Atmadharma magazine - Ank 281
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.

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आत्मधर्म
वर्ष २४
सळंग अंक २८१
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001 Apr 2005 First electronic version.

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२८१
धर्मीनुं चित
हे जीव! त्रणलोकनो राजा एवो पोतानो आत्मा छे
तेने तुं आदरणीय जाण; ए महासुंदर ने सुखरूप छे.
जगतनो सर्वोत्कृष्ट राजा एवा आत्माने तुं स्वानुभवगम्य
कर. तारो आत्मराजा ज तने आनंद देनार छे, बीजुं कोई
तने आनंद देनार नथी. आत्मानो आनंद जेणे अनुभव्यो
छे ते धर्मात्मानुं चित्त बीजे क्यांय ठरतुं नथी, फरीफरीने
आत्मा तरफ ज वळे छे. आत्मानुं अस्तित्व जेमां नथी,
आत्मानुं सुख जेमां नथी, आत्मानुं जीवन जेमां नथी,
एवा परद्रव्योमां धर्मीनुं चित्त केम चोंटे? आनंदनो समुद्र
ज्यां देख्यो छे त्यां ज धर्मीनुं चित्त चोंटयुं छे.
तंत्री : जगजीवन बावचंद दोशी संपादक : ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २४९३ फागण (लवाजम : त्रण रूपिया) वर्ष २४ : अंक प

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एक मोटी दुकान
[ दुकान ज्ञानीए जोई खरी, पण लीधुं नहीं कांई ]
एक मोटी दुकानमां अनेकविध तरेहतरेहनो माल भर्यो हतो. एक माणसे
ते दुकान जोई; बधुं जोया बाद तेणे सन्तोष व्यक्त करीने जवा मांड्युं. त्यारे
दुकानदार कहे छे के कांईक खरीद तो करो!
ते माणसे कह्युं: भाई, तमारी दुकान सारी छे पण मारे आमांथी कोई वस्तुनी
जरूर नथी, तेथी हुं ते लईने शुं करुं.
तमे दुकाननी प्रशंसा करो छो परंतु खरीदता तो कांई नथी! –एम कह्युं, त्यारे ते
कहे छे के सांभळ भाई!
धारो के तमे एक दवानी दुकान जोवा गया, बधी जातना रोगनी ऊंचामां ऊंची
दवाओ त्यां जोईने तमे सन्तोष व्यक्त कर्यो. परंतु तमे तेमांथी कोई ज दवा खरीद न
करी, केमके तमने कोई ज रोग न होवाथी तमारे दवानी जरूर न हती. तो ते उत्तम? के
तमारे दवा लेवी पडे ते उत्तम?
दवा न लेवी पडे ते उत्तम, केमके ते नीरोगता सूचवे छे.
तेम आ जगतरूपी जे मोटी दुकान, ते जड–चेतन समस्त पदार्थोथी भरेली छे,
बधी वस्तुओ पोतपोताना स्वरूपमां शोभी रही छे. त्यां जेने ईच्छारूपी रोग लागु
पड्यो छे ते तो परपदार्थोने सुखहेतुथी ग्रहण करवा मांगे छे. पण ज्ञानी तो कहे छे के हुं
मारा स्वरूपथी परिपूर्ण छुं, मारा स्वरूपथी ज हुं तृप्त ने संतुष्ट छुं, ईच्छारूपी रोग ज
मने नथी, पछी हुं परद्रव्यना ग्रहणने शुं करुं? दवा भले गमे तेवी ऊंची होय पण जेने
रोग ज नथी तेने तेनुं शुं प्रयोजन छे? तेम पदार्थो भले गमे तेवा होय पण जेने
ईच्छा ज नथी तेने तेनुं शुं प्रयोजन छे? ते तो मात्र ज्ञान करीने ज संतुष्ट थाय छे.
तेनुं ज्ञान नीरोग छे–आकुळता वगरनुं छे; ने आवुं नीरोग–नीराकुळ ज्ञान ते ज सुख
छे. ज्ञानमां तृप्त एवो ते जीव जगतना पदार्थोने जाणे छे पण तेमांथी कोईने ग्रहवा
ईच्छतो नथी. पोतामां जे अतृप्त होय ते ज बीजाने ग्रहवा ईच्छे. पर ग्रहणनी जेने
ईच्छा छे ते दुःखी छे, स्वरूपमां जे तृप्त छे ते सुखी छे.

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: फागण : २४९३ आत्मधर्म : १ :
वार्षिक लवाजम वीर सं. २४९३
त्रण रूपिया फागण
वर्ष २४ : अंक प
सिद्ध प्रभुजी! आवो दिलमें.......
(हिंमतनगरमां अपूर्व मंगलाचरण)
ता. १३–२–६७ माह सुद ४ ना रोज हिंमतनगरमां
भव्यस्वागत बाद पांचेक हजार माणसोनी सभामां वंदितु
सव्वसिद्धे....... ए गाथा द्वारा भावभीनुं मंगलाचरण करतां
गुरुदेवे कह्युं–जुओ, अहीं मांगळिकमां सिद्ध भगवंतोनी प्रतिष्ठा करे
छे. साधक पोताना ज्ञानमां सिद्धभगवंतोने स्थापीने (प्रतीतमां
लईने) कहे छे के प्रभो! आवो...पधारो...मारा ज्ञानना आंगणे
आप बिराजो.... साधकपणाना मारा मंगल उत्सवमां आपने हुं
आमंत्रण आपुं छुं. जेम लग्न वखते साथे मोटा माणसोने तेडी
जाय छे–जेथी वच्चे कांई विघ्न न आवे. तेम अहीं लग्न एटले
आत्मानी लगनी लगाडीने, स्वरूपनी संधिपूर्वक सिद्धपदने साधतां
साधतां साधक पोतानी साथे साक्षी तरीके पंचपरमेष्ठी भगवंतोने
राखे छे...पंचपरमेष्ठीने साथे राखीने अप्रतिहतपणे मोक्षलक्ष्मीने
वरे छे. जुओ, आ प्रतिष्ठा–महोत्सव छे, तेमां मंगळ तरीके अहीं
आत्मामां सिद्ध प्रभुनी प्रतिष्ठा थाय छे. हे प्रभो! हुं मारी
मोक्षलक्ष्मीने साधवा तैयार थयो छुं तेमां शुद्धात्मानी प्रतीत करीने,
ज्ञाननी निर्मळदशामां आपने साथे राखुं

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: २ : आत्मधर्म : फागण : २४९३
छुं.....स्वरूपनी रुचिना रंगथी मोक्षने साधवा जाग्यो तेमां हवे भंग
पडे नहि, एवुं अफर मांगलिक छे. साधक कहे छे के–
धर्म जिनेश्वर गाउं रंगशुं!
भंग म पडशो हो प्रीत जिनेश्वर...
बीजो मनमंदिर आणुं नहीं,
ए अम कूळवट रीत जिनेश्वर...
धर्म एटले पंदरमा धर्मनाथ भगवान, अथवा धर्म एटले
आत्मानो स्वभाव, तेने रंगथी साधवा नीकळ्‌यो तेमां हे नाथ! हवे
भंग नहीं पडवा दउं. जे शुद्धात्मानी रुचि करीने ज्ञानमंदिरमां
बिराजमान कर्या, तेमां हवे बीजा कोई रागादि परभावने वच्चे
नहीं आववा दउं...ए मारी टेक छे. अनंता तीर्थंकरो आ मार्गे मोक्ष
पाम्यां. हुं पण तेमना कूळनो छुं ने अमारा कूळनी टेक छे के
शुद्धात्मानी रुचि सिवाय बीजानी रुचि न थवा दईए. आवी टेकथी
हे नाथ! अनंत सिद्धभगवंतो जे रस्ते गया ते रस्ते हुं पण हाल्यो
आवुं छुं.
हे सर्वज्ञ अने सिद्धभगवंतो! आप मारा ज्ञानमां समाओ!
एटले के राग जरा पण न रहो–एम रागथी तद्न भिन्न
चैतन्यनी रुचि अने प्रतीत वडे आत्मामां सर्वज्ञनी प्रतिष्ठा करुं छुं
ने हे श्रोताओ! तमे पण तमारा ज्ञानमां सर्वज्ञने स्थापीने आवा
आत्मानी रुचि करो...प्रतीत करो, आ रीते आत्मामां सर्वज्ञ–
सिद्धोने ओळखीने तेमनो आदर कर्यो –ते अपूर्व मंगळ छे.

