Atmadharma magazine - Ank 275
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
प र म शां ति दा ता री
अध्यात्मभावना
आत्मधर्मनी सहेली लेखमाळा
लेखांक: नं. ४०] [अंक २७४ थी चालु
भगवानश्री पूज्यपादस्वामीरचित ‘समाधिशतक’ उपर पू. कानजीस्वामीनां
अध्यात्मभावनाभरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
वीर सं. २४८२ असाड वद नोम:
(समाधिशतक गा. ७२ चालु)
आ देहथी जुदो हुं कोण छुं? अनादिकाळथी आ भव–अटवीमां परिभ्रमण केम
थई रह्युं छे? आत्माने शांति केम नथी मळती?–एम जेने जिज्ञासा जागी होय एवा
जीवने आचार्यदेव शांतिनो उपाय बतावे छे. आत्मा शरीरथी जुदो होवा छतां, शरीरने
ज पोतानुं माने छे ते भ्रांति छे, ने ते भ्रांतिने लीधे ज अनादिकाळथी अशरणपणे
भव–अटवीमां परिभ्रमण करी रह्यो छे. लक्ष्मीना ढगला के स्त्री–आदि कुटुंबीजन ते
कोई जीवने क्षणमात्र पण शरणभूत नथी पण मूढ जीव तेने शरणरूप माने छे ने तेमां
सुख माने छे. जुओ, मरणनां छेल्ला टाणां आवे, अंदर मुंझवणथी दुःखी थतो होय,
बहार लक्ष्मीना ढगला पड्या होय ने स्त्री–पुत्र वगेरे टगटग जोता ऊभा होय, त्यां
एम प्रार्थना करे के हे लक्ष्मीना ढगलाओ! हे स्त्रीओ! तमे मने शरण आपो.–तो शुं ते
कोई जीवने शरणुं आपशे? शुं ते दुःख मटाडी देशे?–नहि; केमके आ शरीर पण जीवने
शरणरूप नथी तो पछी तद्न जुदा एवा बीजा संयोगोमां शरण केवुं? भाई! तने
शरणरूप तो तारो आत्मा छे. अशरीरी–अरूपी–चैतन्यमूर्ति आत्मा ज तारुं स्व छे, ते
ज तारी खरी लक्ष्मी छे, एना सिवाय जगतमां कोई बीजुं तने शरणरूप नथी. अज्ञानी
भ्रमथी मंदकषायने शांति मानी ल्ये छे, पण तेमां कांई साची शांति के आनंद नथी. हुं
जेटलो मारा स्वरूपमां अंतर्मुख रहुं तेटली मने शांति छे, ने बहारमां

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : १९ :
वलण जाय तेटली आकुळता छे. आवो निर्णय तो ज्ञानीए कर्यो छे, अने ते उपरांत
बाह्य संसर्ग छोडीने चैतन्यस्वरूपमां विशेषपणे एकाग्र थवानी भावना भावे छे.
लोकसंसर्गथी मन चंचळ थाय छे माटे चैतन्यमां स्थिर थवा माटे लौकिक संसर्गनो
परित्याग करवो–एम उपदेश छे. चैतन्यस्वरूप तरफ झुकतां बाह्य संसर्ग प्रत्ये वलण ज
जतुं नथी; माटे कहे छे के हे योगी! आत्माना आनंदमां एकाग्र थवा माटे तुं बाह्य
संसर्गने छोड ने चैतन्यस्वभावमां ज निवास कर.
असंगी थईने, विकल्पनोय जेमां संसर्ग नथी एवा अंतरना तत्त्वने जे साधवा
मांगे छे तेने बहारनो संग गमे ज नहि. लौकिक प्रसंगोना ज परिचयमां रह्या करे तो
असंगस्वभाव तरफ परिणाम क्यांथी वळशे? कांई परवस्तु आना परिणामने
बगाडती नथी पण पर तरफना संगनो प्रेम ते अंतरनी एकाग्रताने रोके छे. माटे एवो
उपदेश छे के मुमुक्षुए लौकिकजनोना परिचयना प्रसंगमां बहु न आववुं. श्रीमद्राजचंद्र
पण कहे छे के लोकसंज्ञावडे लोकाग्रे जवातुं नथी; एटले के लोकपरिचयना परिणाम रह्या
करे ने आत्मानो मोक्ष पण सधाय एम बनतुं नथी. भले निमित्त परिणामने बगाडतुं
नथी, पण तारुं वलण शुद्धआत्मामांथी खसीने निमित्तना संग तरफ केम गयुं?
उपदेशमां तो निमित्तथी कथन आवे के तुं परसंग छोड; ज्यां शोरबकोर चालतो होय ने
विषयकषायोनी वातो थती होय एवा प्रसंगनो संग तुं छोड, एटले चैतन्यमां तारुं
चित्त जोड; बहारना संगमांथी लक्ष हठावीने एकान्तमां अंदर ऊतरीने आत्मानुं ध्यान
कर. मुमुक्षुए एकान्तमां रहीने आत्माने साधवो. आत्मानी साधना अंदर समाय छे;
ए कांई बीजाने देखाडवा माटे नथी. अंदरना सूक्ष्म संकल्प–विकल्पो पण स्वरूपनी
स्थिरताना बाधक छे, तो पछी बहारना संग तरफ लक्ष जाय ते तो बाधक छे ज. एथी
करीने बहारना लक्षवाळाने मिथ्यात्व छे–एम नथी, पण बहारनुं लक्ष अंतरमां
स्थिरता थता देतुं नथी एटले अंतिम ध्येयरूप जे मोक्ष तेने ते रोके छे. माटे हे भव्य!
आत्माने साधवा तुं बहारनुं लक्ष छोडीने असंगपणे अंतरनी चैतन्य गूफामा जा....ने
तेनुं ध्यान कर. ।। ७२ ।।
बाह्य संसर्गथी चित्त क्षुब्ध थाय छे, माटे बाह्य लौकिकजनोनो संसर्ग छोडवा
जेवो छे–एम कह्युं. त्यां कोई बहिरात्मा एम समजे के “आ बधुं छोडीने जंगलमां
एकला जईने रहेवुं, एकांत जंगलमां जवाथी आत्मामां एकाग्रता थशे; गाममां मने
धर्म नहि थाय ने जंगलमां थशे;–आ प्रमाणे बहारना संयोग–वियोग उपर जेनी द्रष्टि
छे ते अनात्मदर्शी,–ते आत्माने नथी देखतो पण संयोगने ज देखे छे; ने आत्माने देखनार
ज्ञानी तो परथी भिन्न निजात्मामां निश्चलपणे रहे छे–ए वात हवेना श्लोकमां कहे छे–
ग्रामोऽरण्यमिति द्वेघा निवासोऽनात्मदर्शिनाम्
दष्टात्मनां निवासस्तु विविक्तात्मैव निश्चलः।। ७३ ।।

