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जीवने आचार्यदेव शांतिनो उपाय बतावे छे. आत्मा शरीरथी जुदो होवा छतां, शरीरने
ज पोतानुं माने छे ते भ्रांति छे, ने ते भ्रांतिने लीधे ज अनादिकाळथी अशरणपणे
भव–अटवीमां परिभ्रमण करी रह्यो छे. लक्ष्मीना ढगला के स्त्री–आदि कुटुंबीजन ते
कोई जीवने क्षणमात्र पण शरणभूत नथी पण मूढ जीव तेने शरणरूप माने छे ने तेमां
सुख माने छे. जुओ, मरणनां छेल्ला टाणां आवे, अंदर मुंझवणथी दुःखी थतो होय,
बहार लक्ष्मीना ढगला पड्या होय ने स्त्री–पुत्र वगेरे टगटग जोता ऊभा होय, त्यां
एम प्रार्थना करे के हे लक्ष्मीना ढगलाओ! हे स्त्रीओ! तमे मने शरण आपो.–तो शुं ते
कोई जीवने शरणुं आपशे? शुं ते दुःख मटाडी देशे?–नहि; केमके आ शरीर पण जीवने
शरणरूप नथी तो पछी तद्न जुदा एवा बीजा संयोगोमां शरण केवुं? भाई! तने
शरणरूप तो तारो आत्मा छे. अशरीरी–अरूपी–चैतन्यमूर्ति आत्मा ज तारुं स्व छे, ते
ज तारी खरी लक्ष्मी छे, एना सिवाय जगतमां कोई बीजुं तने शरणरूप नथी. अज्ञानी
भ्रमथी मंदकषायने शांति मानी ल्ये छे, पण तेमां कांई साची शांति के आनंद नथी. हुं
जेटलो मारा स्वरूपमां अंतर्मुख रहुं तेटली मने शांति छे, ने बहारमां
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बहारमां पोतानो निवास माने छे; पण जेणे आत्मस्वरूपनो अनुभव कर्यो छे एवा
आत्मदर्शी अंतरात्मा तो परथी भिन्न रागादिरहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माने ज
पोतानुं निश्चल निवासस्थान माने छे, ने बाह्य संसर्ग छोडीने ते अंतरस्वरूपमां वास
करे छे–तेमां एकाग्र थईने रहे छे. अज्ञानीनी बाह्यद्रष्टि छे एटले ज्यां लोकसंसर्ग
छोडवानुं कथन आवे त्यां तेनी द्रष्टि जंगल उपर जाय छे; केम जाणे जंगलमां एनी
शांति होय! भाई, जंगलमां पण तारी शांति नथी, शांति तो आत्मामां छे, माटे
आत्मामां ऊंडो ऊतर तो तने शांति थाय. बहारनी जंगलनी गूफामां तो सिंह–वाघ ने
सर्पो पण रहे छे; माटे तुं अंतरना चैतन्यनी गिरिगूफामां जईने ध्यान कर–तो तने
आनंदनो अनुभव थाय. अहो! मुनिवरो चैतन्यगूफामां ऊंडा उतरीने ध्यान करता होय
त्यारे एवा आनंदमां लीन होय छे के जाणे सिद्धभगवान! आवा अंतरना स्वरूपने
भूलीने अज्ञानीनी द्रष्टि बाह्य जंगलमां जाय छे. लोकसंसर्ग छोडवानी वात आवे त्यां
ज्ञानीनुं वलण अंतरस्वरूपमां जाय छेेे.......के हुं तो जगतथी जुदो ज छुं ने जगत
माराथी जुदुं ज छे; मारा स्वरूपमां जगतनो प्रवेश नहि, ने जगतमां मारो वास नहि;
मारुं चिदानंदस्वरूप ते ज मारुं निवासस्थान छे, ए सिवाय बहारनुं जंगल के महेल ते
कांई मारुं निवासस्थान नथी. अज्ञानीए जंगलमां शांति मानीने, जंगल प्रत्ये प्रेम
कर्यो, पण आत्मातरफ वलण न कर्युं,–तेथी जंगलमां पण तेने शांति नहि मळे.