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: फागण : २४९३ आत्मधर्म : ३ :
गुरुदेवनी साथे साथे
(हिंमतनगरमां पंचकल्याणक–महोत्सव)
आत्मधर्मना गतांकमां सोनगढथी राणपुर सुधीना समाचार आपी गया छीए.
राणपुरथी अमदावाद थईने माह सुद ४ ना रोज गुरुदेव हिंमतनगर पधारतां हजारो
मुमुक्षुओए उमंगभर्युं स्वागत कर्युं. बे हाथी सहितनुं आवुं उल्लासभर्युं भव्य स्वागत
जोईने आखी नगरी आश्चर्य पामती हती. स्वागत सरघस महावीरनगरना
प्रतिष्ठामंडपमां आव्युं, ने त्यां पांचेक हजार माणसोनी सभामां गुरुदेवे सिद्ध
भगवंतोने निमंत्रीने अपूर्व मांगळिक कर्युं. (जे आ अंकमां आप्युं छे.)
महावीरनगर–प्रतिष्ठामंडप खूब ज शोभतो हतो. बाजुमां सवालाख उपरांतना
खर्चे बंधायेलुं विशाळ जिनमंदिर छे. अहीं जैनभाईओनी सोसायटी बंधातां तेमने
एवी भावना थई के आपणा मकानोनी साथे साथे भगवानना दर्शन–पूजन माटे एक
जिनमंदिर पण बंधाववुं जोईए. ते अनुसार तेमणे सोसायटीनी जमीन साथे
जिनमंदिर माटेनी जमीननी पण मांगणी करी. हिंमतनगरना राजवीए तेमनी
भावनामां साथ आपीने जिनमंदिर माटेनो प्लोट भेट तरीके आप्यो. ने तेमां
मुमुक्षुओए उत्साहपूर्वक भव्य जिनमंदिर बंधाव्युं. –तेमां पंचकल्याणक–प्रतिष्ठामहोत्सव
प्रसंगे पू. गुरुदेव हिंमतनगर पधार्या.
प्रतिष्ठा–महोत्सवना प्रारंभमां शांतिजाप, मंडपमां प्रभुने बिराजमान करीने
झंडारोपण, तथा ६४ ऋद्धिधारी मुनिवरोनुं पूजन वगेरे विधिओ थई हती. ता. १प नी
रात्रे पार्श्वनाथप्रभुना गर्भकल्याणकनां द्रश्यो थया, त्यारबाद ता. १६ मी ए कुमारिका
देवीओ द्वारा वामादेवी मातानी सेवा, तत्त्वचर्चा वगेरे द्रश्यो थया. जन्माभिषेकना
कळशोनी उछामणी उल्लासकारी हती. –अमे कळश लीधा वगर रही न जईए–एवा
उमंगथी बधाय झडपभेर कळशनी बोली लेता हता. १०८ कळशनी बोली पूरी थतां
मात्र २० मिनिट लागी हती. –ते उपरथी तेनी झडपनो ख्याल आवशे. सांजे
उल्लासपूर्वक वेदीशुद्धि–मंदिर–कळश–ध्वजशुद्धि थई हती. दरेक विधिमां १६ ईन्द्रो ने १६
ईन्द्राणीओ भाग लेता हता. ईन्द्रो उपरांत केटलीक अगत्यनी विधि

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: ४ : आत्मधर्म : फागण : २४९३
ू. बेनश्री–बेन चंपाबेन–शांताबेनना पवित्रहस्ते थई हती. रात्रे अजमेरनी भजन–
मंडळीए भजन–नृत्य कर्या हता. माह सुद ७ (ता. १७) नी सवारमां पार्श्वनाथ
भगवानना जन्मोत्सवनो आनंदकारी उत्सव थयो. ज्यारे सभा आतुर हती के हवे शुं
बनशे? –त्यां तो अचानक घंटनाद थवा लाग्या, चारेकोर दीपको झगझगी ऊठया,
वाजांथी मंडप गाजी ऊठ्यो, शुं थयुं? शुं थयुं? के काशीनगरीमां भगवान पार्श्वनाथ
तीर्थंकरनो अवतार थयो. सौधर्मईन्द्रनी सभामां देवो प्रभुजन्मनो उत्सव उजवी रह्या
छे...१६ ईन्द्रो ने ईन्द्राणीथी भरपूर भव्य ईन्द्रदरबार शोभतो हतो ने चारेकोर
जन्मोत्सवनो आनंद छवाई गयो हतो, देवीओ हर्षथी मंगलवधाई गाती हती. अहीं
काशीनगरीमां पण आनंद छवाई गयो हतो, काशीना पंडित फूलचंदजी पण काशीनी
राजसभामां आवी पहोंच्यां हता. सौधर्मईन्द्र ऐरावत लईने आवी पहोंच्या ने
शचीदेवीए बालतीर्थंकरने आनंदथी तेडीने ईन्द्रना हाथमां आप्या; ईन्द्र तेमने गोदमां
लई ऐरावत उपर सवार करी मेरूपर्वत उपर चाल्या. प्रभुनी भव्य सवारी आखी
नगरीमां फरती फरती मेरूपर्वते पहोंची. नगरजनो आश्चर्यपूर्वक प्रभुनी सवारीने
नीहाळी रह्या. लांबी लांबी सवारी महान आनंद व्यक्त करती करती जे रस्ते पसार
थाय ते रस्ता घडीभर तो हजारो माणसोना आनंदकारी कोलाहलथी गाजी ऊठता;
नगरना अन्यमति प्रेक्षको–तेओ पण मात्र प्रेक्षको ज नहोता रह्या, परंतु अजमेरनी
भजनमंडळीनुं भक्तिभीनुं नृत्य देखीने तेओ एवा उल्लासमां आवी जता के एना
तालनी साथे साथे पोते पण नाची ऊठता. सवारीमां एक छेडेथी बीजा छेडा सुधी ज्यां
जुओ त्यां प्रभुना जन्मोत्सवना आनंदमां भक्तो नाची ऊठता हता. सवारी मेरु पर्वते
पहोंची ने आनंदपूर्वक प्रभुनो जन्माभिषेक थयो. ए जन्माभिषेक तीर्थंकरप्रभुना
अपार महिमाने प्रसिद्ध करतो हतो. मेरूपर्वत जाणे जोरशोरथी कोलाहल करीने एम
बोलतो हतो के अरे मनुष्यो, हुं मोटो नथी, प्रभुना महिमा पासे हुं तो साव नानो छुं,
मोटा महिमावंत तो आ भगवान छे के जेओ जगतना जीवोने मोक्षनो मार्ग देखाडशे.
आनंदपूर्वक अभिषेक करीने मंडपमां आव्या त्यारे ईन्द्रो अने भक्तो अति भक्तिपूर्वक
प्रभुसन्मुख नाची ऊठ्या हता. लगभग पांच–छ हजार माणसोए प्रभुना
जन्मोत्सवनो आनंद माण्यो. गुरुदेवना प्रवचनमां नगरना अनेक प्रतिष्ठित आगेवानो
पण आवता. बपोरना प्रवचन पछी प्रभु पारसकुमारनुं पारणाझुलन आनंदपूर्वक थयुं
हतुं. तथा राजसभाने माटे

