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तेने तुं आदरणीय जाण; ए महासुंदर ने सुखरूप छे.
जगतनो सर्वोत्कृष्ट राजा एवा आत्माने तुं स्वानुभवगम्य
कर. तारो आत्मराजा ज तने आनंद देनार छे, बीजुं कोई
तने आनंद देनार नथी. आत्मानो आनंद जेणे अनुभव्यो
छे ते धर्मात्मानुं चित्त बीजे क्यांय ठरतुं नथी, फरीफरीने
आत्मा तरफ ज वळे छे. आत्मानुं अस्तित्व जेमां नथी,
आत्मानुं सुख जेमां नथी, आत्मानुं जीवन जेमां नथी,
एवा परद्रव्योमां धर्मीनुं चित्त केम चोंटे? आनंदनो समुद्र
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तेम आ जगतरूपी जे मोटी दुकान, ते जड–चेतन समस्त पदार्थोथी भरेली छे,
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छे. साधक पोताना ज्ञानमां सिद्धभगवंतोने स्थापीने (प्रतीतमां
लईने) कहे छे के प्रभो! आवो...पधारो...मारा ज्ञानना आंगणे
आप बिराजो.... साधकपणाना मारा मंगल उत्सवमां आपने हुं
आमंत्रण आपुं छुं. जेम लग्न वखते साथे मोटा माणसोने तेडी
जाय छे–जेथी वच्चे कांई विघ्न न आवे. तेम अहीं लग्न एटले
आत्मानी लगनी लगाडीने, स्वरूपनी संधिपूर्वक सिद्धपदने साधतां
साधतां साधक पोतानी साथे साक्षी तरीके पंचपरमेष्ठी भगवंतोने
राखे छे...पंचपरमेष्ठीने साथे राखीने अप्रतिहतपणे मोक्षलक्ष्मीने
वरे छे. जुओ, आ प्रतिष्ठा–महोत्सव छे, तेमां मंगळ तरीके अहीं
आत्मामां सिद्ध प्रभुनी प्रतिष्ठा थाय छे. हे प्रभो! हुं मारी
मोक्षलक्ष्मीने साधवा तैयार थयो छुं तेमां शुद्धात्मानी प्रतीत करीने,
ज्ञाननी निर्मळदशामां आपने साथे राखुं
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सिद्धोने ओळखीने तेमनो आदर कर्यो –ते अपूर्व मंगळ छे.
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राजाओनी उछामणी तो एक घडीकमां थई गई ने वधु ने वधु मागणी पण चालु रही.
रात्रे १०० राजाओनी भव्य राजसभा थई हती. पिताजी वगेरेए लग्न माटे
पारसकुमारने कह्युं पण वैरागी पारसकुमारे आयु वगेरेनी अल्पता जाणीने तेनो
अस्वीकार कर्यो. बीजे दिवसे (माह सुद ८) सवारमां अयोध्याना राजदूत द्वारा
अयोध्यापूरीनुं ने त्यां थयेला तीर्थंकरोनुं वर्णन सांभळतां प्रभुने जातिस्मरण सहित
वैराग्य थयो ने मुनिदशा लेवा तैयार थया. लौकांतिक देवोए आवीने स्तुति करी तथा
वैराग्यने अनुमोदन आप्युं...ने ईन्द्रो प्रभुनो दीक्षामहोत्सव करवा वनमां लई गया.
दीक्षायात्रा घणी महान हती; छ सात हजार भक्तो प्रभुनी साथे साथे दीक्षावनमां जई
रह्या हता. “
दशानी भावनानुं खूब घोलन कर्युं...मुनिदशानो आवो महिमा सांभळतां श्रोताजनो
मुग्ध थई जता हता. दीक्षा पछी मुनिभक्ति थई हती. दीक्षाना आ वैराग्य प्रसंगे अनेक
भाई–बहेनोए ब्रह्मचर्यप्रतिज्ञा अंगीकार करी हती; तेमां फत्तेपुर दि. जैन पाठशाळाना
शिक्षिकाबहेन ललिताबेन (उ. व. ३०) जेओ बालब्रह्मचारी छे–तेमणे पण आजीवन
ब्रह्मचर्यप्रतिज्ञा लीधी हती. रात्रे चित्रोद्वारा पार्श्वनाथप्रभुना पूर्वभवोनुं दिग्दर्शन पं.
