गंभीर

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: १४ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
देखातो हतो. खरूं ज छे, धर्मना आराधक जीवने माटे काम–क्रोधादि शत्रुओने जीतवा ए
कार्य सहज छे.
अभयघोष–चक्रवर्तीनी पुत्री मनोरमा साथे तेना विवाह थया; ऐशान
स्वर्गमांथी स्वयंप्रभ नामनो देव (श्रीमतीनो जीव, के जे भविष्यमां श्रेयांसकुमार
थवानो छे ते) अहीं सुविधिकुमारने त्यां केशव नामना पुत्र तरीके उपज्यो. वज्रजंघनी
पर्यायमां जे तेनी श्रीमती–स्त्री हती ते ज अहीं तेनो पुत्र थई. अरे, शुं कहेवुं?
संसारनी स्थिति ज एवी छे! ते पुत्र उपर सुविधि राजाने घणो ज प्रेम हतो. जीवोने
पुत्र उपर सहेजे प्रेम होय छे तो पछी पूर्व भवनी प्रिय स्त्रीनो ज जीव ज्यां पुत्रपणे
अवतर्यो त्यां तेना उपरना प्रेमनुं तो शुं कहेवुं?
सिंह, नोळियो, वांदरो अने भूंड–ए चारेना जीव भोगभूमिमां साथे उपजीने
सम्यक्त्व पाम्या हता ने पछी ईशान स्वर्गमां पण साथे ज हता, तेओ त्यांथी चवीने
आ वत्सकावती देशमां ज सुविधिकुमारनी समान विभूतिना धारक राजपुत्रो थया.
वरदत्त, वरसेन, चित्रांगद अने प्रशांतदमन नामना ते चारे राजपुत्रोए घणा काळ
सुधी राजवैभव भोगव्यो. राजवैभवनी वच्चे पण चैतन्यवैभवने तेओ भूल्या न
हता; आत्मानुं भान तेमने सदैव वर्ततुं हतुं.
एकवार अभयघोष चक्रवर्तीनी साथे ते चारेय राजपुत्रो विमलवाहन–
जिनेन्द्रदेवनी वन्दना करवा माटे गया; त्यां बधाये भक्तिपूर्वक वंदना करीने प्रभुनो
दिव्य उपदेश सांभळ्‌यो. अहा, ए दिव्यध्वनिनी शी वात! शी एनी गंभीरता! ए
सांभळतां बधाय चैतन्य–रसमां मशगुल बन्या अने संसारथी विरक्त थईने जिनदीक्षा
धारण करी. चक्रवर्तीनी साथे बीजा अढार हजार राजाओ तथा पांच हजार पुत्रोए पण
दीक्षा लीधी. ए बधाय मुनिवरो संवेग अने निर्वेदरूप परिणाम वडे मोक्षना मार्गने
साधता हता. रत्नत्रय धर्ममां अने तेना फळमां उत्कृष्ट प्रीति करीने उत्साहपूर्वक तेनी
आराधना करवी ते संवेग छे. अने शरीर, भोग तथा संसार प्रत्ये अतिशय विरक्त
परिणाम ते निर्वेद छे. आवा संवेग–निर्वेदपूर्वक ते मुनिवरो मोक्षमार्गने साधवा लाग्या.
आपणा चरित्रनायक भगवान आदिनाथ के जे सुविधिराजा थाय छे–तेना
पूर्वभवना साथीदारो तो आ रीते मुनि थया; पण राजा सुविधि केशवपुत्रना तीव्र
स्नेहने लीधे मुनिपणुं लई न शक््या; तेथी मुनिपणानी भावना राखीने तेओ श्रावकना
उत्कृष्ट धर्मोनुं पालन करवा लाग्या. जिनेन्द्र भगवाने गृहस्थधर्ममां सम्यक्त्व उपरान्त
अगियार स्थानो (अगियार प्रतिमा) कहे छे; (१) दर्शन प्रतिमा, (२) व्रत प्रतिमा,
(३) सामायिक,

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : १प :
(४) प्रौषध (प) सचित्तत्याग, (६) दिवसे मैथुनत्याग, अथवा रात्रिभोजनत्याग,
(७) ब्रह्मचर्य, (८) आरंभत्याग, (९) परिग्रहत्याग (१०) अनुमतित्याग अने
(११) उदिष्टत्याग; सुविधिराजा श्रावकधर्मनां आ अगियार स्थानोनुं क्रमक्रमथी पालन
करतां हता. अहिंसा वगेरे पांच अणुव्रतोनुं तेओ पालन करता हता. ते दरेक
अणुव्रतोनी पोषक पांच–पांच भावनाओ छे. आचार्य महाराज कहे छे के जो आ पांच
अणुव्रत ते दरेक व्रतनी पांच–पांच भावनाओ साथे अने सम्यग्दर्शननी विशुद्धिथी
संयुक्त धारण करवामां आवे तो तेनाथी गृहस्थने मोटा मोटा फळनी प्राप्ति थाय छे.
