Atmadharma magazine - Ank 291
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.

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आत्मधर्म
वर्ष २५
सळंग अंक २९१
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001 June 2005 First electronic version.

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२९१
समयसारनो पहेलो पाठ



समयसारना पहेलां ज पाठमां आचार्यदेव कहे छे के
हे भव्य! तारा आत्मामां सिद्धपणुं स्थाप. सिद्ध
भगवंतोने आदर्शरूपे राखीने नक्क्ी कर के ‘जेवा
सिद्ध तेवो हुं. ’ –आवा लक्षपूर्वक समयसार सांभळतां
तने तारो अद्भुत आत्मवैभव तारामां देखाशे.
तंत्री: जगजीवन बावचंद दोशी संपादक: ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २४९४ पोष (लवाजम: चार रूपिया) वर्ष २प: अंक ३

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संपादकीय–
गुरुदेवनी प्रवचनशैलि
गुरुदेवनी प्रवचनशैली अनोखी छे; ते मुमुक्षु–श्रोताओने अंतरना
ऊंडाणमां लई जईने चैतन्यनो स्पर्श करावे छे. तेओ गमे ते शास्त्र वांचतां होय
पण आत्माने स्पर्शीने तेना भावो खोले छे...ने आत्मार्थीना पुरुषार्थने आत्मा
तरफ उत्तेजित करे छे. जैनसिद्धांतना चारे अनुयोगमां चैतन्यआत्मा झळकी रह्यो
छे; द्रव्यानुयोग अने करणानुयोगनी जेम चरणानुयोगमां पण आत्मा झळके छे
ने कथानुयोगमां पण आत्मसाधनानी ज कथाओ गुंथायेली छे. आत्माने
एककोर राखीने जैनसिद्धान्तनो कोई पण अनुयोग होई शके नहि. आ रीते
चारे अनुयोगमां आत्मा भरेलो छे. ज्ञानीओ बधा अनुयोगोमां आत्मानी
महत्ता देखे छे. गुरुदेवनुं प्रवचन आपणने शास्त्रोमां रहेला सन्तोना हार्द सुधी
पहोंचाडीने चिदानंदतत्त्वना द्वार सुधी लई जईने कोई अलौकिक दर्शननी झांखी
करावे छे. गुरुदेवना सर्वतोमुखी प्रवचनोनी थोडी झांखी आत्मधर्मना हजारो
वांचको दर महिने करी रह्या छे....आप पण आत्मधर्म मंगावीने तेनुं रसस्वादन
करो....एनाथी आपना जीवनमां कोई नवीन तत्त्व उमेराशे.
आत्मधर्म मंगाववा माटे नीचेना सरनामे चार रूपिया मोकले–
आत्मधर्म कार्यालय, सोनगढ (सौराष्ट्र)

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म : १:
वार्षिक लवाजम वीर सं. २४९४
चार रूपिया पोष
वर्ष: २प: अंक ३
१०८ मणका पूरा करती आपणी शास्त्रमाळा
जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट (सोनगढ) द्वारा साहित्यप्रकाशननुं
विशाळकार्य अनेक वर्षोथी चालु छे; तेमां आ मासमां ‘भगवानश्री
कुंदकुंद–कहान जैनशास्त्रमाळा’ ना प्रकाशनोमां “आत्मवैभव” नामना
१०८ नंबरना प्रकाशन द्वारा आ शास्त्रमाळाना १०८ मणका पूरा थाय
छे. गुरुदेवना प्रतापे जिज्ञासुओने आत्माभिमुख करतुं जे विपुल
वीतरागी साहित्य आजे प्रकाशमां आवी रह्युं छे ते महान प्रभावनानुं
कारण छे. एक तरफ आत्मधर्मनुं नियमित प्रकाशन, अने बीजी तरफ
विविध प्रकारना साहित्यनुं गुजराती–हिंदीमां प्रकाशन, एना द्वारा
भारतभरमां प्रभावना विस्तरी रही छे. भारतमां ज नहि परदेशमां पण
हजारो पुस्तको अनेक जिज्ञासुओ उत्साहथी मंगावे छे ने वांचे छे.
शास्त्रमाळाना १०८ मणकानी पूर्णताना प्रसंगे तेमां प्रकाशित पुस्तकोनो
परिचय अहीं टूंकमां क्रमेक्रमे आपीशुं. (सं.)
प्रारंभमां, रत्नत्रयरूप आभरणथी भूषित एवी जिनवाणी देवीने नमस्कार करीए
छीए. ए जिनवाणीना दातार वीतरागी सन्तोने नमस्कार करीए छीए.
शास्त्रपरिचयनो प्रारंभ करतां पहेलांं एक वात सर्वे जिज्ञासुओए लक्षमां राखवा जेवी
छे के प्रत्यक्ष ज्ञानी–सन्तोनो परिचय ने तेमनी पासेथी सीधुं श्रवण ए मुख्य वस्तु छे;
ज्ञानी पासेथी शास्त्रना रहस्य समजवानी चावी मेळव्या पछी जे शास्त्रस्वाध्यायादि
करवामां आवे ते विशेष लाभनुं कारण थाय छे. आवा लक्षपूर्वक जिज्ञासु जीवोए दररोज
शांतचित्ते अवश्य शास्त्रस्वाध्याय करवी जोईए.