श्री नाथुलालजीए कराव्युं हतुं. वेर सामे क्षमानुं उत्तम उदाहरण पार्श्वनाथप्रभुना
जीवनमां छे, क्षमानो महान बोध ए जीवन आपी रह्युं छे. अनेक भव सुधी क्रोधपूर्वक
उपसर्ग करवा छतां अंते पारसप्रभुनी परमक्षमा पासे ए कमठना क्रोधनी हार थाय छे,
ने घोरातिघोर उपद्रव सामे पण अडग आत्मध्यानमां मग्न पार्श्वनाथप्रभु ज्यारे
केवळज्ञान पामे छे त्यारे कमठनो जीव (संवरदेव) क्रोध छोडी पश्चात्तापपूर्वक प्रभु पासे
क्षमा मांगे छे ने अंते धर्म पामे छे–‘पारसना संगे ए पथरो पण सुवर्ण बनी जाय छे.’
–पारसप्रभुना जीवनना क्षमाप्रेरक प्रसंगो धैर्य, क्षमा ने धर्मद्रढता जगाडता हता. –
आठदश हजार माणसोनी सभा थती हती.
कर्युं. आहारदाननी खुशालीमां एककोर रत्नवृष्टि थई तो बीजीकोर दाननो वरसाद
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भक्तिथी अंकन्यासना मंत्राक्षर लख्या. लगभग २प जिनबिंबोनी प्रतिष्ठा थई. बपोरे
केवळज्ञानकल्याणक तथा समवसरणनी रचना वगेरे थयुं. रात्रे भक्ति–भजन वगेरे
थयुं.
योगनिरोध करीने निर्वाण पामे छे, ईन्द्रो निर्वाणकल्याणकनो उत्सव उजवे छे, तथा
यात्रिको सम्मेदशिखर तीर्थनी यात्रा करे छे–ए बधा द्रश्यो जोतां आनंद थतो हतो. आ
रीते पार्श्वप्रभुना जयकारपूर्वक पंचकल्याणक पूर्ण थया. –ते जगतने मंगलरूप हो.
हतुं. वीस हजार उपरांत माणसोनी भीड चारेकोर उभराती हती; हिंमतनगरनी
जनतानो मोटो भाग प्रभुप्रतिष्ठानो उत्सव जोवा उमट्यो हतो. मंगलप्रतिष्ठानी मंगल
घडी आवी, गुरुदेवे सुहस्ते मंगलस्वस्तिक कर्या ने पछी अत्यंत भक्तिपूर्वक प्रभुचरणने
हस्त लगावीने प्रतिष्ठानो प्रारंभ कर्यो. हजारो भक्तोना हर्षनादथी मंदिर गूंजी ऊठयुं,
मंगल वाजां वागवा मांड्यां, हेलिकोप्टरे पुष्पवृष्टि करीने आकाश गजावी मूक्युं.