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: २० : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
जे अनात्मदर्शी छे, आत्मानुं दर्शन अने अनुभवन जेने थयुं नथी ते ज ‘आ
गाम अने आ जंगल’ एम बे प्रकारना निवासस्थाननी कल्पना करे छे, एटले ते
बहारमां पोतानो निवास माने छे; पण जेणे आत्मस्वरूपनो अनुभव कर्यो छे एवा
आत्मदर्शी अंतरात्मा तो परथी भिन्न रागादिरहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माने ज
पोतानुं निश्चल निवासस्थान माने छे, ने बाह्य संसर्ग छोडीने ते अंतरस्वरूपमां वास
करे छे–तेमां एकाग्र थईने रहे छे. अज्ञानीनी बाह्यद्रष्टि छे एटले ज्यां लोकसंसर्ग
छोडवानुं कथन आवे त्यां तेनी द्रष्टि जंगल उपर जाय छे; केम जाणे जंगलमां एनी
शांति होय! भाई, जंगलमां पण तारी शांति नथी, शांति तो आत्मामां छे, माटे
आत्मामां ऊंडो ऊतर तो तने शांति थाय. बहारनी जंगलनी गूफामां तो सिंह–वाघ ने
सर्पो पण रहे छे; माटे तुं अंतरना चैतन्यनी गिरिगूफामां जईने ध्यान कर–तो तने
आनंदनो अनुभव थाय. अहो! मुनिवरो चैतन्यगूफामां ऊंडा उतरीने ध्यान करता होय
त्यारे एवा आनंदमां लीन होय छे के जाणे सिद्धभगवान! आवा अंतरना स्वरूपने
भूलीने अज्ञानीनी द्रष्टि बाह्य जंगलमां जाय छे. लोकसंसर्ग छोडवानी वात आवे त्यां
ज्ञानीनुं वलण अंतरस्वरूपमां जाय छेेे.......के हुं तो जगतथी जुदो ज छुं ने जगत
माराथी जुदुं ज छे; मारा स्वरूपमां जगतनो प्रवेश नहि, ने जगतमां मारो वास नहि;
मारुं चिदानंदस्वरूप ते ज मारुं निवासस्थान छे, ए सिवाय बहारनुं जंगल के महेल ते
कांई मारुं निवासस्थान नथी. अज्ञानीए जंगलमां शांति मानीने, जंगल प्रत्ये प्रेम
कर्यो, पण आत्मातरफ वलण न कर्युं,–तेथी जंगलमां पण तेने शांति नहि मळे.
अहो! आवो मानवअवतार मळ्‌यो.......तेमां जेने लौकिक सज्जनता मंदकषाय
वगेरे पण न होय एवा जीवो तो मनुष्यअवतार एळे गूमावी देशे.....अने एकला
लौकिक मंदकषायमां ज धर्म मानीने रोकाई जशे ने चैतन्यतत्त्व शुं छे ते समजवानी
दरकार नहि करे तो तेनो अवतार पण निष्फळ चाल्यो जशे, तेने आत्मानी शांति नहि
थाय. माटे आचार्यभगवान कहे छे के अरे जीवो! आवो दुर्लभ मानवअवतार मळ्‌यो
तो आत्मानुं हित शुं छे तेनो उपाय करो. आ देह अने लक्ष्मीना संयोगो तो आत्माथी
जुदा ज छे, ते बधा अहीं पड्या रहेशे ने आत्मा बीजे चाल्यो जशे. माटे ते शरीरादिथी
भिन्न चैतन्यतत्त्व शुं छे तेने लक्षमां ल्यो....ने तेमां निवास करो. आ शरीर तो
क्षणभंगुर छे, ते आत्मानुं निवासस्थान नथी. ज्ञान–आनंदरूप स्वभाव ज आत्मानुं
निवासस्थान छे. अरे, राग पण आत्मानुं खरूं निवासधाम नथी, अनंतगुणरूप वस्तु
ते ज आत्मानुं खरूं निवासधाम छे.
जे जीव आत्माना अनुभवथी शून्य छे, स्वमां जे स्थित नथी, ते ज बहारनां गाम

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : २१ :
अने जंगलमां पोतानुं स्थान माने छे. ‘लोकसंसर्गथी रागद्वेष थाय छे माटे एकांत
जंगलमां रहुं तो शांति थाय’–एवी मान्यतावाळो पण बहिरात्मा छे. जेम लोको बाह्य
छे तेम जंगल पण बाह्य छे. लोकसंसर्गनो प्रेम छोडीने जंगलनो प्रेम कर्यो तो ते पण
बाह्यद्रष्टि ज छे. ज्ञानी तो लोकसंसर्ग छोडीने अंतरना चैतन्यतत्त्वमां निवास करे छे.
मुनिओ आनंदमां झूलता ने आत्मामां वसता,–बाह्य जंगलमां रहे छे, पण बाह्य
जंगलथी मने शांति छे–एवी बुद्धि नथी, जंगल पण पर छे, अमारो वास तो अमारा
शुद्धस्वरूपमां ज छे, अंतरस्वरूपमां एकाग्र थया त्यां जाणे सिद्धभगवाननी साथे बेठा!
समस्त पदार्थोथी विभक्त एवो जे पोतानो आत्मा तेमां ज मुनिओ वसे छे.
जंगलमांथी आहारादि माटे गाममां आवे, ने लोकोनां टोळां नजरे पडे त्यां मुनिने कांई
संदेह नथी थई जतो के हुं स्वरूपमांथी खसीने लोकसंसर्गमां आवी गयो. चारेकोर
भक्तोनां टोळां होय छतां मुनि जाणे छे के मारो आत्मा लोकसंसर्गथी पर छे, मारा
चैतन्यस्वरूपमां ज मारो निवास छे. बहारमां भक्तोनां टोळां वच्चे बेठा छे माटे तेने
बाह्यद्रष्टि छे–एम नथी; तेम ज बहारमां लोकोनो संग छोडीने जंगलमां जईने गूफामां
रहे तेथी तेने बाह्यद्रष्टि छूटी गई छे–एम पण नथी. ज्ञानी जाणे छे के मारो आत्मा
सर्वलोकथी जुदो ज छे, ज्ञानानंदस्वरूप मारो आत्मा ज मारुं निवासधाम छे,–आवी
अंतरद्रष्टिपूर्वक ज्ञानी तेमां ज एकाग्र थाय छे: ने चैतन्यना आनंदमां एकाग्र थतां
बाह्य संसर्ग प्रत्ये राग–द्वेष थता नथी तेथी तेमणे बाह्य संसर्ग छोडयो–एम कहेवामां
आवे छे.
।। ७३ ।।
आपणे सोनगढमां रहेता
होईए ने सोनगढ उपरांत बीजा
कोई गामना दिगंबर जैनमंदिरमां
भगवानना दर्शन करवा माटे पगे
चालीने जवानी भावना आपणने
थाय, तो सौथी नजीकमां नजीक कया
गाममां आपणने वीतराग
भगवाननां दर्शन थशे?

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: २२ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
एक हता झवेरी
एक हता झवेरी. एनुं नाम ‘राज’ .
राजनो स्वभाव राजा जेवो उदार.
ने धर्मना प्रेमनो तो पार नहि.
धंधो करतां पण धर्मने भूले नहि.
एक वार ते दुकाने बेठा हता.
त्यां एक माणस आव्यो.
आव्यो ने साथे कंईक लाव्यो.
आवीने ते झवेरीने आप्युं,
ने कह्युं–ल्यो आ पोथी!ु
राज–झवेरीए तो पोथी लीधी ने खोली.
खोलीने एक पानुं वांच्युं.
वांच्युं ने आनंदनो पार न रह्यो.
अहो! आ तो ‘समयप्राभृत!’
अहो! आ तो शुद्धात्मानुं शास्त्र!
अहो, आ तो कुंदकुंदस्वामीनी अनुभववाणी!
अहो, आ तो तीर्थंकरदेवनो सन्देश!
वाह, धन्य भाग्य!
तरत माणसने कह्युं के थाळ भरीने रूपिया लावो.
रूपिया आव्या ने खोबो भर्यो.
खोबो भरीने रूपिया ते माणसने भेट आप्या.
अने कह्युं–आ पानामां तो हीरा भर्या छे!
एनी किंमत लाखो रूपियाथी आंकी शकाय
तेम नथी.
आ झवेरी राज एटले श्रीमद्राजचंद्र; ए झवेरीए समयसारना झवेरातने
पारखी लीधुं.