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:२: आत्मधर्म : पोष : २४९४
आटला उपोद्घात पछी हवे शास्त्रमाळाना १०८ पुष्पोनो परिचय शरू करीए छीए:–
(पुष्प: १) समयसार–प्रवचनो: समयसार–प्रवचनोनां कुल पांच पुस्तको प्रगट थयां छे. तेमां
आ पहेलुं पुस्तक सं. २००१ मां शास्त्रमाळाना पहेला पुस्तक तरीके प्रगट थयुं. जो के आ
पहेलांं सं. १९९९ मां आत्मसिद्धिप्रवचनो वगेरे पुस्तकोनुं प्रकाशन थयेलुं, पण
शास्त्रमाळानी शरूआत सं. २००१ मां थई. ‘समयसार–प्रवचनो’ पहेला पुस्तकमां गाथा
१ थी १३ सुधीनां प्रवचनो छे. किंमत रूा. चार समयसार–प्रवचनो (पुस्तक बीजुं) गाथा
१४ थी २२ तथा गा. ३१ उपरनां प्रवचनो: (अप्राप्त)
(पुष्प: २) समयसार–प्रवचनो (पुस्तक त्रीजुं) : आमां गा. २३ थी ६८ सुधीनां प्रवचनो
छे. आ समयसार–प्रवचनो पुस्तक त्रीजुं–चोथुं ने पांचमुं ए त्रणे पुस्तकोनी ए विशेषता
छे के तेमां छपायेलां प्रवचनो पू. बेनश्री अने पू. बेन (बंने बहेनो) द्वारा लखायेलां छे;
ने अंतरमां भेदज्ञानना उद्यम माटेनी उत्तम प्रेरणा आपे छे. दरेकनी किंमत रूा. त्रण.
पुस्तक चोथामां कर्ताकर्म अधिकार–प्रवचनो छे; अने पुस्तक पांचमामां बंधअधिकार–प्रवचनो छे.
(३) जिनेन्द्रपूजन–संग्रह: सं. २००१ मां नानकडुं पूजनसंग्रह प्रसिद्ध थयेल तेमां वृद्धि थतां
थतां आज तो ते पुस्तक पांचसो उपरांत पानानुं बन्युं छे, ने तेनी अनेक आवृत्ति
छपायेल छे. जिनेन्द्रपूजननो प्रचार दिनेदिने केवो वृद्धिगत थयो–तेनो ख्याल आ
जिनेन्द्रपूजासंग्रह उपरथी आवे छे. किंमत बे रूपिया.
(४) छहढाला (गुजराती) : पं. श्री दौलतरामजी कृत छहढाळा के जे शिक्षणवर्गमां
पाठ्यपुस्तक तरीके पण चाले छे, ने गुजराती भाषामां छपायेल छे. छहढाळा
स्वाध्यायने महान तप गणवामां आव्युं छे.
श्रावकना हंमेशना छ कर्तव्यमां पण शास्त्रस्वाध्यायनो उपदेश छे.
भावज्ञानना अवलंबन वडे द्रढ करेला परिणामथी सम्यक्
प्रकारे जिनशास्त्रनो अभ्यास करवो ते मोहक्षयनो उपाय छे एम
प्रवचनसार गा. ८६ मां कह्युं छे.