लगभग बे कलाक सुधी आकाशमांथी जिनमंदिर उपर पुष्पवृष्टि थई, जुदा जुदा
भक्तजनो हेलिकोप्टरमां बेसीने पुष्पवृष्टि करता हता–ए द्रश्य देखीने वातावरण
उत्साहमय बनी जतुं हतुं. तेमांय ज्यारे पू. बेनश्री चंपाबेन अने पू. बेन शान्ताबेन
ए बंने पवित्र बहेनोए हेलिकोप्टरमां बेसीने आकाशमांथी जिनमंदिर उपर पुष्पवृष्टि
करी...त्यारे तो प्रभुना कल्याणक प्रसंगनी रत्नवृष्टिनां द्रश्यो ताजा थता होय–एम
भक्तो आनंदित थता हता. वीसथी पचीस हजार जेटला माणसोना अत्यंत
उल्लासभर्या वातावरण वच्चे जिनेन्द्र भगवंतोनी प्रतिष्ठा थई. मूळनायक भगवान
महावीर प्रभुनी प्रतिष्ठा झींझवाना भाईश्री पोपटलाल हाथीचंद तथा जांबुडीना
भाईश्री लीलाचंद पदमशीए (रूा. प३प०१ मां उछामणी लईने) करी हती. बाजुमां
श्री चंद्रप्रभ भगवाननी प्रतिष्ठा (रूा. १८प०१ मां उछामणी लईने) ननानपुरना
भाईश्री सोमचंद हेमचंदे करी हती; पद्मप्रभुनी प्रतिष्ठा (रूा. १८प०१ मां उछामणी
लईने) ननानपुरना भाईश्री छबालाल नेमचंदे करी हती. अने उपरना
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उछामणी लईने) तलोदना भाईश्री कोदरलाल हाथीचंदे करी हती. आ उपरांत बीजा
भगवंतोनी तेम ज जिनवाणी मातानी अने मंदिरना कलश–ध्वजनी उछामणी पण
बीजा भाईओए घणा उत्साहपूर्वक लीधी हती. आम घणा ज उत्साहपूर्वक सौए
प्रतिष्ठामां भाग लीधो हतो. जिनबिंबप्रतिष्ठा पछी जिनमंदिर उपर सवापांच फूट
जेटलो उन्नत सोनेरी कळश तथा ध्वज चढाववामां आव्या...ने कळश–ध्वजथी भव्य
जिनमंदिर खूब ज शोभी ऊठ्युं. आ बधी विधि दरमियान जिनमंदिरना शिखरनी
एकदम नजीक आवीने हेलिकोप्टर–विमान आकाशमांथी पुष्पवृष्टि कर्या ज करतुं हतुं...ने
भक्तो आनंदथी ए पुष्पोने झीलवा प्रयत्न करता हता.
कर्युं. पंडितजीए फरीने पण कह्युं के जो जिनका मत है वोही कानजीका मत है, दिगंबर
जैनधर्मकी आपके द्वारा महान प्रभावना हूई है और हो रही है. त्यारबाद उत्सवनी
पूर्णताना उपलक्षमां भगवान जिनेन्द्रदेवनी भव्य रथयात्रा नीकळी हती, घणा
उल्लासपूर्वक आखी नगरीमां रथयात्रा फरी हती, ने पारसप्रभुना रथना सारथी तरीके
पू. श्री कहानगुरु शोभता हता. रथयात्रानी शोभा जोवा आखुं नगर उमट्युं हतुं. रात्रे
जिनमंदिरमां भक्ति थई हती.
आसपासना घणा मुमुक्षु भाईओनो खूब ज उमंगभर्यो साथ ने सहकार मळ्यो हतो.
देशभरमांथी दशहजार उपरांत भक्तजनोए आवीने उत्सवने शोभाव्यो हतो.
फत्तेपुरना भाईश्री बाबुभाईए पण हरेक प्रकारनी व्यवस्थामां दोरवणी आपीने सौना
उत्साहमां बळ पूर्युं हतुं.
प्रस्थान कर्युं... वच्चे ओमकारनदी आवी. सोनगढ जेम जेम नजीक आवतुं गयुं तेम
तेम शांत हृदयोर्मिओ जागवा लागी....चार वागे सोनगढ आव्या...गुरुदेवे
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अरे, अब तो समझ ले तूं, चला संसार जाता है
रतन आतम को मूरख कांच बदले क्यों बिकाता है?
