: वैशाख : २४९३ आत्मधर्म : प :
(६) आत्मा ज्ञानस्वरूप छे; ते ज्ञानस्वरूप आत्मा क्रोधादि परभावनो कर्ता
थईने अटके–ते संसार छे, ते अधर्म छे.
(७) ज्ञान अने क्रोधादि–ए बंनेनी भिन्नताना भान वडे ज्ञानमांथी क्रोधादिनुं
कर्तृत्व छूटी जाय, ने ज्ञानभावे ज आत्मा परिणमे ते मोक्षनुं कारण छे; ते
धर्म छे.
(८) साधकनी दशामां थोडो रागनो भाग देखाय, पण एनो आत्मा रागमां
एकत्वपणे नथी वर्ततो, ए तो ज्ञानमां एकत्वपणे ज वर्ते छे.
रागज्ञानना ज्ञेयपणे वर्ते छे, पण ज्ञानना कार्यपणे नहि. आवुं भेदज्ञान
ज्ञानीने वर्ते छे.
(९) ४६ वर्ष पहेलां (सं. १९७७ मां) अहीं बोटादमां चोमासुं रहेल, त्यारे
एक भाईए पूछेल के श्रीमद् राजचंद्रने आत्मनुं ज्ञान हतुं तो पछी आ
वेपार–धंधा के स्त्री–पुत्र वगेरे बधुं केम? पण भाई! ज्ञानीनो आत्मा
क््यां ऊभो छे तेनी तने खबर नथी. ज्ञानीनी दशा जोतां तने नथी
आवडतुं; एटले ए बधुं ज्ञानी करता होय एम तने भ्रमथी देखाय छे.
ज्ञानी तो ज्ञानमां ऊभा छे, ज्ञानी रागमांय नथी ऊभा, त्यां बहारनी
तो शी वात? ज्ञानीनी दशा रागथीये जुदी परिणमी रही छे. ए दशा
ओळखवी जगतने कठण पडे छे.
(१०) ज्ञानी तो ज्ञान अने राग–ए बंने वच्चे भेद देखे छे; बंनेनुं स्वरूप जुदुं
जाणे छे, एटले ते रागमां एकत्वबुद्धिथी नथी वर्तता पण रागना अकर्ता
थईने ज्ञानमां ज तन्मयपणे वर्ते छे.–आनुं नाम भेदज्ञान छे.
(११) अज्ञानी राग अने ज्ञान वच्चेना भेदने जाणतो नथी, एटले ते तो
ज्ञाननी जेम रागनेय पोतानुं कार्य मानीने तेमां एकत्वबुद्धि करे छे.–आवुं
अज्ञान ते संसारनुं कारण छे.
(१२) क्रियाना त्रण प्रकार: एक ज्ञान क्रिया; बीजी क्रोधादि क्रिया; ने त्रीजी जडनी
क्रिया; ज्ञानी ज्ञानक्रियाना कर्ता छे, अज्ञानी क्रोधादि क्रियानो कर्ता छे; जडनी
क्रियानो कर्ता कोई जीव नथी.