Atmadharma magazine - Ank 283
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: ६: आत्मधर्म : वैशाख : २४९३
(१३) अज्ञानीने रागथी भिन्न चैतन्यक्रियानी खबर नथी, एटले ते रागादि
परभावनी क्रियाने निजस्वरूप मानीने तेना कर्तृत्वमां अटके छे. ज्ञान
कर्ता ने राग तेनुं कार्य–एवी जे अज्ञानमय कर्ताकर्मनी बुद्धि छे. ते महा
दुःखनुं कारण छे. तेने संसार कहो, अधर्म कहो के पाप कहो. ते केम छूटे
तेनी आ वात छे.
(१४) ज्ञान तो आत्मानुं निजस्वरूप छे, ने रागादि तो आस्रवरूप छे, ते
आत्मानुं निजस्वरूप नथी.–आम बंनेनी भिन्नता आत्मा ज्यारे ओळखे
छे त्यारे ते ज्ञानथी भिन्न एवा रागादि परभावने पोताना स्वरूपमां
जरापण भेळवतो नथी, पण ज्ञानस्वरूपे ज पोताने अनुभवे छे. एटले
ज्ञानमांथी रागादि परभावोनुं कर्तृत्व छूटी जाय छे, ने ज्ञानना अतीन्द्रिय
आनंदनो स्वाद आवे छे.–तेने धर्म कहो, मोक्षनो मार्ग कहो, के सुख कहो.
(१प) शुभराग अने चैतन्यभाव ए बंने जुदा छे, एटले शुभराग वडे
चैतन्यभाव प्रगटे एवुं कारण–कार्यपणुं तेमने नथी, पण चैतन्यस्वभावी
आत्माना आश्रये ज चैतन्यभाव (सम्यग्दर्शनादि) प्रगटे–एवुं कारण–
कार्यपणुं छे.
(१६) चैतन्यनी अस्तिमां रागनी नास्ति, एवुं अस्ति–नास्तिपणुं छे; पण
चैतन्यनी अस्तिमां रागनी पण अस्ति माने तो तेने चैतन्यना साचा
अस्तित्वनी खबर नथी, अनेकान्तनी खबर नथी.
(१७) राग ए कांई ज्ञाननुं कार्य नथी; जो ज्ञान रागने पण करवा मांडे तो
आत्मा ज्ञानरूप न रहे पण रागरूप थई जाय. ए ज रीते आत्मा जो
जडनी क्रिया करवा मांडे तो आत्मा जडरूप जई जाय.–पण एम कदी
बनतुं नथी. जे जीव जडना के रागना कार्यने पोतानुं माने छे तेने जडथी
भिन्न ने रागथी भिन्न शुद्ध आत्मा अनुभवमां आवतो नथी, एटले के
धर्म थतो नथी.
(१८) जेम दरियो अपार पाणीथी भरेलो छे ने तेमां अनेक रत्नो होय छे, तेम
आ आत्मा चैतन्यरसथी भरपूर समुद्र छे ने तेमां सम्यग्दर्शन–
केवळज्ञान–आनंद वगेरे अनंत रत्नो भरेला छे;–आवो चैतन्यरत्नाकर
आत्मा छे. तेनो अपार महिमा छे.