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अद्भुत ‘आत्मवैभव’ देखाड्यो छे, तेनो थोडोक नमूनो जिज्ञासुओने
जरूर गमशे. (आत्मवैभव पुस्तक धीमे धीमे छपाई रह्युं छे.
लक्ष्मणनी मूर्छा दूर थवा लागी; तेम शल्यरहित एवी वि–शल्या ज्ञानपरिणति ज्यां
प्रगटी त्यां बधा गुणोमांथी मिथ्यापणानी मूर्छा ऊतरी गई ने बधा गुणो स्वशक्तिनी
संभाळ करता जाग्या. विशल्या पूर्वभवमां चक्रवर्तीनी पुत्री हती; एकवार जंगलमां
अजगर तेने गळी गयो; तेनुं अडधुं शरीर अजगरना मुखमां ने अडधुं बहार हतुं.
अजगरना मोढामांथी तेने छोडाववा चक्रवर्तीए धनुष्यबाण तैयार कर्या, पण
विशल्याना जीवे तेने अटकावतां कह्युं–पिताजी! हुं तो हवे बचवानी नथी, मारा खातर
अजगरने न मारशो. आ प्रकारना शुभ परिणामना फळमां ते विशल्याने एवी ऋद्धि
हती के तेना स्नानना जळना छंटकावथी गमे तेवुं विष के मूर्छा ऊतरी जाय. आ
विशल्या ते लक्ष्मणनी पत्नी थनार हती. ज्यारे राजा रावण साथेना युद्धमां रावणनी
शक्तिना प्रहार वडे लक्ष्मण मूर्छित थईने ढळी पड्या ने चारेकोर हा–हाकार थई गयो;
रामचंद्र पण हताश थई गया; हनुमान वगेरे मोटामोटा विद्याधर राजकुमारो पण बेठा
हता. जो सवार सुधीमां आनो उपाय न मळे तो लक्ष्मणना जीववानी आशा न हती.
अंते कोईए उपाय बताव्यो के जो ‘विशल्यादेवी’ ना स्नाननुं जळ छांटवामां आवे तो
लक्ष्मण बची जाय. पछी तो तरत ज विशल्याने तेडावी; ते नजीक आवतांवेंत लक्ष्मणने
लागेली रावणनी शक्ति भागी, ने लक्ष्मणजी पोतानी शक्ति सहित जाग्या. तेम
चैतन्यलक्षणी लक्ष्मण एवो आ आत्मा, ते अनादिथी निजशक्तिने भूलीने
मोहशक्तिथी बेभान बन्यो छे, पण ज्यां शल्यथी विरहित एवी निःशल्य–निःशंक
श्रद्धारूपी सम्यक्त्वशक्ति जागी त्यां मोहशक्तिओ भागी, ने चैतन्यलक्षी भगवान
आत्मा पोतानी अनंत
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हवे तेनुं सम्यक्परिणमन थतां फळ आव्युं. एटले निर्मळ पर्याय
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ज आ दीक्षाप्रसंग बन्यो हतो.
आरो नजीक आवतो हतो तेथी) कल्पवृक्षो सुकावा मांड्या, तेमनी शक्ति घटी गई,
वगर वाव्ये जे अनाज ऊगता ते पण दुर्लभ थई गया ने प्रजामां रोग वगेरे थवा
लाग्या; तेथी भयभीत थईने जीववानी आशाथी प्रजाजनो नाभिराजा पासे आव्या.
अने नाभिराजाए तेमने भगवान ऋषभदेव पासे मोकल्या.
गरमीना अनेक उपद्रव थवा लाग्या; तो आ उपद्रवथी अमारी रक्षा थाय ने अमारी
आजीविका चाले एवो उपदेश आपो, ने अमारा पर प्रसन्न थाओ.