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: फागण : २४९३ आत्मधर्म : प :
१०० राजाओनी उछामणी थई, सौने राजदरबारमां बेसवानी एवी होंश के १००
राजाओनी उछामणी तो एक घडीकमां थई गई ने वधु ने वधु मागणी पण चालु रही.
रात्रे १०० राजाओनी भव्य राजसभा थई हती. पिताजी वगेरेए लग्न माटे
पारसकुमारने कह्युं पण वैरागी पारसकुमारे आयु वगेरेनी अल्पता जाणीने तेनो
अस्वीकार कर्यो. बीजे दिवसे (माह सुद ८) सवारमां अयोध्याना राजदूत द्वारा
अयोध्यापूरीनुं ने त्यां थयेला तीर्थंकरोनुं वर्णन सांभळतां प्रभुने जातिस्मरण सहित
वैराग्य थयो ने मुनिदशा लेवा तैयार थया. लौकांतिक देवोए आवीने स्तुति करी तथा
वैराग्यने अनुमोदन आप्युं...ने ईन्द्रो प्रभुनो दीक्षामहोत्सव करवा वनमां लई गया.
दीक्षायात्रा घणी महान हती; छ सात हजार भक्तो प्रभुनी साथे साथे दीक्षावनमां जई
रह्या हता. “
नमः सिद्धेभ्य कहीने, केशलोच करीने प्रभु दीक्षीत थया, त्यारबाद ते
दीक्षावनमां ज मुनिदशा प्रत्येनी परमभक्तिपूर्वक पू. कानजीस्वामीए प्रवचनमां ए
दशानी भावनानुं खूब घोलन कर्युं...मुनिदशानो आवो महिमा सांभळतां श्रोताजनो
मुग्ध थई जता हता. दीक्षा पछी मुनिभक्ति थई हती. दीक्षाना आ वैराग्य प्रसंगे अनेक
भाई–बहेनोए ब्रह्मचर्यप्रतिज्ञा अंगीकार करी हती; तेमां फत्तेपुर दि. जैन पाठशाळाना
शिक्षिकाबहेन ललिताबेन (उ. व. ३०) जेओ बालब्रह्मचारी छे–तेमणे पण आजीवन
ब्रह्मचर्यप्रतिज्ञा लीधी हती. रात्रे चित्रोद्वारा पार्श्वनाथप्रभुना पूर्वभवोनुं दिग्दर्शन पं.
श्री नाथुलालजीए कराव्युं हतुं. वेर सामे क्षमानुं उत्तम उदाहरण पार्श्वनाथप्रभुना
जीवनमां छे, क्षमानो महान बोध ए जीवन आपी रह्युं छे. अनेक भव सुधी क्रोधपूर्वक
उपसर्ग करवा छतां अंते पारसप्रभुनी परमक्षमा पासे ए कमठना क्रोधनी हार थाय छे,
ने घोरातिघोर उपद्रव सामे पण अडग आत्मध्यानमां मग्न पार्श्वनाथप्रभु ज्यारे
केवळज्ञान पामे छे त्यारे कमठनो जीव (संवरदेव) क्रोध छोडी पश्चात्तापपूर्वक प्रभु पासे
क्षमा मांगे छे ने अंते धर्म पामे छे–‘पारसना संगे ए पथरो पण सुवर्ण बनी जाय छे.’
–पारसप्रभुना जीवनना क्षमाप्रेरक प्रसंगो धैर्य, क्षमा ने धर्मद्रढता जगाडता हता. –
आठदश हजार माणसोनी सभा थती हती.
बीजे दिवसे भगवान पारसमुनिराजना आहारदाननो प्रसंग बन्यो; भक्तोए
अत्यंत भक्तिपूर्वक आहारदान दीधुं ने बीजा चार–पांच हजार भक्तोए अनुमोदन
कर्युं. आहारदाननी खुशालीमां एककोर रत्नवृष्टि थई तो बीजीकोर दाननो वरसाद

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: ६ : आत्मधर्म : फागण : २४९३
वरस्यो. बपोरे श्री जिनेन्द्रभगवंतो उपर अंकन्यास थया. गुरुदेवे पण जिनबिंबो उपर
भक्तिथी अंकन्यासना मंत्राक्षर लख्या. लगभग २प जिनबिंबोनी प्रतिष्ठा थई. बपोरे
केवळज्ञानकल्याणक तथा समवसरणनी रचना वगेरे थयुं. रात्रे भक्ति–भजन वगेरे
थयुं.
माह सुद १० नी सवारमां निर्वाणकल्याणक विधि थई. ते प्रसंगे सम्मेदशिखर
पर्वतनी रचना, तथा तेना उपर पार्श्वप्रभु शुक्लध्यानमां बिराजी रह्या छे ने
योगनिरोध करीने निर्वाण पामे छे, ईन्द्रो निर्वाणकल्याणकनो उत्सव उजवे छे, तथा
यात्रिको सम्मेदशिखर तीर्थनी यात्रा करे छे–ए बधा द्रश्यो जोतां आनंद थतो हतो. आ
रीते पार्श्वप्रभुना जयकारपूर्वक पंचकल्याणक पूर्ण थया. –ते जगतने मंगलरूप हो.
पंचकल्याणक पूर्ण थतां अत्यंत भक्तिपूर्वक धामधूमथी वाजतेगाजते
जिनभगवंतोने जिनमंदिरमां पधराव्या...ए प्रसंगना आनंदमेळानुं द्रश्य घणुं भव्य
हतुं. वीस हजार उपरांत माणसोनी भीड चारेकोर उभराती हती; हिंमतनगरनी
जनतानो मोटो भाग प्रभुप्रतिष्ठानो उत्सव जोवा उमट्यो हतो. मंगलप्रतिष्ठानी मंगल
घडी आवी, गुरुदेवे सुहस्ते मंगलस्वस्तिक कर्या ने पछी अत्यंत भक्तिपूर्वक प्रभुचरणने
हस्त लगावीने प्रतिष्ठानो प्रारंभ कर्यो. हजारो भक्तोना हर्षनादथी मंदिर गूंजी ऊठयुं,
मंगल वाजां वागवा मांड्यां, हेलिकोप्टरे पुष्पवृष्टि करीने आकाश गजावी मूक्युं.
लगभग बे कलाक सुधी आकाशमांथी जिनमंदिर उपर पुष्पवृष्टि थई, जुदा जुदा
भक्तजनो हेलिकोप्टरमां बेसीने पुष्पवृष्टि करता हता–ए द्रश्य देखीने वातावरण
उत्साहमय बनी जतुं हतुं. तेमांय ज्यारे पू. बेनश्री चंपाबेन अने पू. बेन शान्ताबेन
ए बंने पवित्र बहेनोए हेलिकोप्टरमां बेसीने आकाशमांथी जिनमंदिर उपर पुष्पवृष्टि
करी...त्यारे तो प्रभुना कल्याणक प्रसंगनी रत्नवृष्टिनां द्रश्यो ताजा थता होय–एम
भक्तो आनंदित थता हता. वीसथी पचीस हजार जेटला माणसोना अत्यंत
उल्लासभर्या वातावरण वच्चे जिनेन्द्र भगवंतोनी प्रतिष्ठा थई. मूळनायक भगवान
महावीर प्रभुनी प्रतिष्ठा झींझवाना भाईश्री पोपटलाल हाथीचंद तथा जांबुडीना
भाईश्री लीलाचंद पदमशीए (रूा. प३प०१ मां उछामणी लईने) करी हती. बाजुमां
श्री चंद्रप्रभ भगवाननी प्रतिष्ठा (रूा. १८प०१ मां उछामणी लईने) ननानपुरना
भाईश्री सोमचंद हेमचंदे करी हती; पद्मप्रभुनी प्रतिष्ठा (रूा. १८प०१ मां उछामणी
लईने) ननानपुरना भाईश्री छबालाल नेमचंदे करी हती. अने उपरना

