: आसो : २४९३ आत्मधर्म : २९ :
वांचको साथे वातचीत
अने तत्त्वचर्चा
* (सर्वे जिज्ञासुओनो प्रिय विभाग) *
* अंधेरीथी रजनीकान्त जैन (No. 1836) हर्षपूर्वक लखे छे के आत्मधर्मनो
बालविभाग वांचतां मने घणो ज रस जाग्यो तेथी हुं सभ्य बन्यो. बालविभाग
अत्यंत आनंदथी वांचुं छुं. ‘चालो आंबा खाईए’ वाळुं सभ्य–कार्ड मळतां हुं बहु खुशी
थयो. (खरेखर, ए मधुर आंबा खावानुं मन थाय छे!) तेमज फोटो अने ऋषभदेव
भगवाननुं पुस्तक पण मळतां घणो ज खुशी थयो छुं.
* बेंगलोरथी K. H. जैन (No. 774) लखे छे के–हुं दरेक आत्मधर्म वांचुं छुं.
कोलेजना भणतरनी साथे आत्मानुं भणतर पण करुं छुं. जेम जेम आत्मधर्म वांचुं छुं
तेम तेम बहु रस आवे छे. आत्मधर्ममां घणी सरस जाणवा जेवी वातो आवे छे, अने
बालविभागमां तो ओर मजा आवे छे.
* कल्पनाबेन तथा अलकाबेन (नं. २३० तथा १६७२) पूछे छे–
तीर्थंकरो जगतना जयवंत वर्तो,
“ कारनाद जिननो जयवंत वर्तो;
जिनना समोसरण सौ जयवंत वर्तो,
ने तीर्थ चार जगमां जयवंत वर्तो.
– अमे आ स्तुति बोलीए छीए; तेमां ‘चार तीर्थ’ जयवंत कह्या छे ते कया?
एक गीरनार, बीजुं पावापुरी, त्रीजुं चंपापुरी, ने चोथुं कयुं? ते अमने खबर नथी,
तो जणावशोजी.
उत्तर:– बेन, चार तीर्थ जाणवानी तमारी भावना उत्तम छे. पण अहीं तो तमे
धार्या करतां बीजा ज चार तीर्थ छे: (१) मुनि (२) अर्जिका (३) श्रावक ने (४)
श्राविका–आ चार तीर्थ छे. केमके सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने तीर्थ कहेवाय छे,–जेनाथी
तराय ते तीर्थ छे; अने एवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रना धारक होवाथी आ मुनि–
अर्जिका–श्रावक ने श्राविका ए चारे जीवोने तीर्थ कहेवाय छे.