भोगभूमिनो काळ पूरो थईने कर्मभूमि शरू थई छे. तेथी असि–मसि–कृषि (अर्थात्
रक्षण–वेपार–खेती –लेखन) वगेरे कार्योनी तथा जुदा जुदा गाम–घर वगेरेनी जेवी
रचना पूर्व अने पश्चिम विदेहक्षेत्रमां वर्ते छे तेवी अहीं प्रवर्ताववी योग्य छे–जेथी
लोकोनुं रक्षण अने आजीविका सुखपूर्वक थाय.
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करीने अयोध्यापुरीनी वचमां मोटा जिनमंदिरनी रचना करी, तथा चारे दिशामां पण
एकेक जिनमंदिरनी रचना करी. पछी सुकोशल, अवंती, वत्स, पंचाल, मालव, रम्यक,
कुरु, काशी, कलिंग, अंग, बंग, काश्मीर, कच्छ, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, विदर्भ, कुरुजांगल,
कोंकण, वनवास, आंध्र, कर्णाट, कौशल, केरल, शूरसेन, विदेह, सिन्धु, गांधार, कम्बोज,
केकय वगेरे अनेक देशोनी तथा गाम–नगरनी रचना करी. विजयार्धपर्वतथी मांडीने
दक्षिण छेडामां लवणसमुद्र सुधीना ते देशोमां प्रजाजनोने वसावीने राजव्यवस्था करी.
ईन्द्रे पुर–नगरनी रचना करी तेथी ‘पुरंदर’ एवुं तेनुं नाम सार्थक थयुं.
आ रीते भगवाने छ–कर्मना उपदेशवडे कर्मयुगनो प्रारंभ कर्यो तेथी तेओ ‘कृतयुग’
अथवा ‘युगकर्ता’ कहेवाया, ने तेओ ज सृष्टिना ब्रह्मा कहेवाया. ए सिवाय बीजुं कोई
ब्रह्मा के सृष्टिकर्ता नथी. आ बधी रचना अषाड वद एकमना दिवसे थई. आ रचना
वडे प्रजानुं पालन कर्युं तेथी भगवान ‘प्रजापति’ कहेवाया. प्रजा सुखथी रहेवा लागी.
शोभा अद्भुत हती. रत्नोनी रंगोळीथी शोभता श्रेष्ठ आनंद–मंडपमां, तीर्थोना पवित्र
जळथी भरेला सुवर्णकळशवडे भगवाननो अभिषेक कर्यो. हिमवत् पर्वत परथी गंगा
अने सिंधु नदीना जळनी धारा पडती हती तेने वच्चेथी ज, (जमीन पर पड्या
पहेलां) झीलीने तेनावडे अभिषेक थयो हतो. श्री–ह्री वगेरे देवीओ पण पद्म वगेरे
सरोवरमांथी पवित्र पाणी लावी हती; लवणसमुद्रनुं श्रेष्ठ जळ तेमज नंदीश्वरद्वीपनी
नंदोत्तरा वगेरे वावडीनुं, क्षीरसमुद्रनुं, नंदीश्वरसमुद्रनुं, ने असंख्य योजन दूर एवा
स्वयंभूरमणसमुद्रनुं पण जळ सोनाना दिव्यकळशोमां भरी भरीने देवो लाव्या हता, ने
तेनावडे जगतगुरु भगवान ऋषभदेवनो अभिषेक कर्यो हतो. भगवाननुं शरीर तो
स्वयं पवित्र हतुं; एटले ते जळवडे भगवाननुं शरीर पवित्र
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ऋषभदेव बधा राजाओमां सौथी श्रेष्ठ राजा छे एम स्वीकारीने नाभिराजा वगेरे मोटा
मोटा राजाओए एक साथे अभिषेक कर्यो, तेमज अयोध्याना प्रजाजनोए पण
सरयूनदीनुं जळ भरीने भगवानना चरणोनो अभिषेक कर्यो. भरतक्षेत्रना
व्यन्तरदेवोना ईन्द्रोए (मागधदेव वगेरेए) पण ‘आ भगवान अमारा देशना स्वामी
छे’ एम समजीने प्रीतिथी अभिषेक कर्यो; अभिषेक पछी स्वर्गलोकथी लावेला
वस्त्राभूषण पहेराव्या, अने नाभिराजाए पोताना मस्तक परनो महामुगट उतारीने
भगवानना मस्तके पहेराव्यो; ने ईन्द्रे ‘आनंद’ नामना नाटकवडे पोतानो आनंद
व्यक्त कर्यो.
