: २८ : आत्मधर्म : आसो : २४९३
८९. गुणप्रमोद अतिशय रहे, रहे अंर्तमुख योग;
प्राप्ति श्री सद्गुरु वडे, जिनदर्शन अनुयोग;
९०. जीव एक अखंड संपूर्ण द्रव्य होवाथी तेनुं ज्ञानसामर्थ्य संपूर्ण छे. संपूर्ण
वीतराग थाय ते संपूर्ण सर्वज्ञ थाय.
९१. कायानी विसारी माया, स्वरूपे समाया एवा;
निर्ग्रंथनो पंथ भव–अंतनो उपाय छे. (वर्ष ३३, ९०२)
९२. उपजे मोह विकल्पथी, समस्त आ संसार;
अंर्तमुख अवलोकतां, विलय थतां नहीं वार.
९३. एक राज्य प्राप्त करवामां जे पराक्रम घटे छे ते करतां अपूर्व
अभिप्रायसहित धर्मसंतति प्रवर्ताववामां विशेष पराक्रम घटे छे. (हाथनोंध)
९४. कया ईच्छत खोवत सबै, है ईच्छा दुःखमूळ;
जब ईच्छाका नाश तब मिटे अनादि भूल.
९प. जब जान्यो निजरूपको, तब जान्यो सब लोक;
नहीं जान्यो निजरूपको, सब जान्यो सो फोक.
९६. शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन स्वयं ज्योति सुखधाम; बीजुं कहीये केटलुं? कर विचार
तो पाम.
९७. राग द्वेष अज्ञान ए मुख्य कर्मनी ग्रंथ, थाय निवृत्ति जेहथी ते ज मोक्षनो पंथ.
९८. अनंतकाळथी जे ज्ञान भवहेतु थतुं हतुं ते ज्ञानने एक समयमात्रमां
जात्यंतर करी जेणे भवनिवृत्तिरूप कर्युं ते कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शनने नमस्कार. (३प८.)
९९. लोकसंज्ञा जेनी जिंदगीनो ध्रुव कांटो छे ते जिंदगी गमे तेवी श्रीमंतता,
सत्ता के कुटुंब–परिवारादि योगवाळी होय तो पण ते दुःखनो ज हेतु छे. आत्मशांति जे
जिंदगीनो ध्रुव कांटो छे ते जिंदगी गमे तो एकाकी अने निर्धन, निर्वस्त्र होय तो पण
परम समाधिनुं स्थान छे. (वर्ष ३४, ९४९.)
१००. देह छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत, ते ज्ञानीना चरणमां हो वंदन अगणीत.
श्रीमद्राजचंद्रजीना १०० वचनामृतनी ‘जन्मशताब्दि–पुष्पमाळा’ नी आ योजनाथी
मुख्य लाभ ए थयो के घणाय जिज्ञासुओए आ योजनामां रस लईने तरत श्रीमद्
राजचंद्रजीनुं साहित्य वांचवा मांडयुं, अने तेमांथी १०० उत्तम वचनामृतोनी चूंटणी
करवानी होवाथी विशेष ध्यानपूर्वक वांच्युं. हजी बीजा अनेक भाई–बहेनोए लखेला
वचनामृतो अमारी पासे आवेला छे; तेनो पण शक््य तेटलो उपयोग हवे पछीना
अंकोमां करीशुं.