: ३८ : आत्मधर्म : कारतक : २४९३
पांडव अने कौरव वच्चे युद्धना भणकारा वाग्या...बंने पोतपोताना पक्षमां
राजाओनी मदद मेळववा प्रयत्न करवा लाग्या. कौरवोने थयुं के आपणे श्रीकृष्ण महाराजनी
मदद लईए; पांडवोने पण एम ज थयुं; कौरवो तरफथी दुर्योधन ने पांडवो तरफथी अर्जुन,
ए बंने एकसाथे श्रीकृष्ण पासे मदद लेवा पहोंच्या. श्रीकृष्ण सूता हता; दुर्योधन तेमना
मस्तक समीप बेठो, अर्जुन पग पासे बेठो. जागतांवेंत श्रीकृष्णनी द्रष्टि अर्जुन उपर पडी,
ने तेने आववानुं कारण पूछयुं, त्यारे दुर्योधन कहे छे के पहेलां हुं आव्यो छुं, माटे आपनी
मदद मागवानो पहेलां मारो हक्क! त्यारे श्रीकृष्ण कहे छे के मारी नजर तो अर्जुन उपर
पहेलां पडी हती. छतां तमे बंने मांगो–एक तरफ हुं एकलो, ने बीजी तरफ मारुं बधुं लश्कर
तथा साधनसामाग्री!–तेमां पण हुं पोते तो हथियार उपाडवानो नथी.–तो तमे बंने पसंदगी
करी ल्यो.
दुर्योधन कहे छे–मने साधनसामग्री आपो; (मारे कृष्णनुं काम नथी!)
अर्जुन कहे छे–मारे तो आप कृष्ण एक ज बस छो; आपनो साथ मळे पछी बीजी
कोई साधनसामग्रीनी मारे जरूर नथी. जुओ, दुर्योधने तो साधनसामग्री मांगी, ने अर्जुने
कृष्णनी बुद्धिने पसंद करी; अंते लडाई थई तेमां दुर्योधन हार्यो ने अर्जुन जीत्यो.
महाभारतनी वात पूरी थई.
आ द्रष्टांत उपरथी ज्ञानी अने अज्ञानीनी वात समजावतां गुरुदेव कहे छे के–
दुर्योधन जेवो दुर्बुद्धि अज्ञानी तो एकली बाह्यसामग्रीने मांगे छे. पांच ईन्द्रियो तथा
अनेकविध संकल्पो–विकल्पो एवी जे व्यवहारनी साधनसामग्री तेना वडे ज अज्ञानी मोक्षने
साधवा मांगे छे, पण श्रीकृष्ण जेवो बळवान एवो जे एक आत्मस्वभाव तेने ते भूली जाय
छे; एटले ते मोहने जीती शकतो नथी पण पराश्रितभावने लीधे हारी जाय छे.
अर्जुन जेवो विवेकी ज्ञानी तो कहे छे के, श्रीकृष्ण जेवो सामर्थ्यवान मारो जे
एकत्वस्वभाव, तेनुं एकनुं ज अवलंबन मने बस छे; अनंत शक्तिसंपन्न चैतन्य
स्वभावनुं अवलंबन छे तो बीजी कोई साधनसामग्रीनी (विकल्पनी के संयोगनी) मददनी
मारे जरूर नथी. स्वभावना एकना ज अवलंबने मोहने जीतीने हुंं मारा निजगुणनो वैभव
प्राप्त करीश. ते साधक स्वाश्रयभाववडे मोक्षने साधे छे...विजयवंत थाय छे.
विवेकबुद्धिवडे अनंत शक्तिसंपन्न एवा पोताना एकत्वस्वभावनुं अवलंबन करवुं,
ने बाह्य साधनसामग्रीना अवलंबननी बुद्धि छोडवी–एवो आ आध्यात्मिक महाभारतनो
सार छे. (प्रवचनमांथी)