Atmadharma magazine - Ank 277
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९३ आत्मधर्म : २७ :
छूटी जशे ने तने तारुं चैतन्यतत्त्व परद्रव्योथी जुदुं विलसतुं–शोभतुं देखाशे. भगवाने
जेवो उपयोगस्वरूप आत्मा जोयो छे तेवो आत्मा तारा अंतरमां विलसी रह्यो छे.
“मरीने पण तुं आवा तत्त्वने देख” एटले एवो ऊग्र प्रयत्न कर के मरण
जेटली प्रतिकूळता ऊभी थाय तोपण देहथी जुदा आत्माने अंतरमां देखवानी धगश
छूटे नहि. “मरीने पण” एटले आत्माने तो कांई मरण नथी, परंतु मरीने पण एटले
के देहनी दरकार छोडीने, देहथी भिन्न आत्माने जाणवानी दरकार कर. देहनी जेटली
दरकार करी तेना करतां अनंतगुणी आत्मानी दरकार करीने आत्माने जाण आवो
प्रयत्न करीश तो जरूर अंदर तने देहथी जुदो आत्मानो विलास देखाशे;–के जेने जोतां
ज तारो देह साथे एकमेकपणानो मोह तरत ज छूटी जशे. अरे जीव! तुं विचार तो
कर के–
“हुं कोण छुं? क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं?”
शुं आ देह हुं छुं? शुं लक्ष्मी हुं छुं? शुं आ कुटुंब वगेरे हुं छुं?–नहि; ए तो बधा
संयोगी पदार्थो छे, ते तो आवे छे ने पाछा चाल्या जाय छे; आत्मा तो सदा टकनार
असंयोगी वस्तु छे. कोई संयोगमां एनुं सुख नथी. सुखस्वरूप तो आत्मा पोते ज छे.
बहारमांथी सुख शोधवा जतां पोते पोताना सुखस्वभावने भूली जाय छे. भाई, सुख
तो कांई बीजामांथी आवे? सुखस्वरूप तो आत्मा पोते छे, पोते पोताने जाणतां आनंद
थाय छे. पण एने माटे आ दुनियानी दरकार छोडीने चैतन्यदरियामां डुबकी मार.
अरे, तें दुनियाने देखी, पण देखनारा एवा तने पोताने तें न देख्यो! परनी
प्रसिद्धि करी के ‘आ छे’ पण पोतानी प्रसिद्धि न करी के– ‘आ जाणनारो हुं छुं’.
जाणनारने जाण्या वगर आनंद थाय नहि. अहा, चैतन्यतत्त्व एवा आनंदथी भरेलुं छे
के जेना स्मरणमात्रथी पण शांति मळे, तो तेना सीधा अनुभवना आनंदनी तो
शी वात?
तारो आत्मा अतीन्द्रिय आनंदथी भरेलो भगवान छे, ते मूर्तद्रव्योथी जुदो छे,
रागथी जुदो छे. मूर्तद्रव्योनो तुं पाडोशी थई जा. पाडोशी एटले जुदो; चैतन्यप्रकाशनी
अपेक्षाए राग पण अचेतन छे, ते पण चैतन्य साथे एकमेक नथी पण भिन्न छे. शरीर
अने राग बधाने एककोर एकबाजु राखीने, आ बाजु बधाथी भिन्न तारा
चैतन्यतत्त्वने देख; अरे, आत्माना अनुभवनो आवो सरस योग, ने भेदज्ञाननो
आवो उत्तम उपदेश, ते पामीने हवे एकवार आत्माने अनुभवमां ले; उत्कृष्ट प्रयत्न
करीने आत्माने देहादिथी भिन्न जाण.