लौकिक मंदकषायमां ज धर्म मानीने रोकाई जशे ने चैतन्यतत्त्व शुं छे ते समजवानी
दरकार नहि करे तो तेनो अवतार पण निष्फळ चाल्यो जशे, तेने आत्मानी शांति नहि
थाय. माटे आचार्यभगवान कहे छे के अरे जीवो! आवो दुर्लभ मानवअवतार मळ्यो
तो आत्मानुं हित शुं छे तेनो उपाय करो. आ देह अने लक्ष्मीना संयोगो तो आत्माथी
जुदा ज छे, ते बधा अहीं पड्या रहेशे ने आत्मा बीजे चाल्यो जशे. माटे ते शरीरादिथी
भिन्न चैतन्यतत्त्व शुं छे तेने लक्षमां ल्यो....ने तेमां निवास करो. आ शरीर तो
क्षणभंगुर छे, ते आत्मानुं निवासस्थान नथी. ज्ञान–आनंदरूप स्वभाव ज आत्मानुं
निवासस्थान छे. अरे, राग पण आत्मानुं खरूं निवासधाम नथी, अनंतगुणरूप वस्तु
ते ज आत्मानुं खरूं निवासधाम छे.
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जंगलमां रहुं तो शांति थाय’–एवी मान्यतावाळो पण बहिरात्मा छे. जेम लोको बाह्य
छे तेम जंगल पण बाह्य छे. लोकसंसर्गनो प्रेम छोडीने जंगलनो प्रेम कर्यो तो ते पण
बाह्यद्रष्टि ज छे. ज्ञानी तो लोकसंसर्ग छोडीने अंतरना चैतन्यतत्त्वमां निवास करे छे.
जंगलथी मने शांति छे–एवी बुद्धि नथी, जंगल पण पर छे, अमारो वास तो अमारा
शुद्धस्वरूपमां ज छे, अंतरस्वरूपमां एकाग्र थया त्यां जाणे सिद्धभगवाननी साथे बेठा!
समस्त पदार्थोथी विभक्त एवो जे पोतानो आत्मा तेमां ज मुनिओ वसे छे.
जंगलमांथी आहारादि माटे गाममां आवे, ने लोकोनां टोळां नजरे पडे त्यां मुनिने कांई
संदेह नथी थई जतो के हुं स्वरूपमांथी खसीने लोकसंसर्गमां आवी गयो. चारेकोर
भक्तोनां टोळां होय छतां मुनि जाणे छे के मारो आत्मा लोकसंसर्गथी पर छे, मारा
चैतन्यस्वरूपमां ज मारो निवास छे. बहारमां भक्तोनां टोळां वच्चे बेठा छे माटे तेने
बाह्यद्रष्टि छे–एम नथी; तेम ज बहारमां लोकोनो संग छोडीने जंगलमां जईने गूफामां
सर्वलोकथी जुदो ज छे, ज्ञानानंदस्वरूप मारो आत्मा ज मारुं निवासधाम छे,–आवी
अंतरद्रष्टिपूर्वक ज्ञानी तेमां ज एकाग्र थाय छे: ने चैतन्यना आनंदमां एकाग्र थतां
बाह्य संसर्ग प्रत्ये राग–द्वेष थता नथी तेथी तेमणे बाह्य संसर्ग छोडयो–एम कहेवामां
आवे छे.
भगवानना दर्शन करवा माटे पगे
भगवाननां दर्शन थशे?
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राजनो स्वभाव राजा जेवो उदार.
ने धर्मना प्रेमनो तो पार नहि.
धंधो करतां पण धर्मने भूले नहि.
एक वार ते दुकाने बेठा हता.
आव्यो ने साथे कंईक लाव्यो.
आवीने ते झवेरीने आप्युं,
ने कह्युं–ल्यो आ पोथी!ु
राज–झवेरीए तो पोथी लीधी ने खोली.
वांच्युं ने आनंदनो पार न रह्यो.
अहो! आ तो ‘समयप्राभृत!’
अहो! आ तो शुद्धात्मानुं शास्त्र!
अहो, आ तो कुंदकुंदस्वामीनी अनुभववाणी!
अहो, आ तो तीर्थंकरदेवनो सन्देश!
वाह, धन्य भाग्य!
रूपिया आव्या ने खोबो भर्यो.
खोबो भरीने रूपिया ते माणसने भेट आप्या.
अने कह्युं–आ पानामां तो हीरा भर्या छे!
