पार नहि रहे’ –एम वैराग्यभावना सेवता जीवोने ब्रह्मचर्य सहजपणे आवे छे.
मुक्तिनो पुरुषार्थ तो आत्मस्वभावनी ओळखाण थतां प्रगट थाय छे;
आत्मतत्त्वचिंतामणीनी ओळखाण ज्यारे थाय त्यारे एनी पहेलूरूपे दर्शन–ज्ञान–
चारित्र आदि मोक्षमार्गनी पर्यायो प्रगट थाय छे, त्यारपहेलां नहीं. बीजा अन्य मार्ग
प्ररूपनारा जीवो तो एम कहे छे के जो एकवार ब्रह्मचर्य कष्टे करीने पण सहन करो तो
मोक्ष जरूर मळशे.–एवुं माननारामां पण, एवा मार्गमां पण, ए ब्रह्मचर्य पाळनारा
अत्यंत अल्प नीकळे छे; गुरुदेवकथित स्वानुभूत अमरतत्त्वनी वात एवी अद्भुत छे
पुरुषार्थनी अंदर पडतां शुभभावो प्रगट थाय छे. आ रीते प्रगट थयेलो शुभभाव ए
आ बहेनोए अंगीकार करेलुं ब्रह्मचर्य छे. ए रीते, शुद्धिना प्रयत्ननी गडमथल करतां,
एनी पाछळ प्रयत्न करतां करतां आ बहेनोने शुभभाव आवेलो छे.
सुधास्यंदिनी वाणीना निरंतर सेवनना अर्थे, ए सुधापान पासे बीजा सांसारिक,
कथनमात्र, कल्पित सुखो तो अत्यंत गौण थई जवाथी, अने परमपूज्य बेनश्रीबेन
(चंपाबेन–शांताबेन) नी शीतळ छायामां रहीने कल्याण करवानी भावनाथी लेवायेलुं
आ ब्रह्मचर्य–ए तद्न जुदी वात छे. सामान्य रीते पहेला प्रकारनुं ब्रह्मचर्य पण
जगतमां अत्यंत अल्पनहिवत् जेवुं–होय छे, तो आ प्रकारनुं ब्रह्मचर्य तो खूब
प्रशंसनीयपणाने पामे छे.
के–प्रथम तो सर्व साधनाने गौण जाणी, मुमुक्षु जीवे एक सत्संग ज सर्वार्पणपणे
उपासवा योग्य छे, एनी उपासनामां सर्व साधनो आवी जाय छे. जेने ए साक्षीभाव
प्रगट थयो छे के आ ज सत्पुरुष छे, अने आ ज सत्संग छे,–एणे तो पोताना दोषो
कार्ये कार्ये, प्रसंगे प्रसंगे, क्षणे क्षणे जोवा, जोईने ते परिक्षीण करवा, अने सत्संगने
प्रतिबंधक जे कांई होय एने देहत्यागना जोखमे पण छोडवुं; देहत्यागनो प्रसंग आवे