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : २३ :
उपशमरसनतरत प्रवचन
हे जीव! तारा उपशमादि परिणाम तारा स्वद्रव्यना आश्रये ज थाय छे; ए
परिणाम तारा ज छे, कोई बीजाना नथी ने बीजाना आश्रये थता नथी. तारुं
सम्यग्दर्शन तारा द्रव्यना आश्रये छे, कोई बीजाना आश्रये नथी, तारुं केवळज्ञान तारा
द्रव्यना आश्रये छे, कोई बीजाना आश्रये नथी. अने रागद्वेषादि परिणाम पण तारा
पोताथी करेला छे, कोई बीजाए करावेला नथी.
अहा, आवी स्वाधीन वस्तु व्यवस्था,–कोई वस्तुनो बीजी वस्तुमां जरापण
प्रवेश ज ज्यां नथी, बहार ने बहार ज रहे छे, त्यां एक वस्तु बीजी वस्तुने शुं करे?
दरेक वस्तुमां अनंत शक्तिओ प्रकाशमान छे, परंतु वस्तुनी ते शक्तिओ ते
वस्तुमां ज रहे छे, अन्य वस्तुमां जरा पण जती नथी. चैतन्यना सम्यग्दर्शनादि
परिणाम थाय ते चैतन्यमां ज रहे छे, बहार जता नथी. ए ज रीते रागादि परिणाम
थाय ते पण पोतानामां ज रहे छे; ते कांई परमां जता नथी के परनुं कांई सुधारे–
बगाडे! पुद्गलकर्मवगेरेना परिणाम पुद्गलमां ज रहे छे, ते जीवमां जरा पण प्रवेशता
नथी; एटले ते जीवने शुं करे? कर्मो जीवनी बहार ज रहे छे, जीवना परिणाममां ते
कांई ज करतां नथी.
जीव नथी कर्मोमां कांई करतो, के कर्म नथी जीवमां कांई करतुं.
कर्मो जीवमां प्रवेशतां नथी, जीवना परिणाम कर्ममां प्रवेशता नथी.
जीवना बधाय परिणाम सदाय जीवना आश्रये ज थाय छे, केमके परिणाम
पोताना परिणामीना आश्रये ज थाय छे. अरे, परिणाम बीजा परिणामना आश्रये
पण नथी तो पछी परना आश्रये थाय ते वात तो क्यां रही? माटे भाई! द्रष्टि मुक
तारा द्रव्य उपर! तारा द्रव्य उपर द्रष्टि मुकतां तारो आत्मा पोते ज निर्मळ परिणामरूपे
परिणमी जशे.
वस्तु क्षणे क्षणे परिणम्या तो करे ज छे, परिणाम वगर एक क्षण पण जती
नथी. स्वद्रव्य उपर द्रष्टि करीने परिणमतो आत्मा सम्यग्दर्शनादि निर्मळ परिणामे
परिणमे छे. ने स्वद्रव्यने भूलीने पर उपर द्रष्टि करीने परिणमतो आत्मा अज्ञानभावे
परिणमे छे. ते

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: २४ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
सम्यग्दर्शनादि परिणामनो के अज्ञान परिणामनो ते जीव पोते ज कर्ता छे, बीजो कोई
कर्ता नथी. आवी स्पष्ट वस्तुस्थिति जगतमां सर्व द्रव्योमां प्रकाशे छे. छतां मोही जीवो
स्वभावथी चलित थईने आकुळता ने कलेश पामे छे.
आचार्यदेव समजावे छे के अरे मोही जीवो! व्यर्थ कलेश कां पामो! स्वद्रव्य ने
परद्रव्य अत्यंत भिन्न भिन्नपणे ज प्रकाशी रह्यां छे, कोईनो बीजामां जरा पण प्रवेश ज
नथी;–तो पछी परज्ञेयो साथे तमारे परमार्थे कांई ज संबंध नथी. माटे आवी
वस्तुस्थिति समजीने तमे तमारा स्वज्ञेयमां ज केम नथी रहेता! अन्यवस्तुओ सदाय
तमाराथी बहार ज रहे छे तो ते तमारामां शुं करी शके? अने आ चेतन अन्यवस्तुथी
बहार ज रहे छे तो अन्यवस्तुमां आ चेतन शुं करे?–आवी अत्यंत भिन्नता जाणीने
ज्ञायक स्वभावरूप स्वज्ञेयनो आश्रय करवो ए ज कर्तव्य छे.
स्व–परनी भिन्नता जाणीने हे जीव! तुं धीरो था, शांत था, ने तारा स्वद्रव्यने
साधवामां ज तत्पर था. स्वद्रव्यने साधवामां तत्पर जीव परथी अत्यंत भिन्नता
जाणतो थको, अनुकूळताना गंजमां ओगळतो नथी ने प्रतिकूळताना गंजथी घेरातो
नथी. अनुकूळताना गंज हो के प्रतिकूळताना पहाड हो, तेनाथी पोताने सर्वथा भिन्न
जाणतो थको, शुद्धज्ञानपणे ज पोते पोताने अनुभवे छे.
अहो, तारुं सर्वस्व तारामां
परमां तारुं कांई नहि;
परनुं सर्वस्व परमां
तारामां परनुं कांई नहि.
केटली शांति! पोते पोतामां रह्यो त्यां कलेश केवो? स्व–परनी अत्यंत
भिन्नताना भानमां मोहनो अभाव छे, मोह नथी त्यां कलेश पण नथी, परम
निराकूळता ने शांति छे.
(समयसार: कलश २११–२१२)

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : २प :
सोनगढनो प्रौढ–शिक्षणवर्ग
अने विविध समाचार
[आंखे देख्यो अहेवाल]
श्रावण भादरवो एटले जाणे धर्मनी खास मोसम; दर वर्षे सोनगढमां
श्रावणमास दरमियान प्रौढ शिक्षणवर्ग चाले; आ शिक्षणवर्गमां भाग लेवा माटे आ
वखते मुख्य–मुख्य शहेरोथी त्रणसो उपरांत जिज्ञासुभाईओ आव्या हता; तेमांना घणा
खरा शास्त्रना अभ्यासी तेमज पोताना गामना अग्रगण्य जेवा हता. शिक्षणवर्ग खूब
उत्साहपूर्वक चाल्यो. आ शिक्षणवर्ग दरमियान सोनगढमां चारेकोर धर्ममय अनेरुं
वातावरण प्रसरी जाय छे. वहेली सवारे जुओ के बपोरे, सांजे जुओ के मोडी रात्रे,
ठेकठेकाणे जिज्ञासुओनी टोळी भेगी थईने कंई ने कंई तत्त्वचर्चा करती ज होय.
सवारमां चार वागे त्यां तो प्रवचनमंडप तत्त्वचर्चाथी गूंजी ऊठे.....कोई सामायिक
करता होय, कोई स्वाध्याय करता होय, कोई चर्चा करता होय. पांच वागे त्यां सेंकडो
जिज्ञासुओ जिनमंदिरमां दर्शन करता होय; साडा पांचना टकोरे गुरुदेवना दर्शन करीने,
सेंकडो जिज्ञासुओ फरवा जाय ने साथे साथे एक कलाक विविध चर्चामां वीते.
भिन्नभिन्न गामोना साधर्मीओना स्नेहभर्या मिलनना अनेरा द्रश्यो नजरे पडे.
बीजी तरफ छना टकोरे जिनमंदिरमां मंगल अभिषेकना घंटनाद गाजता होय ने
सेंकडो भाई–बहेनो उमंगपूर्वक जिनेन्द्रपूजननी तैयारी करता होय; उपरना भागमां
नेमप्रभुसन्मुख तालबद्ध आलापसहित पूजन चालतुं होय; ते पूरुं थाय त्यां तो नीचे
सीमंधरनाथसन्मुख समूहपूजन शरू थाय. कोई समवसरणमां ने कोई मानस्तंभ पासे
पूजन करे. बराबर पोणा आठ वागे पूजन पूरुं थाय ने तरत ज प्रवचनमंडपमां सभा
खीचोखीच भराई गई होय.......आठमां आठ मिनिटनी वार होय त्यां श्री
जिनवाणीनी समूहस्तुति शरू थाय, ने बराबर आठ वाग्याना टकोरा पडतां ज
मंगलाचरणपूर्वक गुरुदेवनुं प्रवचन शरू थाय. बधाय श्रोताओ एकतान थईने सूणवा
लागे. भूतार्थस्वभाव शुं ने तेनो अनुभव केम थाय? तेनी धारा एक कलाक सुधी
अविरतपणे गुरुदेव वरसावे. हिंदीभाषीने एम लागे के अमारी भाषामां बोले छे ने
गुजरातीओने एम लागे के