(एटले के नवीन वस्तुनी प्राप्ति तथा मळेली वस्तुनुं रक्षण–तेनी) व्यवस्था करी; ने
‘हा! मा! तथा धिक्’ एवा दंडनी व्यवस्था करी. तथा हरि (हरिवंश) अकंपन
(नाथवंश) काश्यप (उग्रवंश) अने सोमप्रभ (कुरुवंश)–ए चार क्षत्रियोने
महामांडलिक राजा बनाव्या, ने, तेमनी नीचे बीजा चार हजार राजाओ हता. भगवाने
पोताना पुत्रोने पण यथायोग्य महेल, सवारी वगेरे संपत्ति आपी. ते वखते भगवाने
लोकोने शेरडीनारसनो (ईक्षु–रसनो) संग्रह करवानुं कह्युं तेथी तेओ ईक्ष्वाकु कहेवाया.
मोकलतो हतो.–आ संसारमां पुण्यथी शुं प्राप्त नथी थतुं? पुण्य वगर सुखसामग्री
मळती नथी. दान, संयम, क्षमा, सन्तोष वगेरे शुभ चेष्टावडे पुण्यनी प्राप्ति थाय छे.
संसारमां तीर्थंकरपद सुधीना उत्तम पदनी प्राप्ति पुण्य वडे ज थाय छे. हे पंडितजनो!
श्रेष्ठ सुखनी प्राप्ति अर्थे तमे धर्मनुं सेवन करो. वास्तविक सुखनी प्राप्ति थवी ते धर्मनुं
ज फळ छे. हे सुबुद्धिमान! तमे सुख चाहता हो तो श्रेष्ठ मुनिओने भक्तिथी दान दो,
तीर्थंकरोने नमस्कार करीने तेमनी पूजा करो, शील–व्रतोनुं पालन करो अने पर्वना
दिवसोमां उपवासादि करो, शास्त्रस्वाध्याय करो...साधर्मीनी सेवा करो.
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एवा भगवान ऋषभदेवे अयोध्याना राजसिंहासन उपर आरूढ थईने समुद्रपर्यन्त
समस्त पृथ्वीनुं राज्य कर्युंर्.
माटे नृत्य प्रारंभ कर्युं. अप्सराओनुं अद्भुत नृत्य भगवान नीहाळी रह्या हता.
गया; हवे आ राज्य अने भोगोमांथी भगवान क्या प्रकारे विरक्त थाय! आम
विचारीने ते नृत्यकारोमां तेणे नीलांजना नामनी एक एवी देवीने नीयुक्त करी के जेनुं
आयुष्य थोडी क्षणोमां ज पूरुं थवानुं हतुं. ते नीलांजना देवी हाव–भावसहित फूदरडी
नृत्य करी रही हती, नृत्य करतां करतां ज तेनुं आयुष्य पूरुं थतां क्षणभरमां ते अद्रश्य
थई गई. वीजळीना झबकारानी माफक ते देवी अद्रश्य थतां, रंगमां भंग न थाय ते
माटे तरत ज ईन्द्रे एना जेवी ज बीजी देवीने नृत्यमां गोठवी दीधी.–परंतु दिव्य
ज्ञानवंत भगवान ते जाणी गया, ने संसारनी आवी अध्रुवता देखीने तत्क्षण ज भव–
तन–भोगथी अत्यंत विरक्त थया ने वैराग्यनी बार भावनाओ चिन्तववा लाग्या.
