शुक्लध्यानरूपी अत्यंत तेजस्वी ध्यानचक्र प्रगट्युं. पुत्र तो चक्रवर्ती राजा थयो, ने पिता
केवळज्ञान प्रगट करीने धर्मचक्री थया. पिता तो तीर्थंकर थईने धर्मोपदेश वडे जीवोनुं
हित करवा लाग्या. ने भावि तीर्थंकर एवो पुत्र चक्रवर्ती थईने प्रजानुं पालन करवा
लाग्यो. राजा वज्रनाभिए चक्ररत्नवडे आखी पृथ्वीने जीती लीधी हती, ने भगवान
वज्रसेने कर्मो उपर विजय मेळवीने अनुपम प्रभाववडे त्रण लोकने जीती लीधा हता.
आ रीते विजय करवामां श्रेष्ठ ए बंने पिता–पुत्र जाणे एकबीजानी स्पर्धा करता होय,
एवा लागता हता. पण एकनो विजय अत्यंत अल्प, छ खंड सुधीज मर्यादित हतो,
बीजानो विजय आखा लोकने उल्लंघीने अलोकमां पण पहोंची गयो–एवो सौथी महान हतो.
१४ रत्नोमांथी गृहपती नामनो तेजस्वी रत्न थयो. आ रीते महान अभ्युदय सहित
बुद्धिमान वज्रनाभि चक्रवर्तीए दीर्घकाळ सुधी राज्य भोगव्युं.
श्रीमुखेथी अत्यंत दुर्लभ एवा रत्नत्रयधर्मनुं स्वरूप सांभळीने तेने पण रत्नत्रयनी
भावना जागी. “जे बुद्धमान जीव अमृत समान एवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणेनुं
सेवन करे छे ते अचिंत्य अने अविनाशी एवा मोक्षपदने पामे छे,–एम हृदयमां
विचारीने ते चक्रवर्तीए पोताना समस्त साम्राज्यने सडेला तरणां समान जाणीने छोडी
दीधुं ने रत्नत्रयधर्ममां तथा तपमां पोतानी बुद्धि लगावी. वज्रसेन नामना पुत्रने
राज्य सोंपीने तेणे १६००० मुगटबंधी राजाओ, एक हजार पुत्रो, पूर्वभवना स्नेही
एवा आठ भाईओ, तथा धनदेवनी साथे, मोक्षप्राप्तिना उदे्शथी, पिता वज्रसेन
तीर्थंकरनी समीप, भव्य जीवोने परम आदरणीय एवी जिनदिक्षा धारण करी.
मनगुप्ति, वचनगुप्ति ने कायगुप्ति ए त्रण गुप्ति–आ आठने ‘अष्ट प्रवचनमाता’
कहेवाय छे, तेनुं पालन दरेक मुनिने जरूर होय–एम ईन्द्रसभाना रक्षक (–
समवसरणना नायक) एवा गणधरदेवे कह्युं छे. वज्रनाभि मुनिराजे आवी समिति–
गुप्तिनुं पालन कर्युं; ते उत्कृष्ट तपस्वी, धीर, वीर, पापरहित, मुनिधर्मनुं चिन्तन
करनारा, सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयधर्मथी शोभायमान चक्रवर्ती–मुनिराज
एकलविहारीपणे एकाकी विचरवा लाग्या.