Atmadharma magazine - Ank 285
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९३ आत्मधर्म : ३ :
वळी स्त्रीपर्यायमां व्रतोनी हदने पामेला, अने गृहादिक समस्त परिग्रह छोडी,
कुटुंबनुं ममत्व तजी, देहमां निर्ममत्व धारण करी, पांच ईन्द्रियोना विषयो त्यागी, मात्र
एक वस्त्रनो ज परिग्रह राखनारा, भूमिशयन–क्षुधा–तृषा–शीत–उष्ण वगेरे परिषहोने
सहनारा, ध्यान–स्वाध्याय–सामायिकादि आवश्यकोथी युक्त, अर्जिकानी दीक्षा ग्रहण
करीने संयम सहित वर्ते छे,–तेमना गुणोमां अनुराग ते वात्सल्य छे.
तथा, जेओ मुनिश्वरोनी जेम वनमां निवास करे छे, बावीस परिषह सहे छे,
उत्तम क्षमादि दशधर्मना धारक छे, देहमां निर्मम छे, पोताना निमित्ते करेला औषध
अन्नपाणी वगेरे ग्रहण करता नथी, एक वस्त्र–कोपीन सिवायना समस्त परिग्रहना
त्यागी छे, एवा उत्तम श्रावकोना गुणोमां अनुराग ते वात्सल्य छे.
अने, देव–गुरु–धर्मना सत्यार्थ स्वरूपने जाणी जेओ द्रढ श्रद्धानी अने धर्ममां
रुचिना धारक छे–एवा अव्रतसम्यग्द्रष्टि प्रत्ये पण वात्सल्य करो.
आ संसारमां जीव पोताना स्त्री–पुत्र–कुटुंब वगेरेमां, तथा देहमां, ईन्द्रिय–
विषयोना साधनोमां अनादिथी अति अनुरागी थईने तेने अर्थे कपाय छे–मरे छे,
अन्यने मारे छे,–एवुं मोहनुं कोई अद्भुत माहात्म्य छे! ते पुरुष धन्य छे के जे
सम्यग्ज्ञान वडे मोहने नष्ट करीने आत्माना गुणोमां वात्सल्य करे छे. संसारी प्राणी तो
धननी लालसावडे अति आकुळ थईने धर्मना वात्सल्यने छोडी दे छे; अने संसारीने
धन वधता अति तृष्णा वधे छे; समस्त धर्मना मार्गने ते भूली जाय छे, अने
धर्मात्माओ प्रत्येनुं वात्सल्य दूरथी ज छोडी दे छे. रात–दिन धनसंपदा वधारवा माटे
तेने एवो अनुराग वधे छे के, लाखोनुं धन थई जाय तो करोडोनी वांछा करीने
आरंभ–परिग्रहने वधारतो पापमां प्रवीणता वधारे छे ने धर्मना वात्सल्यने नियमथी
छोडी दे छे. ज्यां दानादिकमां के परोपकारमां धन वापरवानो प्रसंग आवे त्यां तेने
दूरथी ज टाळी दे छे, अने बहु–आरंभ बहु–परिग्रह तथा अति तृष्णावडे नजीक
आवेला नरकवासने देखतो नथी. एमांय पंचमकाळना धनाढयो तो (बहुधा) पूर्वे
मिथ्याधर्म–कुपात्रदान–कुदानना सेवनवडे एवा कर्म बांधीने आव्या छे के (कुधर्मसेवनने
कारणे) नरक–तिर्यंचगतिनी परिपाटी असंख्यात–अनंत काळसुधी छूटे नहीं; तेमना
तन–मन–वचन–धन धर्मकार्यमां लागता नथी; रात–दिन तृष्णा अने आरंभवडे ते
कलेशित रहे छे; तेमने धर्मात्मामां