Atmadharma magazine - Ank 283
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४९३ आत्मधर्म : ७ :
(१९) प्रभो! तारा निधान अपार वैभवथी भरेला छे, जे कदी खूटे नहि.
अहो, आवी वस्तुने जाणतां आत्मा पोते केवळज्ञानना भणकार करतो
जागे छे.
(२०) भाई, आ तारा पोताना आत्म–वैभवनी वात छे; ते झीणी लागे तोपण
लक्षमां लईने समजवानो प्रयत्न करजे. तारो आत्मवैभव लक्षमां लेतां
तने परम आनंद थशे.
(२१) जेम मधुर मोरलीना नादे सर्प डोली ऊठे ने झेरने भूली जाय, तेम
समयसाररूपी मधुर मोरलीना नादे आत्मानुं स्वरूप बतावीने सन्तो
कहे छे के अरे जीव! तुं जाग...तारी आत्मशक्तिने संभाळ, ने
मिथ्यात्वरूपी झेरने उतारी नाख. जेने जाणतां विकाररूपी झेर उतरी
जाय ने आनंदना अनुभवथी आत्मा डोली ऊठे एवुं तारुं स्वरूप तने
बतावीए छीए.
(२२) ज्ञान–आनंदस्वभावथी भरेलो आत्मा, तेना अनुभवथी सर्वज्ञपद जेमणे
प्रगट कर्युं एवा भगवान अर्हन्तदेव, तेमनी वाणी झीलीने अने
आत्मामां अनुभवीने सन्तोए ते वात प्रसिद्ध करी छे.
(२३) आत्माने परद्रव्य साथे ने रागादि साथे कर्ताकर्मनी जे मिथ्याबुद्धि छे ते
संसारनुं कारण छे–एम समजाव्युं. त्यारे जिज्ञासु शिष्य पूछे छे के प्रभो!
अज्ञानथी ऊभी थयेली ए कर्ताकर्मनी मिथ्याबुद्धि क््यारे छूटे? कया
उपायथी ए अज्ञान मटे? ते समजावो.
(२४) आचार्यदेव कहे छे के ज्यारे जीवने भेदज्ञान थाय छे त्यारे एटले के हुं
चैतन्यस्वरूप छुं ने रागादि परभावो चैतन्यथी भिन्न छे–ते हुं नथी एटले
हुं तेनो रचनार नथी–एवुं भिन्नस्वरूपनुं ज्यारे भान छे त्यारे आत्मा ते
परभावोने जरापण पोताना करतो नथी, एटले अज्ञानजन्य कर्ताकर्मनी
बुद्धि छूटी जाय छे; ने त्यारे ज्ञानभावने ज करतो ते आत्मा मोक्षमार्गने
साधे छे.
(२प) दरेक वस्तु पोताना स्वभावथी भरेली होय छे, तेम आत्मा पोताना
चैतन्यस्वभावथी भरेलो छे. तेनुं पोताना चैतन्यभावरूपे थवुं–परिणमवुं
ने रागादिरूपे न थवुं ते धर्म छे.