Atmadharma magazine - Ank 279
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : पोष : २४९३
आत्मप्रयोजनी सिद्धिनो उपाय
[कुंदकुंदप्रभुना गणधरतूल्य श्री अमृतचंद्राचार्यदेव, तेमणे रचेलुं
सुगमशास्त्र जे पुरुषार्थसिद्धिउपाय’ –तेना उपर पू. श्री कानजी स्वामीनां प्रवचनो
मागशर–पूर्णिमाथी शरू थया छे. अहीं तेनो थोडोक भाग वांचीने जिज्ञासु
पाठकोने आनंद थशे.
]
‘पुरुषार्थ’ एटले आत्म–प्रयोजन, तेनी ‘सिद्धिनो उपाय’ –ते
पुरुषार्थ सिद्धिउपाय; कया उपाय वडे आत्माना प्रयोजननी सिद्धि थाय?
अर्थात् कया उपाय वडे आत्मा परमसुखरूप मोक्षनी सिद्धिने पामे–तेनुं
स्वरूप आचार्यदेव बतावे छे ––
विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यक्व्यवस्य निजतत्त्वम्।
यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोयम् ।।१५।।
विपरीत श्रद्धाननो नाश करीने अने निजस्वरूपने यथार्थपणे जाणीने, तेमां
अविचलितरूप स्थिति ते ज पुरुषार्थनी सिद्धिनो उपाय छे.
‘पुरुष’ एटले चैतन्यस्वरूप आत्मा; दरेक आत्मा पोताना अनंत गुणरूपी
पुरमां शयन करे छे –एकपणे रहे छे –तेथी ते पुरुष छे. ते पुरुषनुं लक्षण शुं? के चेतना
तेनुं लक्षण छे. राग एनुं लक्षण नथी, देह एनुं लक्षण नथी; मात्र ‘अमूर्तपणा’ वडे
पण तेनुं खरूं स्वरूप ओळखातुं नथी. ए तो चैतन्यलक्षणवडे लक्षित छे. अने आ
चैतन्यपुरुष आत्मा सदा पोताना गुण–पर्यायसहित छे, तथा उत्पाद–व्यय–ध्रुवनी
एकतापणे वर्ते छे. आवो चैतन्यस्वरूप आत्मा ते ‘पुरुष’; तेने ‘अर्थ’ एटले के
प्रयोजन शुं? के अशुद्धताथी उत्पन्न थयेलुं भवदुःख मटे, ने निजस्वरूपनी प्राप्तिवडे
मोक्षसुख प्रगटे, –ते प्रयोजन छे; –आ ज साचो पुरुषार्थ छे; पुरुषना आ अर्थनी (–प्रयोजननी