Atmadharma magazine - Ank 281
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 2 of 53

background image
२८१
धर्मीनुं चित
हे जीव! त्रणलोकनो राजा एवो पोतानो आत्मा छे
तेने तुं आदरणीय जाण; ए महासुंदर ने सुखरूप छे.
जगतनो सर्वोत्कृष्ट राजा एवा आत्माने तुं स्वानुभवगम्य
कर. तारो आत्मराजा ज तने आनंद देनार छे, बीजुं कोई
तने आनंद देनार नथी. आत्मानो आनंद जेणे अनुभव्यो
छे ते धर्मात्मानुं चित्त बीजे क्यांय ठरतुं नथी, फरीफरीने
आत्मा तरफ ज वळे छे. आत्मानुं अस्तित्व जेमां नथी,
आत्मानुं सुख जेमां नथी, आत्मानुं जीवन जेमां नथी,
एवा परद्रव्योमां धर्मीनुं चित्त केम चोंटे? आनंदनो समुद्र
ज्यां देख्यो छे त्यां ज धर्मीनुं चित्त चोंटयुं छे.
तंत्री : जगजीवन बावचंद दोशी संपादक : ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २४९३ फागण (लवाजम : त्रण रूपिया) वर्ष २४ : अंक प