गृहस्थोने माटे बार व्रतनुं पालन ते स्वर्गरूपी राजमहेलनी सीडी छे, अने ते नरकादि
दुर्गतिने दूर करनार छे. सम्यग्दर्शनवडे व्रतोनी शुद्धताने पामेला ते राजर्षि सुविधि
दीर्धकाळ सुधी श्रावकपणे रहीने श्रेष्ठ मोक्षमार्गनी आराधना करता हता. अने जीवनना
अंत समये तेमणे सर्व परिग्रह छोडीने दिगंबर मुनिदीक्षा धारण करी, ने विधिपूर्वक
उत्कृष्ट मोक्षमार्गनी आराधना करीने समाधिपूर्वक शरीर छोडयुं ने अच्युतस्वर्गमां
ईन्द्रपणे ऊपज्या. तथा तेनो पुत्र केशव (–श्रीमतीनो जीव) पण निर्ग्रंथ मुनि थई
समाधिमरणपणे देह छोडी ते अच्युतस्वर्गमां प्रतीन्द्रपणे ऊपज्यो. वरदत्त आदि चारे
राजपुत्रो (सिंह वगेरेना चारे जीवो) पण पोतपोताना पुण्योदयथी ते अच्युत स्वर्गमां
ज ईंद्र समान ऋद्धिधारक देव थया.–खरूं ज छे, पूर्वभवना संस्कारोथी जीवो एक
जग्याए एकठा थई जाय छे.
[७]
भगवान ऋषभदेवनो पूर्वनो चोथो भव: अच्युतेन्द्र
अच्युत स्वर्गना ईन्द्रपणे ऊपजेला आपणा कथानायक दिव्यवैभव सहित हता;
दिव्य प्रभावाळुं एनुं शरीर स्वभावथी ज सुंदर हतुं, विष के शस्त्र वगेरेथी तेने बाधा
पहोंची शकती न हती. मस्तक उपर धारण करेला कल्पवृक्षना मनोहर पुष्पोथी ते एवा
लागता हता–जाणे के पूर्वभवना तपश्चरणना महान फळने माथे उपाडीने बधाने
देखाडता होय! साथे ज ऊपजेला आभूषणोवडे तेनुं शरीर एवुं शोभतुं हतुं–जाणे के
तेना प्रत्येक अंग उपर दयारूपी वेलडीनां फळ झुलतां होय. कल्पवृक्षनी जेम ते ईन्द्र
शोभता हता, एना चरणोनी पण अद्भुत शोभा हती. एना अच्युत स्वर्गमां उत्पन्न
थयेला भोगोने ते अनुभवता हता. सोळमुं अच्युत स्वर्ग जो के आ मनुष्यलोकथी छ
राजु (असंख्याता योजन) ऊंचे छे, छतां पण सुविधिराजाने पुण्यप्रभावथी ते स्वर्ग
भोगोपभोगनुं स्थान बनी गयुं. खरेखर, पुण्यथी शुं प्राप्त न थाय!

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: १६ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
ते ईन्द्रने उपभोगमां आवनारा देवविमानोनी संख्या सर्वज्ञप्रणीत आगममां
भगवाने १प९ कही छे. उत्तम जातिना ३३ देवो स्नेहभरी बुद्धिथी तेने पुत्रसमान
गणता हता. तेना परिवारमां दश हजार बीजा सामानिक देवो हतो, तेओनो वैभव जो
के ईन्द्रनी समान हतो, परंतु ईन्द्रनी माफक तेमनी आज्ञा चालती न हती. तेना
अंगरक्षक जेवा ४०००० देवो हता. स्वर्गमां जोके कोई प्रकारनो भय नथी होतो परंतु
ते अंगरक्षक देवो ईन्द्रनी विभूतिना सूचक छे. ईन्द्रने त्रण प्रकारनी परिषद–सभा होय
छे. ते अच्युत स्वर्गनी सीमानी रक्षा करनारा चार दिशामां चार लोकपाल हता अने
दरेक लोकपालने ३२ देवीओ हती, अच्युतेन्द्रने आठ महादेवीओ हती, ते उपरांत बीजी
६३ वल्लभिका देवीओ हती, अने एकेक महादेवीने अढीसो–अढीसो बीजी देवीओनो
परिवार हतो. ए रीते ते अच्युतेन्द्रने कुल बे हजार–एकोतेर देविओ हती. तेनुं चित्त
ए देवीओना स्मरण मात्रथी ज संतुष्ट थई जतुं हतुं. आ ईन्द्रनी दरेक देवीमां एवी
विक्रियाशक्ति हती के ते सुंदर स्त्रीनां दशलाख चोवीस हजार रूप बनावी शकती हती.