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: फागण : २४९३ आत्मधर्म : ७ :
भागमां शांतिनाथप्रभुना खड्गासन प्रतिमाजीनी प्रतिष्ठा (रूा. वीसहजार ने एकमां
उछामणी लईने) तलोदना भाईश्री कोदरलाल हाथीचंदे करी हती. आ उपरांत बीजा
भगवंतोनी तेम ज जिनवाणी मातानी अने मंदिरना कलश–ध्वजनी उछामणी पण
बीजा भाईओए घणा उत्साहपूर्वक लीधी हती. आम घणा ज उत्साहपूर्वक सौए
प्रतिष्ठामां भाग लीधो हतो. जिनबिंबप्रतिष्ठा पछी जिनमंदिर उपर सवापांच फूट
जेटलो उन्नत सोनेरी कळश तथा ध्वज चढाववामां आव्या...ने कळश–ध्वजथी भव्य
जिनमंदिर खूब ज शोभी ऊठ्युं. आ बधी विधि दरमियान जिनमंदिरना शिखरनी
एकदम नजीक आवीने हेलिकोप्टर–विमान आकाशमांथी पुष्पवृष्टि कर्या ज करतुं हतुं...ने
भक्तो आनंदथी ए पुष्पोने झीलवा प्रयत्न करता हता.
प्रतिष्ठा पछी मोटो शांतियज्ञ थयो ने बपोरना प्रवचन पछी काशीना पं. श्री
फूलचंदजी शास्त्रीए तथा ईन्दोरना पं. श्री बंसीधरजी शास्त्रीए श्रद्धांजलि रूपे प्रवचन
कर्युं. पंडितजीए फरीने पण कह्युं के जो जिनका मत है वोही कानजीका मत है, दिगंबर
जैनधर्मकी आपके द्वारा महान प्रभावना हूई है और हो रही है. त्यारबाद उत्सवनी
पूर्णताना उपलक्षमां भगवान जिनेन्द्रदेवनी भव्य रथयात्रा नीकळी हती, घणा
उल्लासपूर्वक आखी नगरीमां रथयात्रा फरी हती, ने पारसप्रभुना रथना सारथी तरीके
पू. श्री कहानगुरु शोभता हता. रथयात्रानी शोभा जोवा आखुं नगर उमट्युं हतुं. रात्रे
जिनमंदिरमां भक्ति थई हती.
आम हिंमतनगरना मुमुक्षुभाईओए थोडी संख्या होवा छतां मोटो
प्रतिष्ठामहोत्सव उजव्यो ने घणी हिंमतपूर्वक सफळताथी शोभाव्यो. गुजरातना
आसपासना घणा मुमुक्षु भाईओनो खूब ज उमंगभर्यो साथ ने सहकार मळ्‌यो हतो.
देशभरमांथी दशहजार उपरांत भक्तजनोए आवीने उत्सवने शोभाव्यो हतो.
फत्तेपुरना भाईश्री बाबुभाईए पण हरेक प्रकारनी व्यवस्थामां दोरवणी आपीने सौना
उत्साहमां बळ पूर्युं हतुं.
बीजे दिवसे माह सुद बारसनी सवारमां जिनेन्द्रभगवंतोना दर्शन–स्तवन
करीने पू. गुरुदेवे हिंमतनगरथी अमदावाद प्रस्थान कर्युं. त्यांथी बपोरे सोनगढ तरफ
प्रस्थान कर्युं... वच्चे ओमकारनदी आवी. सोनगढ जेम जेम नजीक आवतुं गयुं तेम
तेम शांत हृदयोर्मिओ जागवा लागी....चार वागे सोनगढ आव्या...गुरुदेवे

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: ८ : आत्मधर्म : फागण : २४९३
भावभीनां हृदये सीमंधरनाथना दर्शन कर्या...बे पंचकल्याणक प्रतिष्ठा ने एक वेदी
प्रतिष्ठा करीने बराबर एक महिने फरी सोनगढमां सीमंधर प्रभुने भेटतां गुरुदेवनुं
चित्त अनेरी शांति अनुभवतुं हतुं ने सौने लागतुं के भले बधे फरीए...पण अंते
सोनगढ तो सोनगढ ज छे...अहीं कोई जुदी ज शांति लागे छे. सांजे भाईश्री
हिंमतभाईने त्यां गुरुदेवनुं आहारदान थयुं, बीजे दिवसे सवारमां सोनगढथी
मंगलप्रस्थान करीने गुरुदेव भावनगर पधार्या.
भ...ज...न
प्राचीन कवि ‘न्यामत’जी एक भजनमां कहे छे–
विना समकित के चेतन जनम विरथा गंवाता है
तुझे समजाएं क्या मूरख! नहीं तुं दिलमें लाता है
है दर्शन–ज्ञान गुण तेरा, ईसे भूला है क्यों मूरख?
अरे, अब तो समझ ले तूं, चला संसार जाता है
तेरे में और परमातम में कूछ नहीं भेद अय चेतन!
रतन आतम को मूरख कांच बदले क्यों बिकाता है?
(कविए ठपको आपीने सम्यक्त्वनी केवी प्रेरणा करी छे!)

