Atmadharma magazine - Ank 278
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : मागशर : २४९३
आम परमभक्तिथी तेमणे विदेहक्षेत्रनी यात्रा करी...सीमंधरनाथना दर्शन कर्या.
वाह! ज्ञायकभावना आराधक ए भरवाडना जीवे भगवानने साक्षात् नीहाळ्‌या...ने
पोते पण भगवान जेवा थईने पंचपरमेष्ठीनी पंक्तिमां बेठा!
कुंदकुंदस्वामी विदेहक्षेत्रे पधार्या ते प्रसंगनी साक्षीरूपे गुरुदेवना हस्ताक्षर अहीं
आपीए छीए–
[आ हस्ताक्षर गुरुदेवे पोन्नुरतीर्थ उपर कुंदकुंदप्रभुना चरणसमीपे बेठाबेठा करेला छे.]
“जागृत रहो!” (एक राजानी वात)
आत्मजागृतिनी प्रेरणा आपनारी एक नानकडी वात आवे छे:
एक हतो राजा; तेने एक राणी; एक पुत्री ने एक दासी; जैनधर्मना रंगे
रंगायेलो आखो परिवार वैरागी हतो; एटले सुधी के दासी पण वैराग्यमां जागृत हती.
एकवार कांईक प्रसंग बनतां राजा वैराग्यथी कहे छे के–रे जीव! तुं जलदी
धर्मसाधना करी ले. आ जीवन तो क्षणभंगुर सात–आठ दिवसनुं छे! एनो शो भरोसो!
त्यारे राणी कहे छे–राजाजी! तमे भूल्या! सात–आठ दिवसनो पण शो भरोसो?
रात्रे हसतुं होय ते सवारमां नष्ट थई जाय छे! माटे कालना भरोसो न रहेवुं.
त्यारे पुत्री गंभीरताथी कहे छे–पिताजी, माताजी! आप बंने भूल्या. सात–आठ
दि’ नो के सवार–सांजनो शो भरोसो? आंखना एक पलकारामां कोण जाणे शुं थई जाय?
छेवटे दासी कहे छे–अरे, आप सौ भूल्या. आंखना टमकारमां तो केटलाय समय
चाल्या जाय छे...एटला समयनो पण शो विश्वास? माटे बीजा समयनी राह जोया वगर
वर्तमान समयमां ज आत्माने संभाळीने आत्महितमां सावधान थवुं, आत्महितनुं काम
बीजा समय उपर न राखवुं. एक समयनो पण विलंब तेमां न करवो.