Atmadharma magazine - Ank 286
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: ३८ : आत्मधर्म : ब्रह्मचर्य–अंक (चोथो) : श्रावण : २४९३
जुदो छे. जीव जड नथी. शुद्ध निश्चयनयथी आ जीव केवळज्ञान अने केवळदर्शनथी
अभिन्न अर्थात् एकमेक छे, परंतु व्यवहारनयथी ते मतिज्ञानी–श्रुतज्ञानी वगेरे
अवस्थावाळो छे.
–आ प्रमाणे जीवनुं नित्यपणुं–अनित्यपणुं, बंध–मोक्ष, कर्तृत्व, भोक्तृत्व वगेरे
बधुं अनेक नयोथी (अर्थात् अनेकांत मतथी) ज सिद्ध थाय छे, एकांतनयथी (–
अर्थात् एकांतवादथी) तो कर्तृत्व–भोकतृत्व, बंध–मोक्ष आदि बधा धर्मो सर्वथा मिथ्या
ठरे छे!
ए प्रमाणे ते देवे जे जे प्रश्नो पूछ्या ते सर्वेनुं समाधान वज्रयुधकुमारे घणी
गंभीरता अने द्रढताथी युक्तिपूर्वक कर्युं. तेमनी तत्त्वार्थश्रद्धान्नी द्रढता जोईने अने
तत्त्वोना स्वरूपथी भरेला अमृतसमान तेमनां वचनो सांभळीने ते देव एटलो बधो
संतुष्ट अने प्रसन्न थयो–जाणे के तेने मोक्षपद मळी गयुं होय!
त्यारबाद ते देवे पोतानुं मूळ स्वरूप प्रगट कर्युं अने स्वर्गमां ईन्द्रे तेमनी जे
प्रशंसा करी हती ते कही संभळावी. वळी ते देवे दिव्य वस्त्र वगेरे पहेरावीने
महाभक्तिथी वज्रयुधकुमारनुं बहुमान कर्युं, वारंवार तेमनी प्रशंसा करी, अने पछी
नमस्कार करीने पोताना स्वर्गमां चाल्यो गयो.
अहो, जगतमां ते धर्मात्मा पुरुष धन्य छे के जे सम्यग्दर्शनरूपी निर्मळ रत्नथी
सुशोभित छे, ईन्द्र पण जेनी स्तुति करे छे अने देवो आवीने जेनी परीक्षा करे छे छतां
जेओ तत्त्वश्रद्धानमां रंचमात्र डगता नथी. एवा धर्मात्माओना सम्यग्दर्शनादि गुणो
जोईने जिज्ञासुओनुं हृदय तेमना प्रत्ये प्रमोदथी उल्लस्या वगर रहेतुं नथी. श्री
वज्रयुधकुमारनुं निर्मळ तत्त्वार्थश्रद्धान् दरेक जिज्ञासु जीवोने अनुकरणीय छे.
* * *
उपरना प्रसंग पछी अमुक वखत बाद, वज्रयुधकुमारना पिता (–श्री क्षेमंकर
तीर्थंकर) ने वैराग्य थतां देवो तेमनो दीक्षाकल्याणक महोत्सव करवा आव्या. क्षेमंकर
महाराजा वज्रयुधकुमारनो राज्याभिषेक करीने पोते दीक्षा लेवाने वनमां गया. वनमां
जईने, सिद्धपद प्राप्त करवा माटे सिद्धभगवंतोने नमस्कार कर्या. अने पछी केशलोच
करीने सर्व परिग्रह त्यागीने अत्यंत विरक्त भावथी भगवती दीक्षा धारण करी.
आत्मध्यानमां लीनता वडे अल्पकाळमां केवळज्ञान प्राप्त कर्युं. अने समवसरणमां
दिव्यध्वनिवडे भव्य जीवोने धर्मोपदेश देवा लाग्या.