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: फागण : २४९३ आत्मधर्म : ९ :
परम शांति दातारी
अध्यात्म भावना
(अंक २८० थी चालु) (लेखांक ४७)
भगवानश्री पूज्यपादस्वामी रचित समाधिशतक उपर पूज्यश्री
कानजीस्वामीनां अध्यात्मभावनाभरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
(वीर सं. २४८२ श्रावण सुद एकम: मंगळवार: समाधिशतक गा. ८१)
हवे शिष्य पूछे छे के हे नाथ! आपे आत्मामां स्थिरतानो अभ्यास करवानुं कह्युं ण ते
तो व्यर्थ लागे छे, आत्माना अभ्यासमां परिपकव थवानो उद्यम करवानी कांई जरूर
लागती नथी, केम के शरीर अने आत्मा भिन्न छे–एवी धारणाथी अथवा एवुं
सांभळवाथी अथवा स्वयं बीजाने कहेवाथी ज मुक्ति थई जशे! –पछी स्थिरतानो उद्यम
करवानुं शुं प्रयोजन छे? –शिष्यना आवा प्रश्नना उत्तरमां आचार्य पूज्यपाद स्वामी कहे
छे–
श्रृण्वन्नप्यन्यतः कामं वदन्नपि कलेवरात्।
नात्मानं भावयेद्भिन्नं यावत्तावन्न मोक्षभाक्।८१।
देह अने आत्मा जुदा छे एम वारंवार ईच्छापूर्वक सांभळवा छतां, तथा
बीजाने कहेवा छतां, अने एवी धारणा करवा छतां, ज्यांसुधी पोते अंतर्मुख थईने आ
कलेवरथी भिन्न आत्माने भावतो नथी–अनुभवतो नथी त्यां सुधी जीव मुक्ति पामतो
नथी.
देहथी आत्मा जुदो छे–एवी वाणी गुरु पासे लाखो वरस सुधी सांभळे अने
पोते पण लाखो माणसोनी सभामां तेनो उपदेश करे, ते तो बंने पर तरफनी
आकुळवृत्ति छे. वाणी तो पर छे–अनात्मा छे, तेना आश्रये आत्मानी प्राप्ति थती नथी.
वाणी सांभळवानो ने कहेवानो अभ्यास ते कांई स्व–अभ्यास नथी, एटले ते कांई
मोक्षनुं कारण नथी. मोक्षनुं कारण तो स्व–अभ्यास छे; स्व–अभ्यास एटले शुं?
ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने देहथी भिन्न जाणीने, अंतर्मुख थईने वारंवार एकाग्रतानो
अभ्यास करवो तेनुं नाम स्व–अभ्यास छे, ने ते मोक्षनी प्राप्तिनो उपाय छे. अंतर्मुख
थईने आवी आत्मभावना जे करे तेणे श्रीगुरुनो उपदेश

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: १० : आत्मधर्म : फागण : २४९३
खरेखर सांभळ्‌यो छे, केम के श्रीगुरु पण देहथी भिन्न आत्माने जाणीने तेमां ज
अंतर्मुख थवानुं कहे छे. बीजा पासेथी श्रवणनो शुभभाव हो, के बीजाने संभळाववानो
भाव हो, –ते कांई स्व–अभ्यास नथी, ते तो राग छे. ते रागनी भावनाथी मोक्ष माने
तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. कोई एम माने के “जगतना घणा जीवो जो्र अमारा निमित्ते धर्म
पामता होय तो अमारे भले संसारमां थोडो वखत रहेवुं पडे”–तो ते जीव मोटो मूढ छे,
तेने स्व–अभ्यासनी भावना नथी पण परने समजाववानी ने रागनी भावना छे, ऊंडे
ऊंडे जगत पासेथी धर्मना बहाने मान लेवानी तेनी भावना छे. ‘अमारुं भले गमे
तेम थाय पण अमारे तो बीजानुं हित करवुं छे’ –एवी वात सांभळीने साधारण लोको
तो खुशी थई जाय के वाह! आने केवी भावना छे! आ केवा परोपकारी छे! पण ज्ञानी
कहे छे के ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे, तेने हजी भवभ्रमणनो भय थयो नथी; अरे, मारो
आत्मा आ चारगतिना भवभ्रमणथी केम छूटे –एवी तेने दरकार नथी; तेने परने
समजाववानी भावना छे पण आत्मानी भावना नथी. अरे, मारो आत्मा आत्मानी
भावना वगर अनादिकाळनी चारगतिना घोर दुःख भोगवी रह्यो छे, तेनाथी हवे मारो
छूटकारो केम थाय? –एम विचारीने धर्मी तो देहादिथी भिन्न पोताना आत्मानी ज
भावना भावे छे, ने तेमां ज एकाग्र थवानो अभ्यास करे छे. आत्मामां एकाग्रतानो
अभ्यास ज मोक्षनुं कारण छे. ए सिवाय परना अवलंबने श्रवण–मनन के धारणा ते
मोक्षनुं कारण नथी, ते तो मात्र विकल्प छे–राग छे. ने जो ते रागथी संवर–निर्जरारूप
धर्म थवानुं माने तो ते मिथ्याद्रष्टि छे; तेने रागनो अभ्यास छे पण आत्मानो अभ्यास
नथी. अरे जीव! श्रवण करवानो के बीजाने श्रवण कराववानो रागभाव ते आत्मा नथी
ने वाणीनो धोध वछूटे तेमां पण आत्मा नथी, आत्मा तो ज्ञानानंदस्वरूप छे, –एम
ओळखीने अंतर्मुख ज्ञानानंद स्वभावनो अनुभव कर. ज्ञायकस्वरूपमां जेटली
एकाग्रता कर तेटलुं तारुं हित छे, ने ते ज मोक्षनुं कारण छे. वाणी के वाणी तरफनो
विकल्प ते कोई तने शरणरूप नहि थाय. तीर्थंकर परमात्मानी दिव्यध्वनि गणधरदेव
सांभळे छतां तेमने पण ते वाणी तरफनो जे विकल्प छे ते तो राग छे, ते कांई धर्म
नथी; पण अंतरमां रागरहित वीतरागी लीनता वर्ते छे ते ज धर्म छे ने ते ज मोक्षनुं
कारण छे. जुओ, संतो पोते एम कहे छे के हे जीव! अमारी वाणी तरफना वलणथी
तारुं हित नथी, तारुं हित तारा ज्ञायकस्वरूपमां वलणथी ज छे, माटे तुं तारा
स्वभावमां अंतर्मुख थईने तेनी श्रद्धा–ज्ञान कर, ने तेनो वारंवार अभ्यास करीने तेमां
एकाग्रथा, –आवा स्व–अभ्यासथी ज तारी मुक्ति थशे. ।। ८१।।
अंतरात्माए देहथी भिन्न आत्मानी केवी भावना करवी ते हवे कहेशे.

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: फागण : २४९३ आत्मधर्म : ११ :
मूर्छित आत्माने सजीवन करनारी शक्ति
आत्मानी जीवत्व वगेरे शक्तिओना विवेचन द्वारा गुरुदेवे ज
अद्भुत ‘आत्मवैभव’ देखाड्यो छे, तेनो थोडोक नमूनो जिज्ञासुओने
जरूर गमशे. (आत्मवैभव पुस्तक धीमे धीमे छपाई रह्युं छे.
अहो, आत्मानी शक्तिनी आ वात! –ते उत्साहथी सांभळतां अनादिनी मूर्छा
ऊतरी जाय–एवी छे. पुराणमां विशल्यानी वात आवे छे, –ते नजीक आवतां ज
लक्ष्मणनी मूर्छा दूर थवा लागी; तेम शल्यरहित एवी वि–शल्या ज्ञानपरिणति ज्यां
प्रगटी त्यां बधा गुणोमांथी मिथ्यापणानी मूर्छा ऊतरी गई ने बधा गुणो स्वशक्तिनी
संभाळ करता जाग्या. विशल्या पूर्वभवमां चक्रवर्तीनी पुत्री हती; एकवार जंगलमां
अजगर तेने गळी गयो; तेनुं अडधुं शरीर अजगरना मुखमां ने अडधुं बहार हतुं.
अजगरना मोढामांथी तेने छोडाववा चक्रवर्तीए धनुष्यबाण तैयार कर्या, पण
विशल्याना जीवे तेने अटकावतां कह्युं–पिताजी! हुं तो हवे बचवानी नथी, मारा खातर
अजगरने न मारशो. आ प्रकारना शुभ परिणामना फळमां ते विशल्याने एवी ऋद्धि
हती के तेना स्नानना जळना छंटकावथी गमे तेवुं विष के मूर्छा ऊतरी जाय. आ
विशल्या ते लक्ष्मणनी पत्नी थनार हती. ज्यारे राजा रावण साथेना युद्धमां रावणनी
शक्तिना प्रहार वडे लक्ष्मण मूर्छित थईने ढळी पड्या ने चारेकोर हा–हाकार थई गयो;
रामचंद्र पण हताश थई गया; हनुमान वगेरे मोटामोटा विद्याधर राजकुमारो पण बेठा
हता. जो सवार सुधीमां आनो उपाय न मळे तो लक्ष्मणना जीववानी आशा न हती.
अंते कोईए उपाय बताव्यो के जो ‘विशल्यादेवी’ ना स्नाननुं जळ छांटवामां आवे तो
लक्ष्मण बची जाय. पछी तो तरत ज विशल्याने तेडावी; ते नजीक आवतांवेंत लक्ष्मणने
लागेली रावणनी शक्ति भागी, ने लक्ष्मणजी पोतानी शक्ति सहित जाग्या. तेम
चैतन्यलक्षणी लक्ष्मण एवो आ आत्मा, ते अनादिथी निजशक्तिने भूलीने
मोहशक्तिथी बेभान बन्यो छे, पण ज्यां शल्यथी विरहित एवी निःशल्य–निःशंक
श्रद्धारूपी सम्यक्त्वशक्ति जागी त्यां मोहशक्तिओ भागी, ने चैतन्यलक्षी भगवान
आत्मा पोतानी अनंत