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म : ३:
उपर गुरुदेवनां प्रवचनो पण थई गयां छे; अवारनवार छहढाळानी सामूहिक स्वाध्याय पण
थाय छे. मोटा–नाना सौने उपयोगी आ पुस्तकमां चारगतिनां दुःखो, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान,
सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्ग वगेरेनुं सुगम शैलिथी कथन छे. गुजरातीमां चोथी आवृत्ति छपायेल
छे: पृ: १७२ किंमत ०–८० (हिंदीमां पण छहढाळानी अनेक आवृत्ति छपायेल छे. छेल्ली सचित्र
आवृत्ति किंमत एक रूपियो.)
(प) समवसरण–स्तुति: आमां स्तुतिरूपे समवसरणनुं भावभीनुं वर्णन छे.
सीमंधरभगवानना समवसरणनी रचनानो नमूनो सोनगढमां छे. तेमां दरेक महिनानी वद छठ्ठे
सामूहिक भक्तिमां आ समवसरणस्तुति गवाय छे. पू. बेनश्री–बेन द्वारा आ स्तुति गवाती
होय त्यारे विदेहीनाथना समवसरणनो ताद्रशचितार खडो थाय छे ने श्रोताओ भक्तिमां
एकतान थईने झूमी ऊठे छे. आ पुस्तकमां कुंदकुंदाचार्यदेवनी पण अनेक स्तुतिओ छे. पुस्तकनी
अनेक आवृत्तिओ छपाणी छे. किंमत – ०–३प
(६) अमृतझरणां: जेनुं बीजुं नाम छे ‘मुक्तिनो मार्ग.’ पं भागचंदजी छाजेडे ‘सत्तास्वरूप’
नामनुं पुस्तक बनाव्युं छे तेमां सर्वज्ञनुं स्वरूप वगेरेनुं सुंदर वर्णन छे. तेना उपर सं. २००० मां
पू. गुरुदेवे खास प्रवचनो करेला, ते आ पुस्तकमां छपायेल छे. जिज्ञासुओने देव–गुरु–धर्मनुं
स्वरूप अत्यंत सुगम शैलिथी समजाय, ने श्रद्धा–भक्तिनुं चानक चडे एवुं आ पुस्तक छे.
गुजरातीमां त्रण आवृत्ति छपायेल छे. किंमत– ०–७प
(हिन्दीमां पण ‘मुक्तिका मार्ग’ नी छ आवृत्ति छपायेल छे. हिंदी–गुजराती मळीने कुल त्रीस
हजार जेटला पुस्तको छपाया छे.
हिन्दी मुक्तिका मार्ग पृ: १०८ किंमत पचास पैसा.)
शास्त्र भणवानो गुण शुं?
भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय आत्मानुं ज्ञान ते शास्त्र
भणवानो गुण छे. (समयसार गा. २७४)

