Atmadharma magazine - Ank 285
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९३ आत्मधर्म : २३ :
* राजकोटथी चंद्राबेन जैन (No. 2) बालविभागनी बेनपणी उपर लखे
छे के––आ वेकेशनमां गुरुदेवे २२ दिवस राजकोट रहीने अमारा उपर उपकार कर्यो छे;
अमृतवाणीनो वरसाद वरसावीने सत्य स्वरूप समजाव्युं.
१ पहेलां शरीरने आत्मा मानता,
२ पुण्यने धर्म मानता,
३ शरीरनी क्रिया आत्मा करे एम मानता,
४ पदार्थोना परिणमनने स्वतंत्र नहोता मानता; तेने बदले गुरुदेवे–
१ शरीर अने आत्मा भिन्न समजाव्या.
२ पुण्य करतां धर्म जुदो छे एम समजाव्युं.
३ शरीरनी क्रिया आत्मा न करे एम बताव्युं. अने
४ पदार्थोना परिणमननी स्वतंत्रता समजावी.
आथी अमारा विचारो बदलाई गया ने हृदयमां फेरफार थयो.–
तुं नहीं कोईनो कोई नहीं तारुं,
पल–घडी आतम विसरीश मा.
आवा गुरुनो उपदेश सूणीने स्वसन्मुख थईने सम्यग्दर्शन प्रगट करीए–ए ज
अभिलाषा छे. देव–गुरुना प्रतापे सुखनो सूरज उग्यो छे तेनो हर्ष व्यक्त करतां चंद्राबेने
एक जोडकणुं–काव्य पण लखी मोकल्युं छे.–“सुखनो सूरज उगीयो” ते पण आ अंकमां १६मा
पाने आप्युं छे.
* अमदावादथी निखीलेश जैन (No. 80) बालमित्रोने लखे छे के–– रजाओमां
गोवा–रत्नागिरि–पूना थईने मुंबई आव्या; त्यां कालबादेवी रोड पर जिनेश्वरभगवंतोना
दर्शन करवानो मने लाभ मळ्‌यो. तथा झवेरीबजारमां गुरुदेवना हाथथी सीमंधर भगवाननी
जे प्रतिष्ठा थई हती तेनां पण दर्शन कर्या; भाववाही मूर्तिओनुं मुखारविंद जोई मने घणो
आनंद थयो. देरासर खूब सुंदर छे. दादरमां पण जिनमंदिरमां समवसरण बनाव्युं छे ने ते
सोनगढना जेवुं ज छे–एम सांभळ्‌युं छे. तेनां दर्शन करवा जवुं हतुं पण दूर होवाथी जई न
शक््यो. पण हवे मुंबई जईश त्यारे तेनां दर्शन कर्या वगर नहीं रहुं. –जयजिनेन्द्र
* अंकलेश्वरथी निरूपाबेन जैन लखे छे के––वेकेशनमां धार्मिक पुस्तको वांच्या.
मेट्रीक भणुं छुं. आदिपुराण बहु गम्युं. महावीरचारित्र अने जैन बाळपोथी पण वांच्या.
अमारा घरनी पासे पार्श्वनाथ प्रभुनुं मंदिर छे त्यां रोज वांचन थाय छे, हुं
क््यारेक वांचनमां जाउं छुं. षट्खंडागम अमारा गाममां थया हता ने तेनो मोटो उत्सव
(श्रुतपंचमीनो उत्साह) अमारा अंकलेश्वरमां ज थयो हतो. अमारा गामनी बाजुमां
‘सजोद’ गाम छे, त्यां शीतलनाथ प्रभुना