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: १२ : आत्मधर्म : फागण : २४९३
शक्तिओनां सम्यक् परिणमनथी जागी ऊठ्यो. अज्ञानमां आत्मशक्ति मूर्छाई गई
हती, पण ज्ञानपरिणति शल्यरहित थईने ज्यां जागी त्यां तो मूर्छा भागी ने
अनंतशक्तिना टंकार करतो आत्मा जागी ऊठ्यो, ने पोतानी प्रभुताना सामर्थ्यथी
विभावरूपी रावणनो नाश कर्यो.
हे जीव! आवी आत्मशक्तिओ ओळखावीने सन्तो तने जगाडे छे. तारुं
आत्मद्रव्य कोई बीजाना आधारथी टकेलुं नथी, पण तारी पोतानी जीवत्वशक्तिथी ज
आत्मा सदाय जीवपणे टके छे; आ जीवत्वशक्ति आत्माने कदी अजीव थवा देती नथी,
तेने जीवपणे सदा जीवतो राखे छे.
ज्ञान–दर्शन–सुख ने सत्ता, ते आत्माना भावप्राण कहेवामां आव्या छे.
आत्माना स्वभावमां द्रव्य–गुणपणे तो ते त्रिकाळ छे, ने पर्यायमां ते सम्यक्पणे प्रगटे
तेनी आ वात छे. त्रिकाळी स्वभावमां छे तेनुं लक्ष करतां पर्यायमां पण तेनुं सम्यक्पणे
परिणमन थई जाय छे. ‘ज्ञानमात्रभाव’ एटले अनंत शक्तिवाळो आत्मा, तेनी
सन्मुख थईने तेनुं ज्ञान करतां द्रव्य–गुण जेवुं जीवन पर्यायमां प्रगटे छे. अनंतकाळथी
पर्यायमां जे जीवन न हतुं ते प्रगट्युं, ने अनंतकाळथी जे भावमरण थतुं हतुं ते टळ्‌युं.
अनंतागुणो पर्यायमां जीवत्वरूप थया, सम्यक्पणे प्रगट्या.
अहो, अंतरना पडखा खोलीने चैतन्य परमात्माने देखवानी आ वात छे. जेने
आत्मानी गरज होय ने भवनो भय होय तेने माटेनी आ वात छे. आत्मामां भरेलो
सहज अद्भुत चैतन्यवैभव खुल्लो करीने संतोए आ समयसारमां देखाड्यो छे.
ज्ञाननी पर्यायने अंतर्मुख करीने ए परम अद्भुत आत्मवैभव वेदाय छे.
जुओ, आ वीतरागी सन्तोनी वाणी! आ ‘आत्मभाषा’
छे. भाषा तो जोके जड छे पण आत्माना अनुभवनुं निमित्त लईने
नीकळेली सन्तोनी भाषा ते ‘आत्मभाषा’ छे. आत्मानुं भान थतां
बधा गुणोमां नवुं जीवन प्रगट्युं, अनंतगुणो जीवता थया.
पहेलांय ते हता तो खरा पण द्रष्टि वगर तेनुं फळ आवतुं न हतुं,
हवे तेनुं सम्यक्परिणमन थतां फळ आव्युं. एटले निर्मळ पर्याय
प्रगटी तेमां आत्मानुं खरूं जीवन छे.

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: फागण : २४९३ आत्मधर्म : १३ :
भगवान ऋषभदेव
तेमना पवित्र जीवननी आनंदकारी कथा
भगवत् जिनसेनस्वामी रचित महापुराणना आधारे: ले० ब्र. हरिलाल जैन
(लेखांक ११)
भगवान ऋषभदेवनी पावन जीवनकथा चाली रही छे; दश भव सुधी
धार्मिक संस्कारो वडे आत्माने साधता साधता अंतिम अवतारमां
तीर्थंकरपणे जन्म्या छे. हवे भगवानना राज्यकाळनुं तथा
दीक्षाप्रसंगनुं भावभीनुं वर्णन आप अहीं वांचशो. आ फागणमासमां
ज आ दीक्षाप्रसंग बन्यो हतो.
भगवान ऋषभदेवनुं कुल आयु चोरासीलाख पूर्वनुं हतुं; तेमांथी कुमारकाळना
वीशलाख पूर्व पूरा थया. ते वखते काळना प्रभावथी (–त्रीजो आरो पूरो थईने चोथो
आरो नजीक आवतो हतो तेथी) कल्पवृक्षो सुकावा मांड्या, तेमनी शक्ति घटी गई,
वगर वाव्ये जे अनाज ऊगता ते पण दुर्लभ थई गया ने प्रजामां रोग वगेरे थवा
लाग्या; तेथी भयभीत थईने जीववानी आशाथी प्रजाजनो नाभिराजा पासे आव्या.
अने नाभिराजाए तेमने भगवान ऋषभदेव पासे मोकल्या.
सनातन–भगवानना शरणे आवीने प्रजाजनो कहेवा लाग्या के हे देव!
पितासमान अमारुं पालन करनारां कल्पवृक्षो हवे नष्ट थई गयां, भूख–तरस ने ठंडी–
गरमीना अनेक उपद्रव थवा लाग्या; तो आ उपद्रवथी अमारी रक्षा थाय ने अमारी
आजीविका चाले एवो उपदेश आपो, ने अमारा पर प्रसन्न थाओ.
प्रजानां दीनवचनो सांभळीने भगवानना हृदयमां दया जागी, तेमणे भयभीत
प्रजाने आश्वासन आप्युं ने मनमां विचारवा लाग्या के, कल्पवृक्षो नष्ट थतां अहीं हवे
भोगभूमिनो काळ पूरो थईने कर्मभूमि शरू थई छे. तेथी असि–मसि–कृषि (अर्थात्
रक्षण–वेपार–खेती –लेखन) वगेरे कार्योनी तथा जुदा जुदा गाम–घर वगेरेनी जेवी
रचना पूर्व अने पश्चिम विदेहक्षेत्रमां वर्ते छे तेवी अहीं प्रवर्ताववी योग्य छे–जेथी
लोकोनुं रक्षण अने आजीविका सुखपूर्वक थाय.

