Atmadharma magazine - Ank 285
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 9 of 45

background image
: : आत्मधर्म : अषाड : २४९३
अत्यत मधर
चतन्यरस
तेने अनुभवनारा ज्ञानी केवा होय?
(साधकना अंतरनी अनुभवदशाने ओळखावतुं
एक घणुं सुंदर भाववाही प्रवचन)
आ आत्मा अनादिथी अज्ञानी वर्ते छे, तेने पोताना स्वभावना स्वादनुं अने
विकारना स्वादनुं भेदज्ञान नथी एटले बंनेने एकमेकपणे अनुभवे छे; देहथी
भिन्नतानी वात तो स्थूळमां गई, अहीं तो अंदरना अरूपी विकल्पोथी पण चैतन्यनी
भिन्नता बताववी छे. अज्ञानीने भेदज्ञाननी शक्ति बीडाई गई छे; भेदज्ञान करवानी
शक्ति तो दरेक आत्मामां छे पण अज्ञानी ते शक्ति प्रगट करतो नथी, तेनी ते शक्ति
अनादिथी बिडाई गयेली छे. आवा अज्ञानने लीधे ज ते पोताने अने परने एकमेक
माने छे, ज्ञानने अने रागने एकमेक अनुभवे छे. ‘हुं चैतन्य छुं’–एवो स्वानुभव
करवाने बदले ‘हुं क्रोध छुं, हुं राग छुं’–एम ते अनुभवे छे अहो, दिव्यध्वनि चैतन्यना
एकत्वस्वभावनो ढंढेरो वगाडे छे, गणधरो–संतो अने चारे अनुयोगना शास्त्रो
भेदज्ञाननो ढंढेरो पीटीने कहे छे के चैतन्यस्वभाव तो अनाद्यि–अनंत, अकृत्रिम, निर्मळ
विज्ञानघन छे, ने रागादिभावो तो क्षणिक, नवा, पराश्रये उत्पन्न थयेला मलिन भावो
छे,–तेमने एकता केम होय?–न ज होय.–पण अज्ञानी आवा वस्तुस्वभावथी भ्रष्ट
थईने वारंवार अनेक विकल्परूपे तद्रुप परिणमतो थको तेनो कर्ता प्रतिभासे छे.
अहीं तो ते कर्तापणुं छूटवानी वात समजावी छे. “रागादिनुं कर्तापणुं अज्ञानथी
ज छे”–एम जे जीव जाणे छे ते जीव ते रागादिना कर्तृत्वने अत्यंतपणे छोडे छे. मारा
चैतन्यस्वभावमां रागनुं कर्तृत्व छे ज नहि. रागनी खाण मारा चैतन्यमां नथी, मारी
चैतन्यखाणमां तो निर्विकल्प अनाकुळ शांतरस भर्यो छे. शांतरसनो स्वाद ते ज मारो
स्वाद छे, जे आकुळता छे ते मारो स्वाद नथी, ते तो