एनी किंमत लाखो रूपियाथी आंकी शकाय
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सम्यग्दर्शन तारा द्रव्यना आश्रये छे, कोई बीजाना आश्रये नथी, तारुं केवळज्ञान तारा
द्रव्यना आश्रये छे, कोई बीजाना आश्रये नथी. अने रागद्वेषादि परिणाम पण तारा
परिणाम थाय ते चैतन्यमां ज रहे छे, बहार जता नथी. ए ज रीते रागादि परिणाम
थाय ते पण पोतानामां ज रहे छे; ते कांई परमां जता नथी के परनुं कांई सुधारे–
बगाडे! पुद्गलकर्मवगेरेना परिणाम पुद्गलमां ज रहे छे, ते जीवमां जरा पण प्रवेशता
कांई ज करतां नथी.
कर्मो जीवमां प्रवेशतां नथी, जीवना परिणाम कर्ममां प्रवेशता नथी.
पण नथी तो पछी परना आश्रये थाय ते वात तो क्यां रही? माटे भाई! द्रष्टि मुक
तारा द्रव्य उपर! तारा द्रव्य उपर द्रष्टि मुकतां तारो आत्मा पोते ज निर्मळ परिणामरूपे
परिणमी जशे.
परिणमे छे. ने स्वद्रव्यने भूलीने पर उपर द्रष्टि करीने परिणमतो आत्मा अज्ञानभावे
परिणमे छे. ते
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कर्ता नथी. आवी स्पष्ट वस्तुस्थिति जगतमां सर्व द्रव्योमां प्रकाशे छे. छतां मोही जीवो
स्वभावथी चलित थईने आकुळता ने कलेश पामे छे.
नथी;–तो पछी परज्ञेयो साथे तमारे परमार्थे कांई ज संबंध नथी. माटे आवी
वस्तुस्थिति समजीने तमे तमारा स्वज्ञेयमां ज केम नथी रहेता! अन्यवस्तुओ सदाय
तमाराथी बहार ज रहे छे तो ते तमारामां शुं करी शके? अने आ चेतन अन्यवस्तुथी
बहार ज रहे छे तो अन्यवस्तुमां आ चेतन शुं करे?–आवी अत्यंत भिन्नता जाणीने
ज्ञायक स्वभावरूप स्वज्ञेयनो आश्रय करवो ए ज कर्तव्य छे.
जाणतो थको, अनुकूळताना गंजमां ओगळतो नथी ने प्रतिकूळताना गंजथी घेरातो
जाणतो थको, शुद्धज्ञानपणे ज पोते पोताने अनुभवे छे.
निराकूळता ने शांति छे.
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वखते मुख्य–मुख्य शहेरोथी त्रणसो उपरांत जिज्ञासुभाईओ आव्या हता; तेमांना घणा
खरा शास्त्रना अभ्यासी तेमज पोताना गामना अग्रगण्य जेवा हता. शिक्षणवर्ग खूब
उत्साहपूर्वक चाल्यो. आ शिक्षणवर्ग दरमियान सोनगढमां चारेकोर धर्ममय अनेरुं
वातावरण प्रसरी जाय छे. वहेली सवारे जुओ के बपोरे, सांजे जुओ के मोडी रात्रे,
ठेकठेकाणे जिज्ञासुओनी टोळी भेगी थईने कंई ने कंई तत्त्वचर्चा करती ज होय.
सवारमां चार वागे त्यां तो प्रवचनमंडप तत्त्वचर्चाथी गूंजी ऊठे.....कोई सामायिक
करता होय, कोई स्वाध्याय करता होय, कोई चर्चा करता होय. पांच वागे त्यां सेंकडो
जिज्ञासुओ जिनमंदिरमां दर्शन करता होय; साडा पांचना टकोरे गुरुदेवना दर्शन करीने,
सेंकडो जिज्ञासुओ फरवा जाय ने साथे साथे एक कलाक विविध चर्चामां वीते.
भिन्नभिन्न गामोना साधर्मीओना स्नेहभर्या मिलनना अनेरा द्रश्यो नजरे पडे.