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: १४ : आत्मधर्म : फागण : २४९३
एम विचारीने भगवाने ईन्द्रने याद कर्या के तरत ज ईन्द्रो अने देवो आवी
पहोंच्या, अने भगवाननी आज्ञा मुजब उत्तम मुहूर्तमां सौथी पहेलां मांगलिक कार्य
करीने अयोध्यापुरीनी वचमां मोटा जिनमंदिरनी रचना करी, तथा चारे दिशामां पण
एकेक जिनमंदिरनी रचना करी. पछी सुकोशल, अवंती, वत्स, पंचाल, मालव, रम्यक,
कुरु, काशी, कलिंग, अंग, बंग, काश्मीर, कच्छ, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, विदर्भ, कुरुजांगल,
कोंकण, वनवास, आंध्र, कर्णाट, कौशल, केरल, शूरसेन, विदेह, सिन्धु, गांधार, कम्बोज,
केकय वगेरे अनेक देशोनी तथा गाम–नगरनी रचना करी. विजयार्धपर्वतथी मांडीने
दक्षिण छेडामां लवणसमुद्र सुधीना ते देशोमां प्रजाजनोने वसावीने राजव्यवस्था करी.
ईन्द्रे पुर–नगरनी रचना करी तेथी ‘पुरंदर’ एवुं तेनुं नाम सार्थक थयुं.
भगवाने प्रजाजनोने शस्त्र–लेखनी–विद्या–वेपार–खेती अने शिल्प ए छ कार्यो
द्वारा आजीविकानो उपदेश आप्यो, केमके भगवान हजी सरागी हता, वीतराग न हता.
आ रीते भगवाने छ–कर्मना उपदेशवडे कर्मयुगनो प्रारंभ कर्यो तेथी तेओ ‘कृतयुग’
अथवा ‘युगकर्ता’ कहेवाया, ने तेओ ज सृष्टिना ब्रह्मा कहेवाया. ए सिवाय बीजुं कोई
ब्रह्मा के सृष्टिकर्ता नथी. आ बधी रचना अषाड वद एकमना दिवसे थई. आ रचना
वडे प्रजानुं पालन कर्युं तेथी भगवान ‘प्रजापति’ कहेवाया. प्रजा सुखथी रहेवा लागी.
थोडा वखत पछी ईन्द्र वगेरे देवोए आवीने भगवानने सम्राटपदे स्थाप्या ने
मोटो राज्याभिषेक कर्यो; तेथी आखी पृथ्वी प्रभावित थई. ते वखते अयोध्यापुरीनी
शोभा अद्भुत हती. रत्नोनी रंगोळीथी शोभता श्रेष्ठ आनंद–मंडपमां, तीर्थोना पवित्र
जळथी भरेला सुवर्णकळशवडे भगवाननो अभिषेक कर्यो. हिमवत् पर्वत परथी गंगा
अने सिंधु नदीना जळनी धारा पडती हती तेने वच्चेथी ज, (जमीन पर पड्या
पहेलां) झीलीने तेनावडे अभिषेक थयो हतो. श्री–ह्री वगेरे देवीओ पण पद्म वगेरे
सरोवरमांथी पवित्र पाणी लावी हती; लवणसमुद्रनुं श्रेष्ठ जळ तेमज नंदीश्वरद्वीपनी
नंदोत्तरा वगेरे वावडीनुं, क्षीरसमुद्रनुं, नंदीश्वरसमुद्रनुं, ने असंख्य योजन दूर एवा
स्वयंभूरमणसमुद्रनुं पण जळ सोनाना दिव्यकळशोमां भरी भरीने देवो लाव्या हता, ने
तेनावडे जगतगुरु भगवान ऋषभदेवनो अभिषेक कर्यो हतो. भगवाननुं शरीर तो
स्वयं पवित्र हतुं; एटले ते जळवडे भगवाननुं शरीर पवित्र

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: फागण : २४९३ आत्मधर्म : १प :
न्होतुं थयुं परंतु भगवानना शरीरना स्पर्शनवडे ते जळ पवित्र बन्युं हतुं. आ
ऋषभदेव बधा राजाओमां सौथी श्रेष्ठ राजा छे एम स्वीकारीने नाभिराजा वगेरे मोटा
मोटा राजाओए एक साथे अभिषेक कर्यो, तेमज अयोध्याना प्रजाजनोए पण
सरयूनदीनुं जळ भरीने भगवानना चरणोनो अभिषेक कर्यो. भरतक्षेत्रना
व्यन्तरदेवोना ईन्द्रोए (मागधदेव वगेरेए) पण ‘आ भगवान अमारा देशना स्वामी
छे’ एम समजीने प्रीतिथी अभिषेक कर्यो; अभिषेक पछी स्वर्गलोकथी लावेला
वस्त्राभूषण पहेराव्या, अने नाभिराजाए पोताना मस्तक परनो महामुगट उतारीने
भगवानना मस्तके पहेराव्यो; ने ईन्द्रे ‘आनंद’ नामना नाटकवडे पोतानो आनंद
व्यक्त कर्यो.
भगवान ऋषभ–राजाए प्रजानुं सारी रीते पालन कर्युं ने दरेक वर्ग पोतपोताने
योग्य कार्योद्वारा आजीविका करे एवा नियम बांध्या, तथा प्रजाना योग तथा क्षेमनी
(एटले के नवीन वस्तुनी प्राप्ति तथा मळेली वस्तुनुं रक्षण–तेनी) व्यवस्था करी; ने
‘हा! मा! तथा धिक्’ एवा दंडनी व्यवस्था करी. तथा हरि (हरिवंश) अकंपन
(नाथवंश) काश्यप (उग्रवंश) अने सोमप्रभ (कुरुवंश)–ए चार क्षत्रियोने
महामांडलिक राजा बनाव्या, ने, तेमनी नीचे बीजा चार हजार राजाओ हता. भगवाने
पोताना पुत्रोने पण यथायोग्य महेल, सवारी वगेरे संपत्ति आपी. ते वखते भगवाने
लोकोने शेरडीनारसनो (ईक्षु–रसनो) संग्रह करवानुं कह्युं तेथी तेओ ईक्ष्वाकु कहेवाया.
भगवान ऋषभदेवनो राज्यकाळ ६३ लाख पूर्वनो हतो; पुत्र–पौत्रोनी साथे
एटलो लांबो काळ जोतजोतामां वीती गयो. ईन्द्र तेमने माटे स्वर्गमांथी पुण्यसामग्री
मोकलतो हतो.–आ संसारमां पुण्यथी शुं प्राप्त नथी थतुं? पुण्य वगर सुखसामग्री
मळती नथी. दान, संयम, क्षमा, सन्तोष वगेरे शुभ चेष्टावडे पुण्यनी प्राप्ति थाय छे.
संसारमां तीर्थंकरपद सुधीना उत्तम पदनी प्राप्ति पुण्य वडे ज थाय छे. हे पंडितजनो!
श्रेष्ठ सुखनी प्राप्ति अर्थे तमे धर्मनुं सेवन करो. वास्तविक सुखनी प्राप्ति थवी ते धर्मनुं
ज फळ छे. हे सुबुद्धिमान! तमे सुख चाहता हो तो श्रेष्ठ मुनिओने भक्तिथी दान दो,
तीर्थंकरोने नमस्कार करीने तेमनी पूजा करो, शील–व्रतोनुं पालन करो अने पर्वना
दिवसोमां उपवासादि करो, शास्त्रस्वाध्याय करो...साधर्मीनी सेवा करो.

