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भिन्नतानी वात तो स्थूळमां गई, अहीं तो अंदरना अरूपी विकल्पोथी पण चैतन्यनी
भिन्नता बताववी छे. अज्ञानीने भेदज्ञाननी शक्ति बीडाई गई छे; भेदज्ञान करवानी
शक्ति तो दरेक आत्मामां छे पण अज्ञानी ते शक्ति प्रगट करतो नथी, तेनी ते शक्ति
अनादिथी बिडाई गयेली छे. आवा अज्ञानने लीधे ज ते पोताने अने परने एकमेक
करवाने बदले ‘हुं क्रोध छुं, हुं राग छुं’–एम ते अनुभवे छे अहो, दिव्यध्वनि चैतन्यना
एकत्वस्वभावनो ढंढेरो वगाडे छे, गणधरो–संतो अने चारे अनुयोगना शास्त्रो
भेदज्ञाननो ढंढेरो पीटीने कहे छे के चैतन्यस्वभाव तो अनाद्यि–अनंत, अकृत्रिम, निर्मळ
विज्ञानघन छे, ने रागादिभावो तो क्षणिक, नवा, पराश्रये उत्पन्न थयेला मलिन भावो
छे,–तेमने एकता केम होय?–न ज होय.–पण अज्ञानी आवा वस्तुस्वभावथी भ्रष्ट
थईने वारंवार अनेक विकल्परूपे तद्रुप परिणमतो थको तेनो कर्ता प्रतिभासे छे.
चैतन्यखाणमां तो निर्विकल्प अनाकुळ शांतरस भर्यो छे. शांतरसनो स्वाद ते ज मारो
स्वाद छे, जे आकुळता छे ते मारो स्वाद नथी, ते तो