: ३० : आत्मधर्म : फागण : २४९३
(ता. ३–४ मार्च : लाडनु शहेरना प्रवचननी प्रसादी)
जीवे अनादिकाळथी पोताना शुद्ध ज्ञानस्वरूपनो अनुभव कर्यो नथी, रागथी
भिन्न तेना स्वादने जाण्यो नथी. तेणे अनादिथी शुं कर्युं? के रागना विकारी स्वादने
पोतानो मानीने अनुभव्यो छे. अहीं भगवान कुंदकुंदस्वामी कहे छे के भाई, रागनो
स्वाद ते तारो स्वाद नथी, तारो स्वाद तो आनंदरूप छे, चैतन्यरूप छे. कुंदकुंदाचार्यदेव
विदेहक्षेत्रमां सीमंधर परमात्माना समवसरणमां पधार्या हता, ने तेमनी वाणी
सांभळीने तेमणे आ समयसार शास्त्र रच्युं छे. तेमां कहे छे के आत्माना स्वरूपमां
ज्ञान–आनंदनी पूर्ण ताकात भरी छे, तेना अनुभव विना तुं रागना स्वादने तारामां
मिश्रित करी रह्यो छे. जडनो स्वाद तो अत्यंत जुदो छे, ने रागनो स्वाद पण तारा
चैतन्यना मधुर स्वादथी जुदो छे. अरे जीव! आ तारा चैतन्यस्वादनी वात संतो तने
समजावे छे.–भाई, बहारनी ने रागनी वात तो तें अनंतवार सांभळी, तेनो प्रेम कर्यो,
पण चैतन्यनी वात तें प्रेमथी कदी सांभळी नथी. माटे एवा दुर्लभ चैतन्यस्वरूपनी
वात समजवानो आ अवसर छे. आत्मानुं भान थतां ते ज क्षणे अपूर्व आनंदनो
अनुभव थाय छे ने आत्मामां मोक्षना भणकारा आवी जाय छे. आवा आत्मभान
विना बीजुं बधुं एकडा वगरना मींडां जेवुं व्यर्थ छे. अशुभ ने शुभरागनी वात तो
अनंतकाळथी तें सांभळी छे ने अनुभवी छे, तेमां कांई धर्म नथी; पण ए रागथी पार
चैतन्यतत्त्व शुं छे तेने अनुभवमां ले तो अपूर्व धर्म थाय. एक क्षणनो धर्म जरूर मोक्ष
आपे. पण ए धर्मनी रीत शुं छे ते जीव समज्यो नथी ने रागनी क्रियाने धर्म मान्यो
छे. भाई, धर्म कहो के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र कहो, तेमां तो आत्मानो अतीन्द्रिय
आनंद छे. धर्मीने आवा आनंदनो अनुभव थाय छे. तारुं आनंदमय निजघर–के जेमां
रागनो कदी प्रवेश नथी, ते निजघर सन्तो तने ओळखावे छे. अरे, आवुं मनुष्यपणुं
पामीने जो तें तारुं निजघर न जोयुं ने आत्मज्ञान न कर्युं तो तें कांई कर्युं नथी, तारुं
मनुष्यपणुं आत्मज्ञान वगर निष्फळ चाल्युं जशे. माटे, आत्मानी रुचि करीने आ वात
समजवा जेवी छे.