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:४: आत्मधर्म : पोष : २४९४
उपयोग थाय छे. ज्ञान–वैराग्य ने भक्तिरसथी नीतरतां भजन–स्तवनो पू. बंने
बहेनो उपशांतभावथी गवडावता होय त्यारे जिनमंदिरनुं वातावरण मुमुक्षुभक्तोना
चित्तने जिनभक्तिमां थंभावी दे छे. भक्ति माटेना आ चारे पुस्तकोनो पण सारो
प्रचार छे. चारे पुस्तकनी अनेक आवृत्ति द्वारा लगभग त्रीसहजार जेटलां पुस्तको
छपाया छे.
जिनेन्द्रस्तवनावली कि. ०–७प जिनेन्द्रस्तवनमाळा किं. –१–१२
जिनेन्द्र भजनमाळा किं. १–०० जिनेन्द्र स्तवनमंजरी (अप्राप्त)
(८) नियमसार प्रवचनो: शुद्धात्मभावनाथी भरपूर नियमसार उपर पू. गुरुदेवनां
प्रवचनोमांथी बे पुस्तक छपाया छे. पहेलां पुस्तकमां शुद्धजीव–अधिकार (गा. १ थी
१९) उपरनां प्रवचनो छे. (अप्राप्त) बीजा पुस्तकमां शुद्धभाव अधिकारनी पांच
गाथा (३८ थी ४२) उपरनां प्रवचनो छे. किं. १–६२
(९) आत्मसिद्धि गाथा: श्रीमद्राजचंद्रजीनी ‘आत्मसिद्धि’ –जे स्वाध्याय माटे सर्वे
जिज्ञासुओने उपयोगी छे. अनेक आवृत्ति छपायेल छे: किं. ०–१३
(१०) जैनसिद्धांतप्रवेशिका: शिक्षणवर्गनुं ने पाठशाळाओनुं पाठ्यपुस्तक (पंडित श्री
गोपालदासजी बरैया रचित) शास्त्रना अभ्यासनी पूर्वभूमिकारूपे उपयोगी छे. ने
जैन–शब्दकोश जेवुं काम आपे छे. (अप्राप्त) (हिंदी सुरतथी मळे छे.)
(११) समयसार–प्रवचन: भाग २ (विगत माटे जुओ पुष्प नं. १ मां)
(१२) आत्मसिद्धि–सार्थ: आत्मसिद्धि अर्थ सहित, जिज्ञासुओने स्वाध्याय माटे उपयोगी छे.
मूल्य ०–२प
(१३) मुक्ति का मार्गः हिंदीमां जेनी २३००० जेटली नकलो छपाई गई छे; ते सुप्रसिद्ध
पुस्तक (विगत माटे जुओ पुष्प नं. ६ मां) पांचमी ने छठी आवृत्ति खास
संशोधनपूर्वक छपायेल छे.
आ पुस्तको मंगाववा माटे नीचेना सरनामे लखवुं–
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ (सौराष्ट्र)
रवानगी खर्च अलग समजवुं. जुओ, कमिशन संबंधी माहिती माटे गतांकमां जुओ,
अथवा बाजुना सरनामे पूछावो.

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :५:
(१४) धर्मनी क्रिया: युक्तिपूर्वक दलीलोथी ने शास्त्र आधारथी जड–चेतननी भिन्नता
समजावीने, धर्मनी क्रियानुं स्वरूप बतावतुं पुस्तक, जेनुं बीजुं नाम छे मोक्षनी क्रिया:
बीजी आवृत्ति किं: १–प०
(१प) अनुभवप्रकाश अने सत्तास्वरूप: (बंने संयुक्त पुस्तक) पं. दीपचंदजी शाह रचित
अनुभवप्रकाशमां अत्यंत रोचक शैलीथी आत्माना अनुभव माटे चानक चडे तेवुं
सरस वर्णन छे. नानकडुं सुंदर पुस्तक दरेक जिज्ञासुने उपयोगी छे; बीजुं पुस्तक
‘सत्तास्वरूप’ पं. श्री भागचंदजी छाजेड रचित छे, तेमां सर्वज्ञसत्तानी सिद्धि करीने ए
बताव्युं छे के सर्वज्ञदेवनो भक्त केवो होय? सर्वज्ञनी ओळखाण क्यारे थई कहेवाय?
ने जैनपणुं केवुं होय? आ पुस्तक दरेक जिज्ञासुने तत्त्वनिर्णय माटे उपयोगी छे. बंने
पुस्तकनी अनेक आवृत्ति छपाई गई छे. किंमत–एक रूपीओ.
(१६) सम्यग्ज्ञान दीपिका: क्षुल्लक धर्मदासजी रचित आ नानकडुं पुस्तक अत्यंत
सुगमशैलिथी, द्रष्टान्त अने चित्रो सहित स्वानुभवनी प्रेरणा आपे छे. दरेक जिज्ञासुने
आत्मभावना माटे उपयोगी छे. सचित्र पुस्तक किंमत १–प०
(१७) मोक्षशास्त्र: (गुजराती टीका संग्रह) आचार्य उमास्वामी रचित आ पुस्तक नानकडा
पण अर्थगंभीर ३प७ सूत्रोद्वारा जैनसिद्धांतनो सार समजावे छे. जैनोमां सर्वमान्य
अने नानामोटा सौने उपयोगी एवुं आ शास्त्र पाठशाळाओनुं पाठ्यपुस्तक छे; आ
शास्त्र उपर अनेक धूरंधर आचार्योए जे विशाळ टीकाओ रची छे; ते टीकाओना
सारनो संग्रह आ पुस्तकमां छे: दरेक अभ्यासीओने उपयोगी छे. आवृत्ति: त्रीजी पृ.
९१प किं. ४ हिन्दी आवृत्ति त्रीजी–पृ. ९०० मूल्य रूा. पांच.
(१८) समयसार प्रवचनो भाग: ४ (विगत माटे जुओ पुष्प नं. २ मां)
(१९)
मूलमें भूल: पं. श्री भगवतीदासजी रचित उपादान–निमित्तना ४७ दोहरा उपरनां
प्रवचनो आ पुस्तकमां छपाया छे. आ पुस्तके जैनसमाजमां उपादान–निमित्तनुं
स्वरूप समजवा माटे सरस जागृती करी छे. उपादान अने निमित्त ए बंने स्वतंत्र
होवा छतां, तेमने पराधीन मानवा ते तत्त्वनी मूळमां ज भूल छे. एम बतावीने,
सत्यस्वरूपनी समजणद्वारा ते भूल टाळवानुं आ पुस्तक बतावे छे. उपादान अने
निमित्त ए बंनेनी सामसामी अनेक दलीलोथी संवादरूपे होवाथी आ पुस्तकनी
शैली रोचक छे. हिंदी–गुजरातीमां घणी नकलो प्रगट थई चूकी छे.