नेमप्रभुसन्मुख तालबद्ध आलापसहित पूजन चालतुं होय; ते पूरुं थाय त्यां तो नीचे
सीमंधरनाथसन्मुख समूहपूजन शरू थाय. कोई समवसरणमां ने कोई मानस्तंभ पासे
पूजन करे. बराबर पोणा आठ वागे पूजन पूरुं थाय ने तरत ज प्रवचनमंडपमां सभा
खीचोखीच भराई गई होय.......आठमां आठ मिनिटनी वार होय त्यां श्री
जिनवाणीनी समूहस्तुति शरू थाय, ने बराबर आठ वाग्याना टकोरा पडतां ज
मंगलाचरणपूर्वक गुरुदेवनुं प्रवचन शरू थाय. बधाय श्रोताओ एकतान थईने सूणवा
लागे. भूतार्थस्वभाव शुं ने तेनो अनुभव केम थाय? तेनी धारा एक कलाक सुधी
अविरतपणे गुरुदेव वरसावे. हिंदीभाषीने एम लागे के अमारी भाषामां बोले छे ने
गुजरातीओने एम लागे के
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प्रवचन समाप्त थाय, तरत दाननी थोडीक जाहेरात थाय ने कोईवार भजन बोलाय, के
जातिस्मरणवाळी राजुलबेननो परिचय अपाय. धीरेधीरे सभा वीखराय. ने फरीने
जिनमंदिर दर्शकोथी ऊभराय; पुस्तकविभाग वगेरे ओफिसो पण आखो दिवस खूब
चार वर्गो एक साथे साथे चाले, दरेक वर्गमां सो उपरांत प्रौढभाईओ उत्साहथी भाग
ल्ये. सवादशवागे शिक्षणवर्ग पूरो थाय; ने साडादश वागे भोजननी पंक्ति बेसे.
एकान्तमां सामायिक करता होय, केटलाय वांचता होय, केटलाय शिक्षणवर्गमां चालेला
ठीकठाक करता होय ने कोईक आराम करता होय. बे वागे त्यां फरीथी सभामंडप
भरावा लागे. सौना हाथमां शास्त्रजी होय; प्रवचन पहेलां अनेकविध कोलाहलथी
प्रवचनमंडप गूंजतो होय, पण ज्यां अढीनो एक टकोरो पडे त्यां एकदम शांति छवाई
जाय, ने अढीथी साडात्रण वाग्या सुधी एक कलाक जिनवाणीनी मेघवर्षा
वरसे......क््यारेक क््यारेक साथे साथे आकाशमांथी पण मेघवर्षा थती होय.
आवे, जिनमंदिर भरचक भराई जाय, ओसरीओ पण उभराई जाय; ने सीमंधरनाथ
भगवाननी सन्मुख भक्तिनी धून जामे. पू. बेनश्रीबेनजी अद्भुत भक्तिरस रेलावे
तेमां सौ एकतान थई जाय. कोईवार भजनसागरजी भैया वगेरे नवा नवा भक्तो पण
भजन बोले ने सौ एकतान थईने डोले...साथे वाजा–तबलां वगेरे वाजिंत्रोथी
जिनमंदिर गाजी ऊठे. सवाचार वागे भक्ति पूरी थाय. दसेक मिनिटमां टपाल वगेरे
जोवानुं काम झडपथी ऊकेलीने ४०० विद्यार्थीओ पाछा शिक्षणवर्गमां (जग्या पहेलेथी
रीझर्व करी राखी होय–त्यां) भणवा बेसी जाय. एक साथे जुदा जुदा चार शिक्षणवर्ग
जमी करीने जिज्ञासुओना टोळां छूटाछवाया हरवाफरवा नीकळी पडे. गुरुदेव पासे
स्वाध्याय मंदिरनी ओसरी पण सेंकडो जिज्ञासुओथी भरचक भराई जाय...त्यां
अनेकविध अवनवी वातो चाले...तेमां अवारनवार विदेहक्षेत्र वगेरेनी अनेरी वातो
पण गुरुदेव थोडीथोडी संभळावे.
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
नीकळी हती, जे घणी आनंदकारी हती.
देखातो हतो; शिक्षणवर्ग दरमियान गुरुदेवनी छायामां वीस दिवस सुधी जे एकधारो
भरचक लाभ लीधो ते माटेनी उपकारनी लागणी सौ व्यक्त करता हता. सवारे केटलाय
भाईओए गदगदभावे लागणीओ व्यक्त करी, ने बपोरे सामुहिक स्तुति सहित
गुरुदेवनो आभार मानीने शिक्षणवर्ग समाप्त थयो.
दशलक्षणीपर्व नजीक आव्या...तेनुं उमंगभर्युं स्वागत करीने आत्माने आराधनामां
जोडवा सौ तत्पर बन्या....
ईंदोरनां श्री बंसीधरजी पंडीत (जेओ अत्यारना बधा दिगंबर जैनपंडितोमां अग्रगण्य
छे) तेओ छेल्ला त्रणेक मासथी सोनगढ रहीने दरेक कार्यक्रमोमां उत्साहथी भाग लई
रह्या छे, तेमणे पण शिक्षणवर्गनी पूर्णता प्रसंगे गद्गदभावथी पू. कानजीस्वामीनो
महिमा प्रसिद्ध करीने पोतानी लागणीओ व्यक्त करी हती.
