: ३४ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९३
छे. परम उदासीनतारूप निर्विकल्प अवस्थामां जेम स्व–पर संबंधी विकल्पो त्याज्य छे
तेम व्रत संबंधी पण विकल्पो त्याज्य छे एम हवे कहे छे.
अपुण्यमव्रतैः पुण्यं व्रतैमोंक्षस्तयोर्व्ययः ।
अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ।। ८३ ।।
अव्रतथी पाप छे, ने व्रतथी पुण्य छे; ते बंनेना व्ययथी मोक्ष थाय छे. माटे
अव्रतनी जेम व्रतने पण मोक्षार्थी छोडे छे.
जुओ, आमां पूज्यपाद स्वामी स्पष्ट कहे छे के व्रतनो शुभराग ते पुण्यबंधनुं
कारण छे, ते मोक्षनुं कारण नथी माटे मोक्षार्थीए तो ते पण छोडवा जेवो छे. ते ते
भूमिकामां अव्रत छोडीने व्रतनो शुभराग धर्मीने आवे ते जुदी वात छे, पण जो तेने ते
हेय न माने ने तेनाथी लाभ थवानुं माने तो तो श्रद्धा ज ऊंधी थई जाय छे एटले
मिथ्यात्व थाय छे, मिथ्याद्रष्टिनेतो यथार्थ व्रत पण होतां नथी. अहीं तो भेदज्ञान पछी
धर्मीने व्रतादिनो भाव आवे छे तेनी वात छे; ते धर्मी जाणे छे के जेम में अव्रत छोड्या
तेम आ व्रतना विकल्पोने पण ज्यारे हुं छोडीश त्यारे मारी मुक्ति थशे. आ व्रतना
विकल्पो मने मुक्तिना हेतु नथी.
जुओ, जेम भावपाहुडनी ८३ मी गाथामां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे स्पष्ट कह्युं
छे के व्रतादिमां पुण्य छे, –ने धर्म तो जुदी चीज छे; तेम अहीं पण ८३ मी गाथामां
पूज्यपादस्वामी स्पष्ट कहे छे के मोक्षार्थीए अव्रतनी जेम व्रत पण छोडवा योग्य छे,
केमके व्रतनो विकल्प ते पुण्यबंधनुं ज कारण छे, ते कांई मोक्षनुं कारण नथी. अहो!
बधा संतोए एक ज वात करी छे. जेवुं वस्तुस्वरूप छे तेवुं ज बधाय संतोए प्रसिद्ध
कर्युं छे. संतोए आटली स्पष्ट वात समजावी होवा छतां मूढ जीवो रागनी रुचिथी एवा
आंधळा थई गया छे के तेमने सत्य वस्तुस्वरूप देखातुं नथी. शुं थाय? कांई कोई एने
पराणे समजावी द्ये एम छे?
श्रीमद् राजचंद्र पण आत्मसिद्धिमां कहे छे के–
वीत्यो काळ अनंत ते कर्म शुभाशुभ भाव;
तेह शुभाशुभ छेदतां ऊपजे मोक्षस्वभाव.
जुओ, शुभ करतां करतां मोक्ष थाय एम नथी कह्युं, पण शुभ–अशुभ बंनेने
छेदवाथी मोक्ष थाय छे–एम स्पष्ट कह्युं छे. धर्मात्मा चैतन्यस्वभावमां एकाग्र थईने
ज्यां आनंदमां लीन थाय छे त्यां व्रतादिना शुभविकल्प पण छूटी जाय छे, ने मुक्ति
थाय छे. माटे अंतरात्मा व्रतादिना विकल्पने पण छोडीने वीतरागी स्वरूपमां ठरवानी
भावना भावे छे.