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:६: आत्मधर्म : पोष : २४९४
मूलमें भूल [हिन्दी आवृत्तिः] मूल्य ०–प०
मूळमां भूल (गुजराती आवृत्ति:) किं. ०–७प
(२०) द्रव्यसंग्रह: श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती जेवा समर्थ आचार्यद्वारा रचित आ सुप्रसिद्ध
पुस्तक जैन सिद्धांतनुं सरस प्रतिपादन करे छे. टूंकामां घणो सार भरी दीधो छे.
पाठशाळानुं पाठ्यपुस्तक छे, ने नानामोटा सौने उपयोग छे: तेनो गुजराती अनुवाद
अर्थसहित (अप्राप्त) हिन्दी आवृत्ति रूा. १)
(२१) जैन–बालरामायण: भगवानश्री रामचंद्रजीनी जीवनगाथा रविकीर्तिस्वामीए
‘पद्मपुराण’ मां आलेखी छे–पद्म ए रामचंद्रजीनुं बीजुं नाम छे; एटले पद्मपुराण ए
जैनरामायण छे. तेमांथी संक्षिप्त करीने नानुं पद्मपुराण थयुं हतुं. तेनुं आ गुजराती
भाषांतर छे. बाळकोने खास उपयोगी छे; राम अने सीताजी तेमज रावण वगेरे
संबंधी अनेक भ्रांत धारणाओ दूर करे छे. गुजरातीमां मळतुं नथी. (हिंदीमां सुरतथी
मळे छे. (किं. पचास पैसा.)
(२२) समयसार–पद्यानुवाद: स्वाध्याय माटे उपयोगी; आ पुस्तकनी केटलीये आवृत्ति छपाई
गई छे. लगभग दरमहिनानी वद आठमे समयसारनी समूहस्वाध्याय थाय छे.
(समयसार उपरांत प्रवचनसार, नियमसार ने पंचास्तिकायना पण हरिगीतमां
पद्यानुवाद छपाया छे. अवारनवार ते दरेकनी पण समूहस्वाध्याय थाय छे.)
स्वाध्याय माटेना आ बधा पुस्तकोनो संग्रह “शास्त्रस्वाध्याय” नामना पुस्तकरूपे
प्रगट थयेल छे. किंमत १–प०
(२३) जिनेन्द्रस्तवनमंजरी: (अप्राप्त) विगत माटे जुओ पुष्प नं. ७ मां.
(२४) प्रतिक्रमण: प्रतिक्रमणनुं साचुं स्वरूप समजावतुं आ एक संकलन छे. पर्युषण वगेरेना
दिवसोमां अनेक जिज्ञासुओ आ ‘प्रतिक्रमण’ नो उपयोग करे छे. अनेक आवृत्ति
छपायेल छे. किंमत पचास पैसा.
(२प) वस्तुविज्ञानसार: (हिंदी तेमज गुजराती) पू. गुरुदेवना केटलाक खास प्रवचनो आ
पुस्तकमां छपाया छे; तेनी दशहजार प्रत जिज्ञासुओने भेटरूपे आपवामां आवी हती.
हिंदी फरीने पांच हजार छपाणी छे, –जिज्ञासुओने भेट आपवा माटे.)
(बीजा पुस्तकोना परिचय माटे जुओ पानुं २प)

