: कारतक : २४९४ आत्मधर्म : ५ :
पूज्य गुरुदेवनी मंगलकारी छत्रछायामां आपणुं आत्मधर्म–मासिक आजे
पच्चीसमां वर्षमां एटले के रजतजयंतीना वर्षमां प्रवेश करी रह्युं छे. एक
‘आत्मधर्म’ ज जैनसमाजनुं शुद्धआध्यात्मिक पत्र छे... –के जे जिज्ञासुओने
लौकिकभावनाओथी दूरदूर आत्मिकभावनामां लई जाय छे. गुरुदेव आपणने जे
आत्महितकारी धर्मनो बोध आपी रह्या छे तेनी प्रभावनामां आत्मधर्मनो केटलो
फ्राळो छे ते सर्वे जिज्ञासुओने परिचित छे. आत्मधर्मे हंमेशांं पोताना उच्च आदर्शो
ने उच्च प्रणाली जाळवी राख्यां छे; भारतभरमां उच्च धार्मिक संस्कारवाळो विशाळ
वाचक वर्ग धरावतुं होवाथी आत्मधर्मनुं संपादन–धोरण पण एवुं ज उच्चकोटिनुं
रह्युं छे....अने आम छतां प्रतिपादनशैल, एटली सुगम छे के आजे हजारो विद्यार्थी–
बाळको पण होंशेहोंशे तेनुं वांचन करे छे.
आत्मधर्मना चार मुख्य उदेशो छे–आत्मार्थितानी पुष्टि; देवगुरुधर्मनी सेवा;
वात्सल्यनो विस्तार अने बाळकोमां धार्मिकसंस्कारोनुं सींचन. ए उदे्शोमां आगळ ने
आगळ वधवा आपणे सौ सतत प्रयत्नशील छीए. एक धर्मने सेवनारा ने एक गुरुनी
छायामां रहेनारा आपणे सौ एक छीए एवी भावना साधर्मीओमां प्रसरी रही छे.
मारा जीवनने माटे आ एक महान लाभनुं कारण छे के गुरुदेवनी
चरणछायामां निरंतर रहीने जिनवाणीमातानी उपासनानुं आवुं सद्भाग्य मने
मळ्युं. पू. गुरुदेवे हंमेशां प्रसन्नतापूर्वक मारा जीवनने हितमार्गमां दोर्युं छे. बंधुओ!
आवा काळे आवा गुरुजीनी प्राप्ती थई छे तो तेमनी मंगलछायामां एकएक पळने
खूब ज मूल्यवान समजीने आत्महित साधवानुं छे. ने तेमनी वाणीरूप आ
आत्मधर्मना विकासमां आपनो सौनो जे किंमती सहकार छे ते बदल सौनो आभार
मानीने भावना भावुं छुं के–
आत्मधर्मनी रजतजयंती पछी सुवर्णजयंती पण गुरुदेवनी सोनेरी छायामां
वेलीवेली आवो. –ब्र. ह. जैन