Atmadharma magazine - Ank 290
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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रजतजयंतिनुं वर्ष
२९०
आ......नं......दि......त था
हे जीव! कोई बीजाथी तुं राजी था के तुं कोई परने
राजी कर–एवो तारो स्वभाव नथी; तारा आत्मानुं
अवलंबन करीने तुं पोते राजी था (एटले के सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–आनंदरूप था) एवो तारो स्वभाव छे, माटे तारा
आत्मानी निजशक्तिने संभाळीने तुं प्रसन्न था! तारा
निजवैभवनुं अंतरअवलोकन करीने तुं आनंदित था!
‘अहो! मारो आत्मा आवो परिपूर्ण शक्तिवाळो.....आवा
आनंदवाळो! –एम आत्माने जाणीने तुं राजी था......खुशी
था.....आनंदित था!!! जे आत्माने यथार्थपणे ओळखे तेने
अपूर्व आनंदनो अनुभव थाय ज. माटे आचार्यदेव
आत्मानो स्वभाव देखाडीने कहे छे के हे भव्य! आवा
आत्माने जाणीने तुं आनंदित था!
तंत्री: जगजीवन बावचंद दोशी * * संपादक: ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं २४९४ मागशर (लवाजम: चार रूपिया) वर्ष: २प: अंक २