थईने, पालेजनो (मागसर सुद ४ थी ११) आठ दिवसनो कार्यक्रम विचारवामां
आव्यो छे. बीजा पण अनेक गामो तरफथी विनति आवेल छे. कार्यक्रम नक्की थशे ते
अनुसार योग्य समये आत्मधर्ममां प्रसिद्ध थशे.
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शुद्धनयवडे भूतार्थस्वभावनो आश्रय करनार सम्यग्द्रष्टि छे.
‘स्वसमय’ छे. स्वना आश्रये जेटलुं सम्यक्–शुद्ध परिणमन थयुं तेटलुं
स्वसमयपणुं छे. जेटलो रागादि विकार छे तेटलो परसमय छे.
ज नथी, एवो थयो. पण ए वात साची नथी. चोथा गुणस्थाने स्वसमयपणुं
छे तेने जे नथी ओळखतो तेने धर्मना स्वरूपनी खबर नथी. सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्रनो अंश चोथा गुणस्थाने प्रगट्यो छे तेटलुं स्वसमयपणुं छे.
सम्यग्द्रष्टिने पण वर्ते छे. अंतरमां आनंदथी भरेलो भूतार्थस्वभाव तेना
अवलंबने ते आनंद प्रगट्यो छे. आवा स्वभावनी द्रष्टि करवी ते अपूर्व छे.
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आनंदरूपी मोतीना चारा चरवा लाग्यो. राजहंस साधारण चारो न चरे, ए
तो साचा मोतीना चारे चरे; तेम समकिती हंस विकारना चारा न चरे, ए
तो शुद्धनयवडे, रागने भिन्न करीने अतीन्द्रिय आनंदरूपी साचा मोतीना
चारा चरे छे.
जाणी नथी. चैतन्यनी महत्ता रागथी पार छे. चैतन्यशक्तिना भंडारमांथी
ज्ञान–आनंदना निधान खोल्या ज करो, पण ते भंडार कदी खूटे तेम नथी.
शुद्धनयवडे ज्ञानी पोतामां आवा भंडारने देखे छे.
शुद्धस्वभाव–जेमां रागनो अंश नहि, जेमां भेदनो विकल्प नहि, आवा एक
भूतार्थ शुद्ध आत्माने अंतरद्रष्टिवडे धर्मीए अनुभवमां लीधो छे; ने एनुं
जीवन सफळ छे. एने माटे श्री गुरु कहे छे के ‘अमृत वरस्या छे तारा आत्ममां.’
सन्देश आपी रही छे, ते प्रतिमानो महामस्तकाभिषेक लगभग दर १२ वर्षे थाय छे;
आवतीसाल ता. १–१–१९६७ ना रोज महामस्तकाभिषेक थवानो छे. ए
महामस्तकाभिषेक करवा माटेनी पूर्वे तैयारीओ चाली रही छे. आ प्रसंगे लाख जेटला
आ अभिषेक उत्सव माटेनी स्तंभप्रतिष्ठा ता. २प–८–६६ना रोज हती; नांदीमंगल ता.
पू. कानजीस्वामीए आ बाहुबली भगवाननी यात्रा संघसहित बे वखत करी छे.
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
बाळकोए गाई हती त्यारे बाळकोनो उत्साह जोईने सौने प्रसन्नता
थई हती. बालविभागना बाळको माटे ते धून अहीं आपी
छे.......सौ होंसथी गाजो.
सहजानंद स्वरूप छुं; चैतन्यनो पिंड छुं.
चिदानंद स्वरूप छुं; नित्यानंदरूप छुं.
परमात्म प्रकाश छुं; शक्तिनो खजानो छुं.
वीतराग स्वरूप छुं; शुद्धस्वरूपी आत्मा छुं.
चिदानंद भगवान छुं; अखंड अविचळ मूर्ति छुं.
परथी नीराळो छुं; राग–द्वेष विनानो छुं.
अनंत–नाथ भगवान छुं; चैतन्यनो विलास छुं.
सिद्धनो नातीलो छुं; शान्तस्वरूपी जीव छुं.
ज्ञान–दर्शनमय छुं; अजर अमरस्वरूप छुं.
कोईनो कर्ता–हर्ता नथी; मारो कोई कर्ता नथी.
शुद्ध सदा अरूपी छुं; अनादि चैतन्य मूर्ति छुं.
