ATMADHARMA Regd. No. G. 182
प्रश्न:– विपत्ति वखते शुं करवुं?
उत्तर:– विपत्ति वखते धर्मने अने धर्मात्माना जीवनने विशेषपणे याद करवा...
धर्मात्माओ केवी उत्तम आराधना करे छे ते लक्षमां लईने तेनो उत्साह
वधारवो.
गमे तेवी विपत्तिमां आत्मस्वभावने न भूलवो.
गमे तेवी विपत्तिमां धर्मनुं पालन करवुं, संयमनी रक्षा करवी.
विपत्ति सदा रहेवानी नथी, क्षणमां टळी जवानी छे.
विपत्तिथी डर्ये विपत्ति टळती नथी पण वधे छे.
विपत्ति वखतेय हिंमत ने धैर्यपूर्वक उपाय करतां विपत्ति टळे छे.
धर्म ए ज संकट समयनो साचो साथी छे.
विपत्तिना दुःख करतां संयमना घातनुं के आर्तध्याननुं दुःख वधारे छे; माटे हे
जीव! विपत्तिथी डरीने तुं तारा धर्मने न छोड...आर्तध्यान न कर...उग्रपणे
स्वभावचिन्तनमां ने देव–गुरु–धर्मनी सेवामां तारुं चित्त जोड.
वनवास वखते धर्मने याद करीने सीताजी सन्देश कहेवडावे छे के–
हे सारथि! दशरथनंदनने कहेजो के लोकनिंदाना भयथी मने तो छोडी,
परंतु जिनधर्मने कदी न छोडशो.
श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती प्रकाशक अने
मुद्रक: मगनलाल जैन. अजित मुद्रणालय: सोनगढ (सौराष्ट्र)