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: १६ : आत्मधर्म : फागण : २४९३
आ रीते, पूर्वना आराधकपुण्यना प्रतापे सूर्य–चंद्र वगेरे उत्तम देव–देवेन्द्रो पण
जेमनी आज्ञा शिरोधार्य करता हता, पण जेमना उपर कोईनी आज्ञा चालती न हती
एवा भगवान ऋषभदेवे अयोध्याना राजसिंहासन उपर आरूढ थईने समुद्रपर्यन्त
समस्त पृथ्वीनुं राज्य कर्युंर्.
वैराग्य अने दीक्षा
अयोध्यानगरी...ने फागण वद नोम...
भगवान ऋषभदेवनो जन्मदिवस आनंदथी उजवाई रह्यो छे. ए उत्सवमां
भाग लेवा ईन्द्र पण अप्सराओने लईने आवी पहोंच्या ने भगवानने प्रसन्न करवा
माटे नृत्य प्रारंभ कर्युं. अप्सराओनुं अद्भुत नृत्य भगवान नीहाळी रह्या हता.
ए वखते ईन्द्रने विचार आव्यो के भगवान ऋषभदेव तीर्थंकर थवा अवतर्या
छे ने धर्मचक्रनुं प्रवर्तन करनारा छे. तेमने आ राजवैभवमां ८३ लाख पूर्व तो वीती
गया; हवे आ राज्य अने भोगोमांथी भगवान क्या प्रकारे विरक्त थाय! आम
विचारीने ते नृत्यकारोमां तेणे नीलांजना नामनी एक एवी देवीने नीयुक्त करी के जेनुं
आयुष्य थोडी क्षणोमां ज पूरुं थवानुं हतुं. ते नीलांजना देवी हाव–भावसहित फूदरडी
नृत्य करी रही हती, नृत्य करतां करतां ज तेनुं आयुष्य पूरुं थतां क्षणभरमां ते अद्रश्य
थई गई. वीजळीना झबकारानी माफक ते देवी अद्रश्य थतां, रंगमां भंग न थाय ते
माटे तरत ज ईन्द्रे एना जेवी ज बीजी देवीने नृत्यमां गोठवी दीधी.–परंतु दिव्य
ज्ञानवंत भगवान ते जाणी गया, ने संसारनी आवी अध्रुवता देखीने तत्क्षण ज भव–
तन–भोगथी अत्यंत विरक्त थया ने वैराग्यनी बार भावनाओ चिन्तववा लाग्या.
अरे, आ जीवे संसारमां चार गतिमां भयंकर दुःखो भोगव्या. आ मनोहर
देवीनुं शरीर पळवारमां नजर सामे ज नष्ट थई गयुं. आवुं जे माया–नाटक ईन्द्रे कर्युं ते
खरेखर तो मने प्रतिबोध पमाडवा माटे ज ते बुद्धिमाने युक्ति करी छे. आ
नीलांजनादेवीना दिव्य शरीरनी जेम जगतना बधा पदार्थो क्षणभंगुर छे, एनाथी हवे
मारे शुं प्रयोजन छे? ए भोगोपभोग तो भाररूप छे. आवा असार संसारने अने
क्षणिक राजभोगने धिक्कार हो. आ राजभोगने खातर मारो अवतार नथी, परंतु
आत्मानी पूर्णताने साधीने तीर्थंकर थवा मारो अवतार छे.

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: फागण : २४९३ आत्मधर्म : १७ :
आ प्रमाणे वैराग्यचिन्तनपूर्वक भगवान आ असार संसारथी विरक्त थया, ने
शीघ्र मुक्तिने साधवा माटे उद्यमी थया. ए वखते भगवानने एवी विशुद्धी प्रगटी–जाणे
के मुक्तिनी सखी ज आवी पहोंची. मोक्षमां ज जेमनुं चित्त लागेलुं छे एवा ते
भगवानने आखुं जगत शून्य जेवुं असार लागतुं हतुं. भगवानना अंतःकरणनी
समस्त चेष्टाओ उपरथी ईन्द्रे अवधिज्ञानवडे जाणी लीधुं के भगवान हवे संसारथी
विरक्त थई गया छे ने मुनिदशा माटे तत्पर थया छे.
तरत ज ब्रह्मस्वर्गमांथी लोकांतिक देवो भगवानना तपकल्याणकनी पूजा करवा
ऊतर्या; ने स्तुतिपूर्वक वैराग्यनुं अनुमोदन कर्युं. आठ प्रकारना ते लोकान्तिकदेवो
पूर्वभवमां संपूर्ण श्रुतज्ञानना अभ्यासी (श्रुतकेवळी) होय छे, घणा शान्त ने सर्व
देवोमां उत्तम होय छे, तथा एकावतारी होय छे, लोकनो अंत पाम्या होवाथी अथवा
ब्रह्मलोकना अंतमां रहेता होवाथी तेओ लोकान्तिक कहेवाय छे. मुक्तिसरोवरना किनारे
रहेला ते देवो स्वर्गना हंस जेवा छे. तेमणे आवीने कल्पवृक्षनां फूलोवडे भगवानना
चरणोमां पुष्पांजलि चढावी ने स्तुति करी के हे भगवान! मोहशत्रुने जीतवा माटे आप
उद्यमी थया छो ते एम सूचवे छे के भव्यजीवो प्रत्ये भाईपणानुं कार्य करवानो आपे
विचार कर्यो छे. अर्थात् भाईनी जेम भव्य जीवोनी सहायता करवानो आपे विचार
कर्यो छे. हे ज्योतिस्वरूप देव! अमे आपने समस्त उत्तम कार्योना कारण समजीए
छीए. प्रभो, केवळज्ञानना प्रकाशवडे आप अज्ञानमां डुबेला संसारनो उद्धार करशो.
आपे देखाडेला धर्मतीर्थने पामीने भव्यजीवो आ दुस्तर संसारसमुद्रने रमतमात्रमां
तरी जशे. आपनी वाणी भव्यजीवोना मनने प्रफुल्लित करशे. प्रभो! आप धर्मतीर्थना
नायक छो. मोहरूपी कीचडमां फसायेला आ जगतने धर्मरूपी हाथनो सहारो दईने आप
शीघ्र उद्धार करशो. प्रभो! आप स्वयंभू छो, मोक्षनो मार्ग आपे स्वयं जाणी लीधो छे
ने अमने बधाने पण आप ते मुक्तिमार्गनो उपदेश देशो. प्रभो! अमे तो आपने
प्रेरणा करनारा कोण? आ तो मात्र अमारो नियोग छे. आ भव्यचातको मेघनी माफक
आपना धर्मामृतनी राह जुए छे. प्रभो! अत्यारनो काळ आपना धर्मरूपी अमृतने
उत्पन्न करवा माटे योग्य छे, माटे हे विधाता! धर्मनी सृष्टि करो. प्रभो! अनेकवार
भोगवाई चुकेला भोगोने हवे आप छोडो. फरीफरीने गमे तेटली वार भोगववा छतां
ए भोगोना स्वादमां कांई नवीनता आवी जती नथी; माटे ते भोगने छोडीने मोक्षने
माटे ऊठो ने उद्यमवडे मोहशत्रुने जीतो.