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म : ७:
आत्मानी खरी खटक होय तो...
(वीतरागी सन्तोनो मोटो उपकार)
कोई कहे के आत्मा समजवा माटे अमने निवृत्ति नथी. मळती; –तो तेने कहे छे के भाई,
तारी वात जूठी छे, तने आत्मानी खरी रुचि नथी एटले तुं बहानुं काढे छे. तने विकथानो तो
वखत मळे छे, ऊंघवानो ने खावानो वखत तो मळे छे! ने आत्माना विचार माटे वखत नथी
मळतो? आत्मानी खरी खटक होय तो तेने माटे बीजानो रस छोडीने वखत काढ्या वगर रहे ज
नहीं. भाई! आवा अवसर फरीफरी नथी मळता. आत्मानो जेवो स्वभाव छे तेवो समजीने
श्रद्धा करवी, तेनो रस करवो तेमां ज सुख छे, बाकी तो संसारना बाह्य भावोमां दुःख दुःख ने
दुःख ज छे. अहा, जे आत्मस्वभावनी प्रेमथी वात करतां पण आनंद आवे तेना साक्षात्
अनुभवना आनंदनी शी वात! माटे हे जीव! दुःखथी छूटवा ने आनंदित थवा तुं आत्मामां ‘हुं
शुद्ध चिंदानंद छुं’ –एवी श्रद्धाना संस्कार पाड. जेणे साची श्रद्धा करी तेणे आत्मामां मोक्षना
मंगल स्थंभ रोप्या. सम्यग्दर्शन कर्युं ते अल्पकाळमां मोक्षपुरीनो नाथ थशे.
कहेवाय छे के ‘द्रष्टिए दोलत प्रगटे. ’ –कई द्रष्टि? शुद्ध आत्माने देखनारी द्रष्टि, तेना वडे
केवळज्ञानादि अनंत गुणनी दोलत प्रगटे छे. अरे, रुचिना अभावे पोताने पोतानो स्वभाव ज
कठण लागे छे, ने बाह्य विषयोनी रुचि छे एटले ते सहेलुं लागे छे. –ए तो जीवनी रुचिनो ज
दोष छे. रुचि करे तो आत्मानी समजण सुगम छे. आ काळे स्वरूपनो अनुभव कठण छे–एम
कहीने जे तेनी रुचि छोडी दे छे ते बहिरात्मा छे. जेने जेनी रुचि अने जरूरीयात लागे तेनी
प्राप्तिमां तेनो प्रयत्न वळे ज. जेने आत्मानी रुचि खरेखर होय तेनो प्रयत्न आत्मा तरफ वळे
ज. बाकी रुचि करे नहि, ज्ञान करे नहि अने रागने धर्मनुं नाम आपी द्ये तेथी ते राग कांई धर्म
न थई जाय. कडवा करीयाताने कोई ‘साकर’ नुं नाम आपीने खाय तोपण ते कडवुं ज लागे;
तेम रागने कोई धर्म माने तोपण ते रागनुं फळ तो संसार ज आवे, तेनाथी कांई मोक्ष न थाय.
जेवो पुरुषार्थ करे तेवुं कार्य प्रगटे. स्वभावनो पुरुषार्थ करतां सम्यग्दर्शनादि स्वभावकार्य प्रगटे;
अने रागनो पुरुषार्थ करतां पुण्य–पाप थाय पण धर्म न थाय.

