Atmadharma magazine - Ank 285
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९३ आत्मधर्म : ७ :
रागनो स्वाद छे–एम बंनेना स्वादने अत्यंत भिन्न जाणतो थको ज्ञानी, चैतन्यने अने
रागने एकस्वादपणे नथी अनुभवतो, पण चैतन्यना स्वादने रागथी जुदो ज अनुभवे
छे. चैतन्यना आनंदना निधानने पहेलां अज्ञानथी ताळां दीधा हता ते ताळांने
भेदज्ञानरूपी चावी वडे खोली नांख्या, चैतन्यना आनंदनिधानने खुल्ला करीने तेनुं
स्वसंवेदन कर्युं. ज्यां पोताना निजरसने जाण्यो त्यां विकारनो रस छूटी गयो, तेनुं
कर्तृत्व छूटी गयुं. पहेलां निरंतर विकारनो स्वाद लेतो तेने बदले हवे निरंतर
स्वभावना आनंदनो स्वाद ल्ये छे.
जुओ, आ चोथा गुणस्थानवाळा समकिती धर्मात्मानी दशा! जे साधक थयो, जे
मोक्षना पंथे चडयो, अंतरमां जेने चैतन्यना भेटा थया, एवा धर्मात्मा–ज्ञानी
मतिश्रुतज्ञानथी चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनुं स्वसंवेदन करे छे. अहा, जगतना रसथी
जुदी जातनो चैतन्यनो रस छे. ईन्द्रपदना वैभवमां पण ते रस नथी. समकिती ईन्द्रो
जाणे छे के अमारा चैतन्यना अतीन्द्रिय स्वाद पासे आ ईंद्रपद तो शुं!–आखा जगतनो
वैभव पण तूच्छ छे. चैतन्यनो रस अत्यंत मधुर...अत्यंत शांत! अत्यंत निर्विकार...
जेना संवेदनथी एवी तृप्ति थाय के आखा जगतनो रस ऊडी जाय. शां...त........शां...त
चैतन्यनुं मधुरुं वेदन थयुं त्यां आकुळताजनक एवा कषायोनुं कर्तृत्व केम रहे?
कषायोथी अत्यंत भिन्नतानुं भान थयुं. जुओ, स्वसन्मुख थईने आवा स्वादनुं
स्वसंवेदन करवानी मति–श्रुतज्ञाननी ताकात छे. मतिश्रुतने स्वसन्मुख करीने धर्मात्मा
आवा चैतन्यस्वादनुं प्रत्यक्ष स्वसंवेदन करे छे.
अहा, जुओ तो खरा केवा शांतभावो आचार्यदेवे भर्या छे! अमृतना सागर
केम ऊछळे–ते वात अमृतचंद्राचार्य देवे आ समयसारमां समजावी छे.
साधकनी अंदरनी शुं स्थिति छे तेनी जगतना जीवोने खबर नथी; एना
हृदयना गंभीर भावो ओळखवानुं साधारण जीवोने मुश्केल पडे तेवुं छे. समजवा मागे
तो बधुं सुगम छे. आ भावो समजे तो अमृतना सागर ऊछळे ने झेरनो स्वाद छूटी
जाय. भेदज्ञाननो आ महिमा छे. भेदज्ञान थतां ज जीवनी आवी दशा थाय छे. ज्ञानी
धर्मात्मा चैतन्यरसना स्वाद पासे जगतना बधा स्वाद प्रत्ये सदाय उदासीन
अवस्थावाळो थयो छे, रागादिने पण अत्यंत उदासीन अवस्थावाळो रहीने मात्र जाणे
ज छे, पण तेनो कर्ता थतो नथी. आ रीते ज्ञायकस्वभावने ज स्वपणे अनु–