
अत्यंत अकर्ता ज छे.–आवी दशाथी साधक ओळखाय छे. आवी अंतरदशाथी ज्ञानीने
ओळखतां अति आनंद थाय छे ने विकारमां तन्मयबुद्धिरूप अज्ञाननो नाश थईने
अपूर्व भेदज्ञान प्रगट थाय छे.
जाणनारा ज्ञानीओए एम कह्युं छे के आत्मा अज्ञानथी ज विभावनो कर्ता थाय छे.
ज्यां भिन्न चैतन्यस्वभावनुं भान थयुं त्यां पोताना शुद्धचैतन्य सिवाय बीजे क््यांय
आत्मविकल्प थतो नथी, एटले ते ज्ञानी समस्त परभावने पोताना स्वभावथी भिन्न
जाणतो थको तेनुं कर्तृत्व छोडी दे छे.
स्वादवाळा कषायोमां आत्मबुद्धि केम थाय? रागादि भावो मारा स्वभावमांथी उत्पन्न
थयेला छे–एम ज्ञानीने जरापण भासतुं नथी. शुद्धज्ञानमय परम भाव ज तेने पोतानो
भासे छे, तेथी शुद्धज्ञानमय स्वभावना आधारे तेने निर्मळ ज्ञानभावोनी ज उत्पत्ति
थाय छे अने तेनो ज ते कर्ता थाय छे. विकल्पनी उत्पत्ति ज ज्यां मारा ज्ञानमां नथी तो
पछी ते विकल्पवडे ज्ञाननी पुष्टि थाय–ए वात क््यां रही?–आथी ज्ञानीने ज्ञानथी
भिन्न समस्त विकल्पोनुं कर्तृत्व छूटी गयुं छे. आ रीते रागना कर्तृत्वरहित एवा
ज्ञानपरिणमन वडे ज्ञानी ओळखाय छे.