दरेक देवीने अप्सराओनी त्रण त्रण सभाओ हती. तथा ते ईन्द्रने हाथी, रथ, घोडा
वगेरे सात प्रकारनी सेना हती–जे देवोनी ज विक्रिया द्वारा बनेली हती. ते अच्युतेन्द्र
बावीसहजार वर्षमां एकवार आहार करतो हतो; तथा अगियार महिने एकवार श्वास
लेतो हतो. तेनुं अति सुंदर शरीर त्रण हाथ ऊंचुं हतुं. शास्त्रकार कहे छे के भगवान
आदिनाथनो जीव अच्युतेन्द्रनी पर्यायमां धर्मना प्रतापे आवी उत्तम विभूतिने पाम्यो
हतो, माटे भव्य जीवोए जिनेन्द्रदेवना कहेला धर्ममां पोतानी बुद्धि लगाववी जोईए,
ने भक्तिपूर्वक तेनुं आराधन करवुं जोईए. ते जीव आवी बाह्य विभूतिने पामवा छतां
अंतरमां तेनाथी भिन्न चैतन्यनुं भान हतुं. अंतरना चैतन्यवैभव पासे आ बधा
ईन्द्रवैभवने ते तूच्छ समजता हता. आ वैभवनी वच्चे रहीने पण अंतरना
चैतन्यवैभवनी महत्ताने एक क्षण पण ते भूलता न हता. सम्यग्दर्शननी अखंड धारा
टकावीने स्वर्गनां दिव्य भोगोनो अनुभव करतां; तेमां कोई वार देवे विक्रियावडे हाथीनुं
रूप धारण कर्युं होय–ते हाथी उपर चडीने गमन करता, क््यारेक जिनेन्द्र भगवाननी
महान पूजा करता, क््यारेक मध्यलोकमां आवीने तीर्थंकरदेवनी वंदना करता. एम
आनंदपूर्वक स्वर्गलोकनो दीर्घ काळ पसार करता हता.
एम करतां करतां देवलोकमां तेना आयुष्यना छ महिना ज बाकी रह्या अने
अच्युत स्वर्ग छोडीने मध्यलोकमां आववानी तैयारी थई, त्यारे तेना शरीर उपरनी
कल्पवृक्षना फूलोनी माळा एकवार अचानक करमाई गई. आना पहेलां क््यारेय ते
माळा करमाई न हती. स्वर्गथी च्यूत थवानां जेवां चिह्नो अन्य साधारण देवोने प्रगट थाय

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : १७ :
छे तेवां ईन्द्रोने नथी थता, पण कोईक अल्प चिह्नो प्रगटे छे. पुष्पमाळा करमाई
जवाथी जो के ईन्द्रने ख्याल आवी गयो हतो के हवे अल्पकाळमां हुं आ अच्युत
स्वर्गमांथी च्युत थईश;–तो पण ते ईन्द्र जरापण दुःखी न थया. केम के महापुरुषो एवा
ज धैर्यवान होय छे. ज्यारे मात्र छ मासनुं आयुष्य बाकी रह्युं त्यारे पवित्र बुद्धिवाळा
ते अच्युतेन्द्रे भगवान अर्हन्तदेवनी पूजानो प्रारंभ क््यो; ते योग्य ज छे केम के
पंडितजनो आत्मकल्याणना अभिलाषी होय छे तेथी तेवा कार्योमां ते प्रवर्ते छे. आयुना
अंतसमयमां ते धर्मात्माए पंचपरमेष्ठीपदमां पोतानुं चित्त लगाव्युं. अने देवलोकमां
भोगवतां बाकी वधेला पुण्यथी संयुक्त आपणा आ चरित्रनायक स्वर्गमांथी च्यवीने
आ मनुष्यलोकमां अवतर्या.
अहीं आचार्यदेव कहे छे–के स्वर्गना देवो जो के सदा सुखसम्पन्न, महा धैर्यवान
अने मोटी मोटी ऋद्धिना धारक होय छे, तथा ईन्द्रोनुं असंख्य वर्षनुं आयुष्य होय छे,
छतां पण तेओ स्वर्गथी च्यूत थई जाय छे; माटे संसारनी आवी क्षणभंगुर–स्थितिने
धिक्कार हो. संपूर्ण सुखथी भरेलुं अने पुनरागमन रहित एवुं जे अविनाशी मोक्षपद
तेमां ज मुमुक्षुए पोतानी बुद्धि जोडवा योग्य छे.
हवे आपणा कथानायक भगवान ऋषभदेवना जीवने फक्त त्रण
अवतार बाकी रह्या. अच्युत स्वर्गमांथी चवीने ते विदेहक्षेत्रनी
पुंडरीकिणीनगरीमां वज्रसेन तीर्थंकरना पुत्र तरीके अवतरशे, चक्रवर्ती थशे,
मुनिपणुं लईने तीर्थंकरप्रकृति बांधशे, उपशमश्रेणीमां चडीने अगियारमा
गुणस्थाने वीतरागताने अनुभवशे: त्यांथी सर्वार्थसिद्धिना अहमेन्द्र
थशे.......ने पछी छेल्ला अवतारमां ऋषभतीर्थंकर तरीके अवतरीने
भरतक्षेत्रना जीवोने माटे मोक्षमार्ग खुल्लो मुकशे.
वैराग्यसंपन्न वीर अल्पज्ञान वडे पण सिद्धि पामे छे;
सर्वे शास्त्रो भणवा छतां वैराग्य सिद्धि पमाती नथी–
वीरा वेरग्गपरा थोवं पि हु सिक्खिउण सिज्झंति।
ण हु सिज्झंति विरागेण विणा पढिदेसु वि सव्वसत्थेसु।।