Atmadharma magazine - Ank 285
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९३ आत्मधर्म : प :
देवामां प्रीति–ए बधा गुणो पण वात्सल्यथी ज थाय छे. षट्काय जीवोमां जे वात्सल्य
करे छे ते ज त्रणलोकमां अतिशयरूप एवी तीर्थंकरप्रकृतिनुं उपार्जन करे छे. माटे जेओ
कल्याणना ईच्छुक छे तेओ भगवान जिनेन्द्रदेवना उपदेशेला (सम्यक्त्वपूर्वकना)
वात्सल्यगुणनो महिमा जाणी आ १६ मा वात्सल्यअंगनुं स्तवन–पूजन अने अर्चन
करे छे. तेओ दर्शननी विशुद्धि पामीने तथा तपनुं आचरण करीने अहमिन्द्रादि
देवलोकने पामीने पछी जगतना उद्धारक तीर्थंकर थई निर्वाणने पामे छे.
स्थितिकरण
“अहो, आवो पवित्र जैनधर्म! आवो अपूर्व
मोक्षमार्ग! पूर्वे कदी नहि आराधेलो आवो मोक्षमार्ग! तेने
साधीने हवे मोक्षमां जवाना टाणां आव्या छे...तो
आत्मार्थीने तेमां प्रमाद के अनुत्साह केम होय? घोरातिघोर
उपद्रवमां पण पूर्वे अनेक संतो मोक्षमार्गथी डग्या नथी,
अडगपणे आत्माना अवलंबने मोक्षमार्गमां टकी रह्या
छे...ने मारे पण एमनुं ज अनुकरण करीने आत्माने
मोक्षमार्गे लई जवानो छे... संसारना घोरतिघोर दुःखोथी
हवे आ आत्माने बस थाओ...” आम संवेग–निर्वेद वगेरे
अनेक प्रकारे आत्माने उत्साह जगाडीने, मोक्षमार्गनो
महिमा प्रसिद्ध करीने समकिती पोताना आत्माने तेम ज
बीजाना आत्माने मोक्षमार्गमां द्रढपणे स्थिर करे छे, एनुं
नाम स्थितिकरण छे.
धर्मात्मा बीजा साधर्मीने कदाचित् मोक्षमार्ग प्रत्ये
निरूत्साही थईने डगतो देखे, तो तेना प्रत्ये वात्सल्य
बतावीने तेने मार्ग प्रत्ये उत्साह जगाडे छे.–आवो
स्थितिकरणनो भाव धर्मीने सहेजे आवी जाय छे.
(१०० रत्नोना संग्रहमांथी)