खरेखर तो मने प्रतिबोध पमाडवा माटे ज ते बुद्धिमाने युक्ति करी छे. आ
नीलांजनादेवीना दिव्य शरीरनी जेम जगतना बधा पदार्थो क्षणभंगुर छे, एनाथी हवे
मारे शुं प्रयोजन छे? ए भोगोपभोग तो भाररूप छे. आवा असार संसारने अने
क्षणिक राजभोगने धिक्कार हो. आ राजभोगने खातर मारो अवतार नथी, परंतु
आत्मानी पूर्णताने साधीने तीर्थंकर थवा मारो अवतार छे.
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के मुक्तिनी सखी ज आवी पहोंची. मोक्षमां ज जेमनुं चित्त लागेलुं छे एवा ते
भगवानने आखुं जगत शून्य जेवुं असार लागतुं हतुं. भगवानना अंतःकरणनी
समस्त चेष्टाओ उपरथी ईन्द्रे अवधिज्ञानवडे जाणी लीधुं के भगवान हवे संसारथी
विरक्त थई गया छे ने मुनिदशा माटे तत्पर थया छे.
पूर्वभवमां संपूर्ण श्रुतज्ञानना अभ्यासी (श्रुतकेवळी) होय छे, घणा शान्त ने सर्व
देवोमां उत्तम होय छे, तथा एकावतारी होय छे, लोकनो अंत पाम्या होवाथी अथवा
ब्रह्मलोकना अंतमां रहेता होवाथी तेओ लोकान्तिक कहेवाय छे. मुक्तिसरोवरना किनारे
रहेला ते देवो स्वर्गना हंस जेवा छे. तेमणे आवीने कल्पवृक्षनां फूलोवडे भगवानना
चरणोमां पुष्पांजलि चढावी ने स्तुति करी के हे भगवान! मोहशत्रुने जीतवा माटे आप
उद्यमी थया छो ते एम सूचवे छे के भव्यजीवो प्रत्ये भाईपणानुं कार्य करवानो आपे
विचार कर्यो छे. अर्थात् भाईनी जेम भव्य जीवोनी सहायता करवानो आपे विचार
कर्यो छे. हे ज्योतिस्वरूप देव! अमे आपने समस्त उत्तम कार्योना कारण समजीए
छीए. प्रभो, केवळज्ञानना प्रकाशवडे आप अज्ञानमां डुबेला संसारनो उद्धार करशो.
आपे देखाडेला धर्मतीर्थने पामीने भव्यजीवो आ दुस्तर संसारसमुद्रने रमतमात्रमां
तरी जशे. आपनी वाणी भव्यजीवोना मनने प्रफुल्लित करशे. प्रभो! आप धर्मतीर्थना
नायक छो. मोहरूपी कीचडमां फसायेला आ जगतने धर्मरूपी हाथनो सहारो दईने आप
शीघ्र उद्धार करशो. प्रभो! आप स्वयंभू छो, मोक्षनो मार्ग आपे स्वयं जाणी लीधो छे
ने अमने बधाने पण आप ते मुक्तिमार्गनो उपदेश देशो. प्रभो! अमे तो आपने
प्रेरणा करनारा कोण? आ तो मात्र अमारो नियोग छे. आ भव्यचातको मेघनी माफक
आपना धर्मामृतनी राह जुए छे. प्रभो! अत्यारनो काळ आपना धर्मरूपी अमृतने
उत्पन्न करवा माटे योग्य छे, माटे हे विधाता! धर्मनी सृष्टि करो. प्रभो! अनेकवार
भोगवाई चुकेला भोगोने हवे आप छोडो. फरीफरीने गमे तेटली वार भोगववा छतां
ए भोगोना स्वादमां कांई नवीनता आवी जती नथी; माटे ते भोगने छोडीने मोक्षने
माटे ऊठो ने उद्यमवडे मोहशत्रुने जीतो.