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: २६ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
अमारी भाषामां बोले छे–एवा प्रकारनी मिश्रभाषामां सौ समजी जाय. नवना टकोरे
प्रवचन समाप्त थाय, तरत दाननी थोडीक जाहेरात थाय ने कोईवार भजन बोलाय, के
जातिस्मरणवाळी राजुलबेननो परिचय अपाय. धीरेधीरे सभा वीखराय. ने फरीने
जिनमंदिर दर्शकोथी ऊभराय; पुस्तकविभाग वगेरे ओफिसो पण आखो दिवस खूब
प्रवृत्तिशील रहे. पा कलाकमां सवानव वागे शिक्षणवर्गो चालु थाय; जुदी जुदी कक्षाना
चार वर्गो एक साथे साथे चाले, दरेक वर्गमां सो उपरांत प्रौढभाईओ उत्साहथी भाग
ल्ये. सवादशवागे शिक्षणवर्ग पूरो थाय; ने साडादश वागे भोजननी पंक्ति बेसे.
कोईने एम लागे के बपोरे तो सौ जमी करीने आराममां सूता हशे!–पण नहि;
तमे बार वागे प्रवचनमंडपमां चक्कर लगावो तो केटलाय भाईओ खूणेखांचरे
एकान्तमां सामायिक करता होय, केटलाय वांचता होय, केटलाय शिक्षणवर्गमां चालेला
अभ्यासनी नोटबुकमां नोंध करता होय, कोई परस्पर चर्चा करता होय, कोई सामान
ठीकठाक करता होय ने कोईक आराम करता होय. बे वागे त्यां फरीथी सभामंडप
भरावा लागे. सौना हाथमां शास्त्रजी होय; प्रवचन पहेलां अनेकविध कोलाहलथी
प्रवचनमंडप गूंजतो होय, पण ज्यां अढीनो एक टकोरो पडे त्यां एकदम शांति छवाई
जाय, ने अढीथी साडात्रण वाग्या सुधी एक कलाक जिनवाणीनी मेघवर्षा
वरसे......क््यारेक क््यारेक साथे साथे आकाशमांथी पण मेघवर्षा थती होय.
घणाय जिज्ञासुओ प्रवचन वखते नोटबुकमां नोंध कर्या करता होय. साडात्रण
वागे प्रवचन पूरुं थतां थोडीक दाननी जाहेरात सांभळीने झडपभेर सौ जिनमंदिरमां
आवे, जिनमंदिर भरचक भराई जाय, ओसरीओ पण उभराई जाय; ने सीमंधरनाथ
भगवाननी सन्मुख भक्तिनी धून जामे. पू. बेनश्रीबेनजी अद्भुत भक्तिरस रेलावे
तेमां सौ एकतान थई जाय. कोईवार भजनसागरजी भैया वगेरे नवा नवा भक्तो पण
भजन बोले ने सौ एकतान थईने डोले...साथे वाजा–तबलां वगेरे वाजिंत्रोथी
जिनमंदिर गाजी ऊठे. सवाचार वागे भक्ति पूरी थाय. दसेक मिनिटमां टपाल वगेरे
जोवानुं काम झडपथी ऊकेलीने ४०० विद्यार्थीओ पाछा शिक्षणवर्गमां (जग्या पहेलेथी
रीझर्व करी राखी होय–त्यां) भणवा बेसी जाय. एक साथे जुदा जुदा चार शिक्षणवर्ग
चाले; साडापांचे वर्ग छूटे, त्यां तो समितिनी भोजननी घंटडी वागे. छ वागतां तो
जमी करीने जिज्ञासुओना टोळां छूटाछवाया हरवाफरवा नीकळी पडे. गुरुदेव पासे
स्वाध्याय मंदिरनी ओसरी पण सेंकडो जिज्ञासुओथी भरचक भराई जाय...त्यां
अनेकविध अवनवी वातो चाले...तेमां अवारनवार विदेहक्षेत्र वगेरेनी अनेरी वातो
पण गुरुदेव थोडीथोडी संभळावे.

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: भादरवो : २४९२ : आत्मधर्म : २७ :
सांजनी आ सभामां सौ राह जोईने बेठा होय के हमणां गुरुदेव विदेहनी कांईक मधुरी
वात करशे! ने पछी ए वात सांभळतां सौ हर्षित थाय. एक कलाकमां तो अनेक
प्रकारनी वात नीकळे. गामेगामना जिज्ञासुओ पोताना गामनी चर्चा करे ने पोतानो
प्रमोद व्यक्त करे.
सात वागे ने सभा ऊठे.....गुरुदेव एक कलाक एकान्तमां बेसे; बीजी तरफ
जिनमंदिर प्रकाशथी झगमगी रह्युं होय ने आरति उतरती होय. घी वगरनी नवी
जातनी आरती घणा जोई रहे. पछी कोई भक्ति करे, कोई चर्चा करे, कोई सामायिक
करे, कोई चिन्तन करे. जिनमंदिरनी अगाशीमां के ओसरीमां ने स्वाध्याय मंदिरना
चोकमां झाड नीचे ज्यां ज्यां बेठको होय त्यां सर्वत्र मुमुक्षुओ बेठेला देखाय. आठ वागे
रात्रिचर्चा (प्रश्नोत्तरी)नी सभा भराय. आखुं स्वाध्याय मंदिर भाईओथी भराई
जाय.....ने दिवसभरमां प्रवचनमां तथा शिक्षणवर्गमां आवेला सूक्ष्म विषयोनुं
पुनरावर्तन थाय, अनेकविध प्रश्नोत्तर थाय; ने तेना अनुसंधानमां अनेकवार जुना–
पुराणा विविध संस्मरणो गुरुदेव संभळावे. एक कलाक तो झडपभेर चाल्यो जाय....ने
चर्चा पूरी थाय....चर्चामां शुं आव्युं तेनी चर्चा करता करता सौ विखराय. दिवसभरनो
जाहेर कार्यक्रम पूरो थाय, परंतु जिज्ञासुओ हजी जंपे नहि ठेरठेर मंडळीओ भेगी थईने
११ वाग्या सुधी तत्त्वचर्चा करता होय. कोई नोंध करतुं होय, कोई वांचतुं होय.
सवारना चारथी शरू थयेलुं जागृत वातावरण ११ वाग्या सुधी चालु रहे.
शिक्षणवर्ग दरमियान वच्चे श्रावण वद पांचमथी नोम सुधी जयपुरना दोढसो
जेटला मुमुक्षुओनुं शिष्टमंडळ गुरुदेवने पधारवानी विनति करवा माटे बे स्पेश्यल
बसद्वारा सोनगढ आवेला, (साथे मध्यभारतना प्रधान श्री मिश्रिलालजी जैन
गंगवाल पण आव्या हता.) आ जयपुरसंघ आवतां वातावरण और उत्साहभर्युं
बनी गयुं हतुं. ने शेठ श्री ‘पूरनचंदजी’ गोदीका (–जेओ पं. श्री टोडरमल्लजी होल’
वगेरेनुं जयपुरमां आयोजन करी रह्या छे–) तेओए जयपुरना मुमुक्षुओनी वती
गुरुदेवने तथा संघना सर्वे साधर्मी भाई–बहेनोने जयपुर पधारवानी भावभीनी
विनंति करी हती. जयपुरमां पं टोडरमल्लजी–स्मारकभवननुं उद्घाटन तथा चैत्यालयमां
जिनबिंबवेदीप्रतिष्ठानुं मुहूर्त फागण सुद बीज (सं. २००३) नुं छे; अने हालना कार्यक्रम
प्रमाणे पू. गुरुदेवे त्यां माह वद दशम ने रविवारे पहोंचवानी स्वीकृति आपी छे.
जयपुरमां दोढसो जेटला मुमुक्षुओ सोनगढना वातावरणथी बहुज प्रसन्न थया
हता.....ने चार दिवस सुधी तो सोनगढनुं वातावरण एक मोटा यात्राधाम जेवुं देखातुं
हतुं. श्रावण वद सातमे मुंबईना भाईश्री माणेकचंद कस्तुरचंद तलाटी (दाहोदवाळा)
तथा तेमना धर्मपत्नीए सजोडे ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा लीधी हती. तथा रात्रे लव–कुशवैराग्यनो

