Atmadharma magazine - Ank 285
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : अषाड : २४९३
आत्मार्थितानी पुष्टि, वात्सल्यनो विस्तार, देव–गुरु–
धर्मनी सेवा अने बाळकोमां धार्मिक संस्कारोनुं सींचन,–आ
आपणा आत्मधर्मना उद्देशो छे, अने तेने अनुलक्षीने
अवारनवार लेखो आत्मधर्ममां प्रसिद्ध थता रहे छे. ते–
अनुसार वात्सल्यने लगता केटलाक लेखो पण प्रगट थई चूकया
छे. धर्मना प्रेमीने धर्मप्रसंगमां वात्सल्य जरूर आवे छे. ए
हर्षनो विषय छे के सन्तजनोना प्रतापे ज्ञानभावनानी साथे
साथे वात्सल्यभावना पण आजे विस्तरी रही छे. धर्मीना
वात्सल्यभरेला बे शब्दो पण संसारना सर्व दुःखोने भूलावी
देवा माटे अमोघ औषध छे, ने धर्मसाधनामां ते उत्साह प्रेरे छे.
आवा वात्सल्यधर्मनुं वर्णन गुरुदेवनी प्रेरणाथी अहीं
आपवामां आव्युं छे. श्री समंतभद्रस्वामीरचित रत्नकरंड–
श्रावकाचारनी टीकामां पं. सदासुखदासजीए १६ भावनाओनुं
जे विस्तृत वर्णन कर्युं छे तेमांथी वात्सल्यभावनानुं भाषांतर
अहीं आपवामां आव्युं छे...जे जिज्ञासुहृदयोमां वात्सल्यने पुष्ट
करशे.–(सं.)
* * *
प्रवचन’ एटले देव–गुरु–धर्म, तेमनामां ‘वात्सल्य’ एटले के प्रीतिभाव, तेने
प्रवचनवत्सलत्व कहे छे.
चारित्रगुणयुक्त, शीलना धारक, परम साम्यभाव सहित बावीस परिषहने
सहन करनार, देहमां निर्मम, समस्त विषयोनी वांछाथी रहित, आत्महितमां उद्यमी
तेम ज परनो उपकार करवामां सावधान–एवा साधुजनोना गुणोमां प्रीतिरूप परिणाम
ते वात्सल्य छे.
तथा व्रतोना धारक ने पापथी भयभीत, न्यायमार्गी, धर्ममां अनुरागी,
मंदकषायी ने संतोषी एवा श्रावक तेम ज श्राविकाओना गुणोमां अने तेमनी संगतिमां
अनुराग धारण करवो ते वात्सल्य छे.