Atmadharma magazine - Ank 282
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 27 of 41

background image
: २४ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९३
मंदिरमां, मानस्तंभमां, समवसरणमां आपणे सीमंधर भगवानने पधराव्या छे.
अहींना सीमंधर भगवाननी प्रतिष्ठाने प१६ वर्ष थया; प१६ वर्षे आजे सोळआनी
प्रसंग भजी गयो. भगवानना ज्ञानमां ए बधुंय देखाय छे. भगवाननी सर्वज्ञतानो
स्वीकार करीने पोतामां सिद्धने स्थापीने जेणे मंगळ कर्युं ते हवे आगळ वधीने सिद्ध
थई जशे. –आ रीते सिद्ध प्रभुनो आदर करीने तेमना जेवा पोताना शुद्धस्वरूपने
ध्याववुं ते सिद्धपदनी प्राप्तिनो उपाय छे.
हुं कोण छुं?
संसारनी चारे गतिमां दुःख छे ने आत्मज्ञान विना अत्यार
सुधी जीव एकलुं दुःख ज पाम्यो छे, हवे हुं ते दुःखोथी छूटवा ने
परम आनंदनी प्राप्ति करवा मारा परम आत्मस्वरूपने जाणुं. –आम
जेने जिज्ञासा थई होय ते आत्मस्वरूपनो निर्णय करे. मारुं
अस्तित्व केवुं छे, मारा अस्तित्वमां सामर्थ्य केटलुं छे? परमां तो
मारुं अस्तित्व नथी. हवे जे रागादि भावो दुःखरूप छे–तेना जेटलुं
ज शुं मारुं अस्तित्व छे? ना. ए रागनी वृत्तिथी पार, दुःख वगरनुं,
मारुं कायमी अस्तित्व छे, –के जेमां पूर्ण सुख ने पूर्ण ज्ञाननुं सामर्थ्य
भर्युं छे. एना सेवनथी ज केवळज्ञानने सिद्धपद प्रगटे छे. मारो
स्वभाव सुखथी भरेलो छे, तेना सेवनथी ज सुखनो अनुभव
प्रगटे. –आवा सम्यक्निर्णय वडे स्वसंवेदनथी अतीन्द्रिय आनंदने
धर्मीजीव अनुभवे छे.