अनंतगुणनो दरियो छुं; सुखथी हुं भरियो छुं.
विश्वनो हुं ज्ञायक छुं; परथी उदास छुं.
पंच परमेष्ठीनो भक्त छुं; जिनेश्वरनो नंद छुं.
सिद्धपदनो साधक छुं; अर्हंतनो उपासक छुं.
रत्नत्रयनो खजानो छुं; गुरुचरणनो दास छुं.
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ज्ञानमां जणाय अने अनुभवमां वेदनमां आवे. अनंत गुणना आनंदथी भरेला ए
आत्मवेदननुं वर्णन शब्दोमां के विकल्पमां न आवी शके. आत्मामां उपयोग जोडवा
माटे तेनी सर्वोत्कृष्ट प्रीति अने तेमां एकत्वबुद्धि थवी जोईए.
वैभवनुं सुख ते खरेखर सुख ज नथी, एटले शून्य साथे जेम संख्यानी सरखामणी न
थई शके तेम ईन्द्रिसुख (अर्थात् साचा सुखनी शून्यता) वडे अतीन्द्रिय महान सुखनुं
माप काढी शकाय नहि. अतीन्द्रिय सुखनुं माप अतीन्द्रियसुख वडे ज काढी शकाय. हवे,
ईन्द्र सम्यग्द्रष्टि होय छे, ने ते ईन्द्रने सम्यग्दर्शनना प्रतापे जे आत्मसुख होय छे ते
अतीन्द्रिय छे, ने तेना करतां भगवाननुं आत्मसुख अनंतगणुं छे.
आपी शकाय नहि. छतां तीर्थंकर भगवंतो साथे संबंध धरावता तीर्थो विशेषपणे
बिहार प्रान्तमां छे. केमके तीर्थंकरोनो विहार ए प्रदेशमां खूब थयो होवाथी ते प्रदेशनुं
नाम विहार पड्युं छे. बाकी मध्यप्रान्तमां पण घणा तीर्थो छे. दक्षिणदेशमां तीर्थो ओछा
छे परंतु त्यां जैनधर्मनो विपुल वैभव ठेरठेर भर्यो छे. उत्तर–
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मार्गदर्शक है। इस किताबमें प्राचीन महापुरुषोंके चरित्र आना जरुरी है। स्वाध्यायके लिये
श्राविकामंडलकी तरफसे हररोज ४०–५० महिलायें आती है। द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र और
छहढालाका भी स्वाध्याय अच्छी तरह शुरु है। श्री पूज्य कानजीस्वामीको सविनय प्रणाम।।
स्मरण करीने वन्दना करे, पण वीतरागदेव सिवाय बीजाने ते वन्दन करे नहि.
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पण वेलीवेली पाठशाळा शरू थाय ने तमे सौ होंसथी धार्मिक अभ्यास करो एम भावना भावीए.
उ :– भेदज्ञानी संतनी समीपमां रहीने तेओ कहे तेम करवुं ते;
प्र. (४) सम्यग्दर्शन थया पहेलां कोई मनुष्ये मनुष्यआयु बांधी लीधुं होय ने पछी
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उ :– जेओ सत्य धर्ममां रहीने पोताना धर्मने ज साचो माने छे तेमणे तो
प्रश्न :– आत्माना जिज्ञासु मोक्षार्थीने कांई कार्य करवानुं रहे छे?
उत्तर :– हा, तेणे आत्माने साधवानुं खरुं महान कार्य करवानुं छे. अत्यार
सद्गुरुदेवना चरणोमां रहीने आत्माने समजवा माटे अखंड जागृती राखी शुद्ध आत्माने
समजुं एवी भावना छे.”
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उ :– हा, ते प्रकारनुं विशेष निर्मळ ज्ञान होय तो जोई शके.
उपरोक्त प्रश्नकार भाई लखे छे– ‘गया महिने मारा बे प्रश्नोनो जवाब न
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अत्यारथी आवी नजीवी बाबतमां हताशा केम पालवे? हताशाने जीवनमांथी खंखेरी
हताशाने प्रवेशवा देशो नहि....धैर्य अने आत्मबळथी आगळ ने आगळ वधजो.
(१) आचार–अंग
(७) उपासकअध्ययन (८) अंतकृतदशांग
(९) अनुत्तरोपपादक (१०) प्रश्नव्याकरण
(११) विपाकसूत्रो
ज थाय. आ रीते ११ अंग ने नव पूर्व ए अज्ञानीना उघाडनी उत्कृष्ट मर्यादा छे.