Atmadharma magazine - Ank 281
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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एक मोटी दुकान
[ दुकान ज्ञानीए जोई खरी, पण लीधुं नहीं कांई ]
एक मोटी दुकानमां अनेकविध तरेहतरेहनो माल भर्यो हतो. एक माणसे
ते दुकान जोई; बधुं जोया बाद तेणे सन्तोष व्यक्त करीने जवा मांड्युं. त्यारे
दुकानदार कहे छे के कांईक खरीद तो करो!
ते माणसे कह्युं: भाई, तमारी दुकान सारी छे पण मारे आमांथी कोई वस्तुनी
जरूर नथी, तेथी हुं ते लईने शुं करुं.
तमे दुकाननी प्रशंसा करो छो परंतु खरीदता तो कांई नथी! –एम कह्युं, त्यारे ते
कहे छे के सांभळ भाई!
धारो के तमे एक दवानी दुकान जोवा गया, बधी जातना रोगनी ऊंचामां ऊंची
दवाओ त्यां जोईने तमे सन्तोष व्यक्त कर्यो. परंतु तमे तेमांथी कोई ज दवा खरीद न
करी, केमके तमने कोई ज रोग न होवाथी तमारे दवानी जरूर न हती. तो ते उत्तम? के
तमारे दवा लेवी पडे ते उत्तम?
दवा न लेवी पडे ते उत्तम, केमके ते नीरोगता सूचवे छे.
तेम आ जगतरूपी जे मोटी दुकान, ते जड–चेतन समस्त पदार्थोथी भरेली छे,
बधी वस्तुओ पोतपोताना स्वरूपमां शोभी रही छे. त्यां जेने ईच्छारूपी रोग लागु
पड्यो छे ते तो परपदार्थोने सुखहेतुथी ग्रहण करवा मांगे छे. पण ज्ञानी तो कहे छे के हुं
मारा स्वरूपथी परिपूर्ण छुं, मारा स्वरूपथी ज हुं तृप्त ने संतुष्ट छुं, ईच्छारूपी रोग ज
मने नथी, पछी हुं परद्रव्यना ग्रहणने शुं करुं? दवा भले गमे तेवी ऊंची होय पण जेने
रोग ज नथी तेने तेनुं शुं प्रयोजन छे? तेम पदार्थो भले गमे तेवा होय पण जेने
ईच्छा ज नथी तेने तेनुं शुं प्रयोजन छे? ते तो मात्र ज्ञान करीने ज संतुष्ट थाय छे.
तेनुं ज्ञान नीरोग छे–आकुळता वगरनुं छे; ने आवुं नीरोग–नीराकुळ ज्ञान ते ज सुख
छे. ज्ञानमां तृप्त एवो ते जीव जगतना पदार्थोने जाणे छे पण तेमांथी कोईने ग्रहवा
ईच्छतो नथी. पोतामां जे अतृप्त होय ते ज बीजाने ग्रहवा ईच्छे. पर ग्रहणनी जेने
ईच्छा छे ते दुःखी छे, स्वरूपमां जे तृप्त छे ते सुखी छे.