: ८ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९३
(२६) आत्मगुणोनां मधुर गीत गाईने जिनवाणी माता आत्माने जगाडे छे.
अरे जीव! तुं जाग ने तारा अनंत गुणनिधानने संभाळ.
(२७) जेम जळमां तेलनो अंदर प्रवेश नथी, ते उपर ने उपर ज तरे छे; तेम
आत्माना शुद्ध चैतन्यजळमां रागादि चीकणा परभावो अंदर प्रवेशता
नथी, पण बहार ज रहे छे. माटे तेनाथी भिन्न तारा चैतन्यतत्त्वने देख.
(२८) भगवान! तारा आवा चैतन्यतत्त्वनी प्रीति तें कदी करी नथी, ने तेनी
वात पण प्रीतिथी सांभळी नथी. परभावनी प्रीति करी छे. एकवार
आत्मानी प्रीति करीने तेनुं श्रवण कर, तो अपूर्व लाभ थाय.
(२९) पांचलाखनी मूडी होवा छतां कोई पचीस लाख कहे तो त्यां लक्ष्मीनी
अधिकता गमे छे, तेथी तेनी ना नथी कहेतो. अहीं सन्तो चैतन्यलक्ष्मीनी
अधिकता बतावे छे के भाई, तारो आत्मा राग जेटलो के अल्पज्ञान
जेटलो नथी, पण अनंत ज्ञान–आनंदरूप चैतन्यलक्ष्मीनो भंडार तारामां
भर्यो छे.–एम तारा चैतन्यनी अधिकता जाण, तो तने परनो प्रेम ऊडी
जशे.
(३०) आत्मा केटलो?–के जेटलुं ज्ञाननुं परिणमन छे तेटलो ज आत्मा छे;
रागादि परभावनुं परिणमन ते खरेखर आत्मा नथी.
(३१) स्वनुं भवन ते स्वभाव छे; आत्मानुं ‘स्व’ तो ज्ञान छे. ते ज्ञाननुं
रागथी भिन्नरूपे परिणमवुं–ते आत्मानो धर्म छे, तेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र समाई जाय छे.
(३२) जेने ज्ञाननी प्रीति छे तेने रागादिनी प्रीति होती नथी, एटले तेनुं ज्ञान
ज्ञानमां ज तन्मयपणे परिणमे छे ने रागमां तन्मय थतुं नथी.–आनुं
नाम भेदज्ञान.
(३३) अज्ञानी राग परिणमनने ज देखे छे, रागथी भिन्न ज्ञाननुं परिणमन तेने
देखातुं नथी, एटले अज्ञानभावे ते रागादिना कर्तापणे ज परिणमे छे.
(३४) ते कर्तृत्व छूटवानो उपाय भेदज्ञान छे. आवा भेदज्ञाननो अभ्यास ते
मुमुक्षुनुं प्रथम कर्तव्य छे.
[विशेष माटे जुओ, पानुं २प]