: कारतक : २४९३ आत्मधर्म : २प :
(८) गुणीषु प्रमोद
सम्यक्त्वादि रत्नत्रयगुणना धारक. एवा गुणीजनो प्रत्ये
धर्मीने प्रमोद होय छे; ए रत्नत्रयने तथा तेना आराधक
गुणीजनोने देखीने तेने अंतरमां प्रेम–हर्ष–उत्साह ने बहुमान
जागे छे, तेने वात्सल्य उल्लसे छे. गुणीजनो प्रत्ये जेने प्रमोद न
आवे, तो समजवुं के ते जीवने गुणना महिमानी खबर नथी, तेने
पोतामां गुण प्रगट्या नथी. पोतामां जेने गुण प्रगट्या होय तेने
तेवा गुण बीजामां देखतां प्रमोद आव्या विना
रहे नहि.
(९) गुणीजनोनो संग
भगवती आराधनामां कहे छे के चरित्ररहित तथा
ज्ञानदर्शनथी रहित एवा भ्रष्ट मुनिओ लाखो करोडो होय तो
पण तेना करतां सुशील एवा उत्तम आचारना धारक एक ज
होय ते श्रेष्ठ छे; केम के सुशील एवा जे भावलिंगी तेना आश्रये
शील एटले के दर्शन–ज्ञान–चारित्र वृद्धिने पामे छे. (भावार्थ–)
जेनाथी सत्यार्थ धर्म प्रवर्ते ते तो एक पण श्रेष्ठ छे; अने जेनाथी
सत्यार्थ धर्म नष्ट होय, विपरीत मार्गे प्रवर्ते एवा लाखो–करोडो
पण श्रेष्ठ नथी.
(भगवती आराधना–गा. ३प९)
(१०) गुणीजनोना आश्रये गुणनी पुष्टि थाय छे.
कोई एम कहे के, सत्यार्थ संयमी तो अमारो आदर करता
नथी, ने पार्श्वस्थ (भ्रष्ट) मुनि बहु आदर करे छे, प्रीति करे छे!
–तो तेने कहे छे के हे भाई! दुर्जन वडे करवामां आवती जे पूजा–
आदर तेना करतां संयमी जनो वडे करवामां आवतुं अपमान
पण श्रेष्ठ छे. केम के दुर्जननी संगति तो आत्माना ज्ञान–दर्शननो
नाश करे छे,ने संयमीओनी संगति आत्माना ज्ञान–दर्शनादिक
स्वभावने प्रगट करे छे. ऊज्वळकरे छे.
(भगवती आराधना गा. ३६०)
माटे श्रेष्ठ गुणधारक सन्तजनोनो ज आश्रय करो एवो
उपदश छ.