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: २८ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
संवाद जैनविद्यार्थीगृहे कर्यो हतो. श्रावण वद नोमे श्री जिनेन्द्रदेवनी भव्य रथयात्रा
नीकळी हती, जे घणी आनंदकारी हती.
श्रावणवद नोम–ए शिक्षणवर्गनो अंतिम दिवस हतो.....बस आजे कलास पूरो
थशे ने भेगा थयेला गामेगामना ३०० उपरांत साधर्मीओ पाछा विखुटा पडशे. एक
तरफथी जवानी तैयारी, ने बीजी तरफ शिक्षणवर्गमां आव्यानो सन्तोष सौना मुख पर
देखातो हतो; शिक्षणवर्ग दरमियान गुरुदेवनी छायामां वीस दिवस सुधी जे एकधारो
भरचक लाभ लीधो ते माटेनी उपकारनी लागणी सौ व्यक्त करता हता. सवारे केटलाय
भाईओए गदगदभावे लागणीओ व्यक्त करी, ने बपोरे सामुहिक स्तुति सहित
गुरुदेवनो आभार मानीने शिक्षणवर्ग समाप्त थयो.
आवेला भाईओने विदाय आपवा सोनगढना बधा घोडागाडीवाळा आजे
बहुज प्रवृत्तिशील हता.....स्टेशन पण आजे चीक्कार हतुं.....शिक्षणवर्ग पूरो थयो ने
दशलक्षणीपर्व नजीक आव्या...तेनुं उमंगभर्युं स्वागत करीने आत्माने आराधनामां
जोडवा सौ तत्पर बन्या....
जय जिनेन्द्र
श्रावण वद नोमे प्रौढ शिक्षणवर्ग पूरो थयो ते प्रसंगे गामेगामना जिज्ञासु
भाईओए पोतानो घणो हर्ष अने गुरुदेव प्रत्येनो भक्तिभाव व्यक्त कर्यो हतो.
ईंदोरनां श्री बंसीधरजी पंडीत (जेओ अत्यारना बधा दिगंबर जैनपंडितोमां अग्रगण्य
छे) तेओ छेल्ला त्रणेक मासथी सोनगढ रहीने दरेक कार्यक्रमोमां उत्साहथी भाग लई
रह्या छे, तेमणे पण शिक्षणवर्गनी पूर्णता प्रसंगे गद्गदभावथी पू. कानजीस्वामीनो
महिमा प्रसिद्ध करीने पोतानी लागणीओ व्यक्त करी हती.
आवती साल मागसर सुद अगीआरसे पालेजनगरीना जिनमंदिरने प्रथम
दसको पूरो थाय छे; आ प्रसंगे पू. गुरुदेवने पालेज पधारवानी विनती करवा पालेजना
भाईओ आव्या हता. ने हालना कार्यक्रमअनुसार अमदावाद–वडोदरा तथा मीयांगाम
थईने, पालेजनो (मागसर सुद ४ थी ११) आठ दिवसनो कार्यक्रम विचारवामां
आव्यो छे. बीजा पण अनेक गामो तरफथी विनति आवेल छे. कार्यक्रम नक्की थशे ते
अनुसार योग्य समये आत्मधर्ममां प्रसिद्ध थशे.

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : २९ :
“श्रावण वद बीज” ना प्रवचनमांथी प्रसादी”
(२८१) आत्मानुं सम्यग्दर्शन केम थाय तेनी आ वात छे. सम्यग्दर्शन माटे
जैनशासननो मूळसिद्धांत आचार्यदेवे आ ११मी गाथामां समजाव्यो छे.
शुद्धनयवडे भूतार्थस्वभावनो आश्रय करनार सम्यग्द्रष्टि छे.
(२८२) विकार अने आत्माने शुद्धनयवडे भिन्न करीने शुद्ध भूतार्थ आत्माने जे
अवलोके छे ते सम्यक्स्वरूपने देखे छे एटले ते सम्यग्द्रष्टि छे.
(२८३) शुद्ध परमस्वभावरूप जे अंततत्त्व छे ते ज सम्यग्द्रष्टिने उपादेय छे; ने तेना
आश्रये रत्नत्रयरूप धर्मनी लब्धि थाय छे.
(२८४) स्वसमयनी शरूआत चोथा गुणस्थानथी थई जाय छे. स्व–परनी भिन्नता
समजीने, पोताना स्वद्रव्यनी सन्मुख ज्ञानपरिणमन थयुं तेनुं नाम
‘स्वसमय’ छे. स्वना आश्रये जेटलुं सम्यक्–शुद्ध परिणमन थयुं तेटलुं
स्वसमयपणुं छे. जेटलो रागादि विकार छे तेटलो परसमय छे.
स्वसमयपणा वगर धर्मनी शरूआत थाय नहि. चोथा वगेरे गुणस्थाने
स्वसमयपणुं नथी एम कोई कहे तो तेनो अर्थ त्यां धर्म ज नथी–साधकपणुं
ज नथी, एवो थयो. पण ए वात साची नथी. चोथा गुणस्थाने स्वसमयपणुं
छे तेने जे नथी ओळखतो तेने धर्मना स्वरूपनी खबर नथी. सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्रनो अंश चोथा गुणस्थाने प्रगट्यो छे तेटलुं स्वसमयपणुं छे.
(२८६) चोथा गुणस्थाने स्वसन्मुखद्रष्टिवडे स्वसमयपणुं थतां आनंदनी उपलब्धि
थई छे. सिद्धप्रभु जेवा आनंदनो अनुभव चोथा गुणस्थानमां घरमां रहेला
सम्यग्द्रष्टिने पण वर्ते छे. अंतरमां आनंदथी भरेलो भूतार्थस्वभाव तेना
अवलंबने ते आनंद प्रगट्यो छे. आवा स्वभावनी द्रष्टि करवी ते अपूर्व छे.
(२८७) बीजना जन्म–दिवसनो उल्लेख करीने गुरुदेवे कह्युं के अरे! आजे तो एम
थयुं के अहीं सीमंधरपरमात्माना विरह पड्या. विदेहक्षेत्रमां साक्षात् सीमंधर–

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: ३० : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
परमात्मा पासे हता, पण आ भरतक्षेत्रमां अवतार थतां तेमना विरह पडी गया.–
‘रे, रे, सीमंधरनाथना विरहा पड्या आ भरतमां’
(२८८) अहीं कहे छे के भूतार्थस्वभावने द्रष्टिमां लईने ज्यां आत्मा परिणम्यो त्यां
अंर्तद्रष्टिमां एने भगवानना भेटा थया; अंतरना चैतन्यसरोवरमां ते हंस
आनंदरूपी मोतीना चारा चरवा लाग्यो. राजहंस साधारण चारो न चरे, ए
तो साचा मोतीना चारे चरे; तेम समकिती हंस विकारना चारा न चरे, ए
तो शुद्धनयवडे, रागने भिन्न करीने अतीन्द्रिय आनंदरूपी साचा मोतीना
चारा चरे छे.
(२८९) चैतन्यशक्तिमां रहेलो गुप्त चमत्कार ज्ञानीए अंतरना स्वानुभववडे प्रगट
कर्यो छे. जगतने चैतन्यना चमत्कारनी खबर नथी, चैतन्यनी महत्ता तेणे
जाणी नथी. चैतन्यनी महत्ता रागथी पार छे. चैतन्यशक्तिना भंडारमांथी
ज्ञान–आनंदना निधान खोल्या ज करो, पण ते भंडार कदी खूटे तेम नथी.
शुद्धनयवडे ज्ञानी पोतामां आवा भंडारने देखे छे.
(२९०) ज्ञानीना आत्मामां अमृत वरस्या छे. समयसारमां आत्मानो शुद्धस्वभाव
बतावीने आचार्य भगवाने आ पंचमकाळमां अमृत रेडया छे. अहो, आवो
शुद्धस्वभाव–जेमां रागनो अंश नहि, जेमां भेदनो विकल्प नहि, आवा एक
भूतार्थ शुद्ध आत्माने अंतरद्रष्टिवडे धर्मीए अनुभवमां लीधो छे; ने एनुं
जीवन सफळ छे. एने माटे श्री गुरु कहे छे के ‘अमृत वरस्या छे तारा आत्ममां.’
जैनबद्री–श्रवणबेलगोलमां गोमटेश्वर बाहुबली भगवाननो महा मस्तकाभिषेक
दक्षिणदेशमां आवेल विश्वप्रसिद्ध प७ फूट ऊंची भगवान बाहुबलीस्वामीनी
अत्यंत धीर गंभीर प्रतिभासम्पन्न ध्यानस्थमूर्ति जे विश्वने आत्मिक साधनानो
सन्देश आपी रही छे, ते प्रतिमानो महामस्तकाभिषेक लगभग दर १२ वर्षे थाय छे;
आ साल ते महाअभिषेक थवानो हतो पण परिस्थितिवश ते मुलतवी रह्यो; हवे
आवतीसाल ता. १–१–१९६७ ना रोज महामस्तकाभिषेक थवानो छे. ए
महामस्तकाभिषेक करवा माटेनी पूर्वे तैयारीओ चाली रही छे. आ प्रसंगे लाख जेटला
जैनो तेमज जैनतरो त्यां एकठा थाय छे ने महान अभिषेक नीहाळीने पावन थाय छे.
आ अभिषेक उत्सव माटेनी स्तंभप्रतिष्ठा ता. २प–८–६६ना रोज हती; नांदीमंगल ता.
१८–१२–६६ ना रोज छे; पंचकल्याणकविधान वगेरे कार्यक्रम पण हवे प्रकाशीत थशे.
पू. कानजीस्वामीए आ बाहुबली भगवाननी यात्रा संघसहित बे वखत करी छे.

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : ३१ :
आत्मभावनारूप भजन
आ भजननी सामूहिक धून बाळकोने आनंद पमाडशे ने
उत्तम संस्कारोनुं सींचन करशे. सोनगढनी सभामां आ धून
बाळकोए गाई हती त्यारे बाळकोनो उत्साह जोईने सौने प्रसन्नता
थई हती. बालविभागना बाळको माटे ते धून अहीं आपी
छे.......सौ होंसथी गाजो.
गुणनो भंडार छुं; आनंदनो सागर छुं,
सहजानंद स्वरूप छुं; चैतन्यनो पिंड छुं.
प्रकाशनो पूंज छुं; विज्ञाननो घन छुं.
चिदानंद स्वरूप छुं; नित्यानंदरूप छुं.
परमात्म प्रकाश छुं; शक्तिनो खजानो छुं.
वीतराग स्वरूप छुं; शुद्धस्वरूपी आत्मा छुं.
चिदानंद भगवान छुं; अखंड अविचळ मूर्ति छुं.
परथी नीराळो छुं; राग–द्वेष विनानो छुं.
अनंत–नाथ भगवान छुं; चैतन्यनो विलास छुं.
सिद्धनो नातीलो छुं; शान्तस्वरूपी जीव छुं.
प्रकाशनो प्रकाशक छुं; अनादि पुराणपुरुष छुं.
ज्ञान–दर्शनमय छुं; अजर अमरस्वरूप छुं.
कोईनो कर्ता–हर्ता नथी; मारो कोई कर्ता नथी.
शुद्ध सदा अरूपी छुं; अनादि चैतन्य मूर्ति छुं.
अनंतगुणनो दरियो छुं; सुखथी हुं भरियो छुं.
विश्वनो हुं ज्ञायक छुं; परथी उदास छुं.
पंच परमेष्ठीनो भक्त छुं; जिनेश्वरनो नंद छुं.
सिद्धपदनो साधक छुं; अर्हंतनो उपासक छुं.
रत्नत्रयनो खजानो छुं; गुरुचरणनो दास छुं.
जीवत्वथी जीवुं छुं; स्वानुभव–प्रकाशी छुं.

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: ३२ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
वांचको साथे वातचीत
[सर्वे जिज्ञासुओनो प्रिय विभाग]
प्र
:– स्वानुभवथी शुद्धात्मा क््यारे देखाय? (No. 11 अमदावाद)
:– जीव ज्यारे स्वमां उपयोग जोडे त्यारे तेने स्वानुभव थाय ने ते
स्वानुभवमां शुद्धात्मा देखाय. अहीं ‘देखाय’ एटले जेम आंखथी देखाय तेम नहि पण
ज्ञानमां जणाय अने अनुभवमां वेदनमां आवे. अनंत गुणना आनंदथी भरेला ए
आत्मवेदननुं वर्णन शब्दोमां के विकल्पमां न आवी शके. आत्मामां उपयोग जोडवा
माटे तेनी सर्वोत्कृष्ट प्रीति अने तेमां एकत्वबुद्धि थवी जोईए.
प्र
:– ईन्द्रना सुख करतां भगवाननुं सुख केटलागणुं वधारे? (No. 164 मुंबई)
:– ईन्द्रने पुण्योदय वडे स्वर्गना वैभवनुं जे सुख छे ते सुखनी सरखामणी
भगवानना अतीन्द्रिय सुखनी–साथे थई शके नहि, केमके बंनेनी जात ज जुदी छे.
वैभवनुं सुख ते खरेखर सुख ज नथी, एटले शून्य साथे जेम संख्यानी सरखामणी न
थई शके तेम ईन्द्रिसुख (अर्थात् साचा सुखनी शून्यता) वडे अतीन्द्रिय महान सुखनुं
माप काढी शकाय नहि. अतीन्द्रिय सुखनुं माप अतीन्द्रियसुख वडे ज काढी शकाय. हवे,
ईन्द्र सम्यग्द्रष्टि होय छे, ने ते ईन्द्रने सम्यग्दर्शनना प्रतापे जे आत्मसुख होय छे ते
अतीन्द्रिय छे, ने तेना करतां भगवाननुं आत्मसुख अनंतगणुं छे.
प्र
:– भारतमां क््यां राज्योमां वधारे तीर्थधामो छे? (No. 1111 जंत्राल)
:– आपना प्रश्ने मने जराक विचारमां मुकी दीधो. भारतना बधा तीर्थोनो,
अने ते क्या प्रांतमां आवेल छे तेनो संपूर्ण ख्याल आव्या वगर आ प्रश्ननो जवाब
आपी शकाय नहि. छतां तीर्थंकर भगवंतो साथे संबंध धरावता तीर्थो विशेषपणे
बिहार प्रान्तमां छे. केमके तीर्थंकरोनो विहार ए प्रदेशमां खूब थयो होवाथी ते प्रदेशनुं
नाम विहार पड्युं छे. बाकी मध्यप्रान्तमां पण घणा तीर्थो छे. दक्षिणदेशमां तीर्थो ओछा
छे परंतु त्यां जैनधर्मनो विपुल वैभव ठेरठेर भर्यो छे. उत्तर–

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : ३३ :
प्रदेशमां अयोध्या, काशी, मथुरा वगेरे महत्वना तीर्थो छे. सौराष्ट्र–गुजरातमां, तेमज
महाराष्ट्रमां पण अनेक तीर्थो छे. आपणो आखोय भारतदेश ज तीर्थसमान छे.
प्र
:– विदेहक्षेत्रमांथी जीवो मोक्ष जाय छे ने भरत क्षेत्रमांथी केम नथी जता?
(No. 117 दिल्ही)
:– भाई, भरतक्षेत्रमांथी पण घणाय जीवो मोक्षे गया छे. अत्यारे पण
विदेहक्षेत्रना मुनिवरो भरतक्षेत्रमांथी मोक्ष पामी शके छे. एटलुं खरूं के पंचम काळ बेठा
पछी आ भरतक्षेत्रमां चरमशरीरी जीवो अवतरता नथी; छतां पण भरतक्षेत्रना जे
जीवो धर्मनी आराधना करे छे तेओ धीमे धीमे मोक्ष तरफ जई ज रह्या छे.
* एक जिज्ञासु भाई लखे छे के–गामेगाम बाळको जाग्या छे, ने हवे गामे गाममां
जैन पाठशाळानी खास जरूर छे जेथी बाळको जैनधर्मनुं शिक्षण मेळवे. गामेगाम
जिनमंदिरनी साथे जैन–पाठशाळा पण चालु करवानी अत्यंत जरूर छे. जेथी बाळकोने
मूळथी ज धर्मना संस्कार पडे. आ वात उपर दरेक गामना आगेवानोए लक्ष आपवुं जरूरी
छे. बाळको तमारा गाममां पाठशाळा न होय तो तमे ज सौ भेगा थईने वडीलोने
वारंवार तेनी प्रेरणा करजो, ने विनंति करजो के अमने धार्मिक शिक्षण मळे तेवो
बंदोबस्त करी आपोजी!
* सोलापुर श्राविकाश्रमना अध्यक्षा ब्र. सुमतिबहेन जैन लखे छे के–आपका
आत्मधर्मका बालविभागका स्वाध्याय अच्छी तरहसे शुरु है। किताब बहुत ही उपयुक्त और
मार्गदर्शक है। इस किताबमें प्राचीन महापुरुषोंके चरित्र आना जरुरी है। स्वाध्यायके लिये
श्राविकामंडलकी तरफसे हररोज ४०–५० महिलायें आती है। द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र और
छहढालाका भी स्वाध्याय अच्छी तरह शुरु है। श्री पूज्य कानजीस्वामीको सविनय प्रणाम।।
(बिपीन जैन हिंमतनगर) जिनेन्द्रभगवानना दर्शननी प्रतिज्ञा संबंधी आपना
प्रश्नना उत्तर माटे “दर्शनकथा” पानुं ८१–वांचशो. वीतरागना साधकने तो वीतरागदेव ज
वंदनीय होय. बहारमां वीतरागदेवना दर्शननो योग न मळे तो त्यां अंदरमां भावथी तेमनुं
स्मरण करीने वन्दना करे, पण वीतरागदेव सिवाय बीजाने ते वन्दन करे नहि.
* शिक्षणवर्गमां आवेला एक जिज्ञासु भाई जेओ मुंबई प्रतिष्ठामहोत्सवमां ईन्द्र
थया हता, तेमणे गुरुदेव प्रत्ये प्रमोद व्यक्त करतां करतां हार्दिक उद्गारथी कह्युं के “आत्मधर्म
तो अमारो जीव छे” एना द्वारा मुंबईमां बेठाबेठा अमे गुरुदेवनी वाणीनो लाभ लईए छीए.
* राजकोटथी शोभनाबेन मोदी (नं. २प३) लखे छे–“जन्म दिवसनुं कार्ड मळ्‌युं तेथी
खुशी थई; सोनगढ आवीने गुरुदेवना दर्शन करवानुं मन छे. अहीं रोज घीयाना मंदिरे
दर्शन करवा जउं छुं. पण अहीं पाठशाळा चालती न होवाथी धर्मनो खास अभ्यास थई
शकतो नथी. जैनबाळपोथीनो अभ्यास क््यारेक करुं छुं”

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: ३४ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
बहेन, हवे आपणा जैन समाजना बाळको जाग्या छे ने धर्मनो अभ्यास करवामां रस
लई रह्यो छे, एटले थोडा वखतमां दरेक ठेकाणे जरूर पाठशाळाओ चालु थई जशे. तमारा गाममां
पण वेलीवेली पाठशाळा शरू थाय ने तमे सौ होंसथी धार्मिक अभ्यास करो एम भावना भावीए.
प्र :– एम सांभळ्‌युं छे के पाप थई जाय ते जीव नरकमां जाय–तो ते वात साची छे!
(नं. १४पप जेतपुर)
उ :– भाई, जीवनमां क््यारेक पाप थई जाय तेथी ते जीव नरकमां ज जाय एवो
नियम नथी. परंतु जीवनमां जो पापभावनी तीव्रता थई जाय, ने तेनाथी पाछो न वळे तो
ते जीव नरकमां जाय. बाकी तो पहेलां जेणे पाप कर्युं होय छतां पाछळथी धर्मनी आराधना
वडे पापने नष्ट करीने मोक्ष पामी गया होय एवाय घणा जीवो छे. जेनुं चित्त धर्मनी
आराधनामां जोडाय एने एवां पापभाव होय ज नहि के नरकमां जवुं पडे. धर्मीनेय
कोईवार भूमिका अनुसार पापना परिणामो थता होय छे परंतु तेवा वखते तेमने आयुष
बंधातुं नथी. शुभ परिणामनी भूमिकामां ज तेने आयु बंधाय छे, एटले धर्मीनी गति
बगडती नथी. (कोईने पूर्वे अज्ञानदशामां नरक आयु बंधाई गयुं होय तो तेना पण स्थिति
अने रस एकदम ओछा थई जाय छे.) भाई! सदाय धर्मनी आराधनामां तत्पर रहेनारने
आ जगतमां कोई डर नथी.
सभ्य नं. 246 ना चार प्रश्नो
प्र. (१) :– नव तत्त्वोने अभूतार्थ कह्या तेमां जीवतत्त्व पण आवी गयुं; एटले
जीवतत्त्वने पण अभूतार्थ कह्युं ए कई रीते?
उ :– ते जीवतत्त्व भेदरूप अथवा अशुद्धतारूप लेवुं, नवतत्त्वसंबंधी जे विकल्पो छे
तेना वडे शुद्धजीवतत्त्व वेदनमां आवतुं नथी. जीव संबंधी विकल्प छूटीने ज्यारे परिणति
साक्षात् अंतरमां एकाकार थाय छे त्यारे ते परिणतिमां शुद्धजीव भूतार्थपणे प्रकाशमान थाय छे.
प्र. (२) :– भेदज्ञान थयुं न होय पण तेनो प्रयत्न करता होय तो तेनां परिणाम
केवा होय? तेनी रहेणी–करणी केवी होय?
उत्तर :– अंतरमां निजस्वभावनो महिमा करीने वारंवार परिणाम ते तरफ झूकता
होय, जगत तरफनो रस घणो मोळो पडी गयो होय, धर्मात्मानो संग एने अतिशय प्रिय
लागे ने आत्मस्वरूपनी प्राप्तिनी वात सांभळतां तेनुं हृदय झणझणी ऊठे. स्वकार्य साधवा
माटे ते उल्लसित होय. एनी रहेणी–करणी आत्मसाधननी पोषाक होय; पोतानी साधनामां
बाधा थाय एवुं कांई ते न करे.
प्र. (३) :– भेदज्ञान माटेनो सीधो ने सरल उपाय शुं?
उ :– भेदज्ञानी संतनी समीपमां रहीने तेओ कहे तेम करवुं ते;
प्र. (४) सम्यग्दर्शन थया पहेलां कोई मनुष्ये मनुष्यआयु बांधी लीधुं होय ने पछी
सम्यग्दर्शन पामे, तो ते जीव मनुष्यमांथी

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : ३प :
मरीने सीधो मनुष्यमां ऊपजे?
उ :– हा; परंतु भोगभूमिना (असंख्य वर्षना आयुवाळा) मुनष्योमां ज
ऊपजे, कर्मभूमिमां न उपजे. (जे मनुष्य मरीने पाछो कर्मभूमिना मनुष्यमां उपजे ते
मिथ्याद्रष्टि ज होय.)
प्र :– बधा पोताना धर्मने ज साचो केममाने छे! सभ्य (नं. ७९)
उ :– जेओ सत्य धर्ममां रहीने पोताना धर्मने ज साचो माने छे तेमणे तो
सत्यधर्मनुं स्वरूप जाण्युं छे तेथी तेमां ते निःशंक छे.
अने जेओनो मानेलो धर्म सत्य न होवा छतां तेने साचो माने छे–तेनुं कारण
ए के तेमने साचा धर्मना स्वरूपनी खबर नथी.
साचा धर्मने साचो जाणवो, ने खोटा धर्मने खोटो ओळखावो–एमां कोई दोष नथी.
प्रश्न :– आत्माना जिज्ञासु मोक्षार्थीने कांई कार्य करवानुं रहे छे?
उत्तर :– हा, तेणे आत्माने साधवानुं खरुं महान कार्य करवानुं छे. अत्यार
सुधीनो काळ तो बाह्यकार्यनी चिन्तामां व्यर्थ खोयो, हवे आत्माने साधवानुं खरूं कार्य,
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप महान कार्य जिज्ञासु मुमुक्षुए करवानुं छे...ए ज एनुं खरुं
कार्य छे, ए ज सत्कार्य छे. (काम एक आत्मार्थनुं.... बीजो नहि मन रोग.)
प्रश्न :– जीव पोताना स्वरूपनो विचार करवा जाय छे त्यारे आत्मस्वरूपना
विचारने बदले मनमां बीजा विचार केम उत्पन्न थाय छे?
उत्तर :– उपयोग स्थिर थईने आत्मस्वरूपमां रहे तो बीजा विचार न आवे.
आत्मस्वरूपनी उग्र रुचि अने तीव्र चिन्तनना बळे पहेलीवार उपयोग ज्यारे स्वमां
झुके छे त्यारे त्यां बीजा विचारो होता नथी.....त्यां आनंदना अनुभव सहीत आत्मानुं
स्वसंवेदन थाय छे एटले सम्यग्दर्शन प्रगटे छे. सम्यग्दर्शन पछी पण जेटला प्रकारे
राग–द्वेषरूप अस्थिरता होय तेटला प्रकारे बीजा विचारो संभवे छे. तत्त्व–श्रद्धा साची
होय, आत्मानुं ज्ञान होय छतां तेमां उपयोगने एकाग्र करवा माटे ध्याननो विशिष्ट
प्रयत्न होय छे. त्यार पहेलां जिज्ञासुने निजस्वरूपना विचारमां–चिन्तनमां मन न
लागे ने बीजा विचारोमां ज रस रह्या करे तो ते पोतानी जिज्ञासुतानी खामी छे–एम
जाणीने बीजो बाह्यनो रस छोडीने आत्माना तीव्र रसपूर्वक तेमां चित्तने जोडवुं जोईए.
जेनो तीव्र रस होय तेमां चित्त जरूर जोडाय.
* मुंबईथी जयेश जैन जन्मदिवसे लखे छे के“बालविभागना सभ्य बन्या पछी
समजवानो रस जाग्यो छे. मारी बा मने रोज रात्रे धार्मिक वातो अने सिद्धान्तो समजावे छे.
सद्गुरुदेवना चरणोमां रहीने आत्माने समजवा माटे अखंड जागृती राखी शुद्ध आत्माने
समजुं एवी भावना छे.”

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: ३६ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
* रायपुरथी नं. १३१७ बकुलेश जैन लखे छे–“जन्मदिवसना उपलक्षमां अभिनंदनकार्ड
तथा फोटो मळ्‌या. अत्यार सुधीमां आ पहेलो ज जन्मदिवस छे के जे धर्मनी शरूआत करीने आव्यो
छे. साचे ज धर्म एक महान शक्ति छे. आत्मा एकलो ज छे, एकलो ज रहेशे ने एकलो ज मोक्षमां
जशे. आवी भावनापूर्वक एकत्वनी कविता स्फूरी ते पण बकुलभाईए लखी छे, जे अहीं आपी छे :–
एकलो जा....एकलो जा.....एकलो जा....ने रेेे....
पर तत्त्व नथी संग तारी, एकलो जा....ने रे....
शुद्ध तत्त्वभाव पामीने तुं ज्ञानी बनी जा....ने रे....
ज्ञान चारित्रने अपनावीने तुं एकलो जा....ने रे....
निज स्वरूपनो आश्रय करीने मोक्षमार्गे चाल्यो जा....ने रे....
कहान जेवा गुरु बताववा आव्या तने मोक्षमार्ग ज्यारे....
राग विकल्प के विचार शानो, पेले पार जतो रहे...ने....
एकलो जा...अंतरमां मोक्षमार्गे चाल्यो जाने...रे....
* वींछीयाथी लाभुबेन (नं ७१९) लखे छे के जन्मदिवसे पू. गुरुदेवने भारतना
भूतपूर्व वडाप्रधान अभिनंदग्रंथ अर्पण करी रह्या छे ते फोटो मळतां आनंद थयो ने त्यारथी
अभिनंदनग्रंथ वांचवानुं शरू कर्युं; तथा रक्षाबंधनना रूा. पांच आवेला ते जन्मदिवसनी खुशालीमां
बालविभागने भेट मोकलुं छुं.
प्रश्न :– जीवमां अनंत गुणो छे, तेमांथी कयाक््या गुणोनी पर्याय अशुद्ध थई छे के
जेने कारणे जीव संसारभ्रमण करे छे? ने हवे ते गुणोनी पर्याय शुद्ध करवाथी शिवपुरीने
पामे? (नं. १२६१ सुरेन्द्रनगर)
उत्तर :– जीवमां अनंतगुणो छे ते बधायनुं वर्णन शब्दोमां आवी न शके; पण
मोक्षमार्ग साधवा माटे प्रयोजनरूप गुणोनुं वर्णन आचार्य भगवंतोए कर्युं छे. तेमां खास
करीने श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रनी ऊंधी पर्याय एटले के मिथ्याश्रद्धा, मिथ्याज्ञान ने मिथ्याचारित्र
ते संसारनुं कारण छे; ने ते गुणोनी शुद्धपर्याय एटले के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते मोक्षनुं
कारण छे, तेना वडे जीव शिवपुरीने पामे छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी पर्याय शुद्ध थतां
साथेना बीजा गुणोमां पण शुद्धता थाय छे. जेम के सुखगुणनी पर्यायमां दुःख टळीने
अतीन्द्रियसुख प्रगटे छे.
प्र :– अवधि अने मन: पर्ययज्ञानवाळा जीवो कर्मने जोई शके? (नं. २०६ गोंडल)
उ :– हा, ते प्रकारनुं विशेष निर्मळ ज्ञान होय तो जोई शके.
उपरोक्त प्रश्नकार भाई लखे छे– ‘गया महिने मारा बे प्रश्नोनो जवाब न
आववाथी हुं बहु हताश थयो छुं.’
भैया! जवाब जरा विलंबथी आवे तेमां हताश थवानुं शुं होय! तमे कूल ४ प्रश्नो
पूछया; हवे आपणा १प०० सभ्यो दरेक तमारी जेम चार प्रश्नो पूछे तो केटला प्रश्नो थाय?
छ हजार! ने दर महिने एकसो प्रश्नोना जवाब आपीए तोय केटलो टाईम थाय! पांच वर्ष! –एने
बदले तमारा प्रश्नना जवाब तो बे महिनामां ज आवी गया. भाई, तमे बालविभागना सभ्यो

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : ३७ :
तो हजी नाना छो, हजी तो मोटा थईने जीवनमां अनेक उत्तम कार्यो करवानां छे. तेमां
अत्यारथी आवी नजीवी बाबतमां हताशा केम पालवे? हताशाने जीवनमांथी खंखेरी
नांखजो ने उल्लासथी जीवनने भरी देजो. जीवनमां गमे तेवा प्रसंगो आवे तो पण
हताशाने प्रवेशवा देशो नहि....धैर्य अने आत्मबळथी आगळ ने आगळ वधजो.
अमदावादथी (सभ्य नं. ४४प) प्रवीणचंद्र जैन लखे छे. जन्मदिवसे अभिनंदन कार्ड
तथा गुरुदेवनो फोटो मळतां घणो ज हर्ष थयो; साथे एम पण थयुं के अरे, आयुष्यमांथी
एक वर्ष ओछुं थयुं ने आत्मानुं तो कांई कर्युं नथी. आ दिवसथी आत्महित करवानी घणी
भावना थई छे.
प्र
:– अगियार अंग ने नव पूर्व एटले शुं? (नं. ४प१)
:– तीर्थंकरभगवाने जे उपदेश आप्यो ते झीलीने गणधरदेवे जे शास्त्र रच्यां तेने
बारअंग कहेवाय छे; तेनां नाम–
(१) आचार–अंग
(२) सूत्रकृत–अंग
(३) स्थान–अंग (४) समवाय–अंग
(प) व्याख्याप्रज्ञप्ति (६) ज्ञातृधर्मकथा
(७) उपासकअध्ययन (८) अंतकृतदशांग
(९) अनुत्तरोपपादक (१०) प्रश्नव्याकरण
(११) विपाकसूत्रो
(१२) द्रष्टिवादअंग
आमांथी द्रष्टिवाद नामनुं जे बारमुं अंग छे तेना पेटामां १४ पूर्व समाय छे. ए १४
पूर्वमांथी अज्ञानीने वधुमां वधु ९ पूर्वनुं ज्ञान थई शके छे. १४ पूर्वनुं पूरुं ज्ञान सम्यग्द्रष्टिने
ज थाय. आ रीते ११ अंग ने नव पूर्व ए अज्ञानीना उघाडनी उत्कृष्ट मर्यादा छे.
प्र
:– ऋद्धिधारी एटले शुं? (नं. ४प१)
:– आत्मस्वरूपना आराधक जीवोने पवित्रतानी तेमज पुण्यनी अनेक प्रकारनी
ऋद्धि प्रगटे छे. ६४ प्रकारनी ऋद्धि छे, तेमां सौथी श्रेष्ठ ऋद्धि केवळज्ञान छे. कुंदकुंदाचार्यदेवने
आकाशमां गमननी ऋद्धि हती. जेमने आवी ऋद्धि प्रगटी होय तेमने ऋद्धिधारीमुनिवर
कहेवाय. शास्त्रोमां तेनुं घणुं सुंदर वर्णन आवे छे. कोईवार आपणे आत्मधर्ममां ते आपीशुं.