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:८: आत्मधर्म : पोष : २४९४
पुरुषार्थ करे रागनो ने फळ मागे धर्मनुं, –ए क्यांथी मळे? आत्मानो जेवो स्वभाव छे तेवो
द्रष्टिमां लईने तेनी सन्मुख परिणमे ते जीवने अल्पकाळमां मोक्षप्राप्ति थशे थशे ने थशे.
सर्वज्ञपरमात्मानी वाणी झीलीने कुंदकुंदाचार्यदेवे तेनुं रहस्य आ परमागमोमां उतार्युं छे.
‘जिनदेव आम कहे छे’ –एम भगवाननी साक्षी आपीने तेमणे आत्मस्वभावने प्रसिद्ध कर्यो छे.
अने तेमना पछी एकहजार वर्षे अमृतचंद्राचार्य थया तेमणे पण ‘भवसमुद्रनो किनारो जेमने
नीकट छे एवा कुंदकुंदाचार्यदेव’ –एम कहीने तेमना हृदयनुं रहस्य टीकामां खोल्युं छे. अहा, ए
वीतरागी दिगंबर सन्तोनो मुमुक्षु जीवो उपर मोटो उपकार छे.
ि त्त्त्, जी
केम नथी मळती? बीजा प्रयोजन वगरनी उपाधिमां लाग्यो रहे छे,
पण भाई! तारा आत्मानी अद्भुता तो देख! अहो, चैतन्यनो
कोई अद्भुत आनंदकारी स्वभाव छे; जगतनी जेमां उपाधि नथी ने
पोताना निजानंदमां केली करतुं जे परिणमी रह्युं छे. एवा तारा
न्त्त् जा.
अहा, अनंतशक्तिवाळा आत्माने जे लक्षमां ल्ये तेने विकारनो प्रेम
केम रहे? जेने मोक्षनी लगनी छे, जेने आत्माना वैभवनी लगनी
छे, अनुभवनी धगश छे, एवा मोक्षार्थी जीवने आचार्यदेवे परम
करुणाथी आत्मवैभव देखाड्यो छे. स्वानुभूति वडे आवो
आत्मवैभव प्राप्त थाय छे.

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म : ९:
अनुभवनी उत्तम वात
(आ संबंधी बे लेख गतांकमां पृष्ठ १० तथा १७ मां प्रगट थया छे.)
(कारतक वद १० समयसार कलश ९० ना प्रवचनमांथी)
ज्ञानस्वरूप आत्मा निर्विकल्पस्वरूप छे; तेने अनुभवमां लेवानी रीत शुं छे? ते वात
आत्मा स्वभावथी अबंध छे; पण पर्यायना विकल्पमां ऊभो रहीने ‘अबंध छुं’ एवो जे
अबद्ध–शुद्धआत्मा तेमां परिणमन थतां, अबद्ध छुं–एवा विकल्पनुं परिणमन व्यय पामे
सम्यग्दर्शन ते शांत–समरसी परिणमन छे; वस्तुमां अभेद परिणमन थतां एवुं
हुं शुद्ध छुं–अबद्ध छुं–प्रत्यक्ष छुं एम खरुं लक्ष क्यारे थ्युं? के पर्याय अंतरमां वळी त्यारे.
पर्याय, पर्यायना लक्षमां रहेती नथी, पर्याय, द्रव्यना लक्षमां जाय छे ने तेमां एकाग्र थतां
विकल्पनुं कर्तृत्व छूटी जाय छे. पर्याय पर्यायना ज लक्षमां रह्या करे ने अंतर्मुख द्रव्यना लक्षमां न
आवे त्यांसुधी सम्यक्त्व थाय नहि ने विकल्पनुं कर्तृत्व छूटे नहीं. विकल्पनो खखडाट लईने अंदर
शांत–समरसभावमां जई शकाय

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:१०: आत्मधर्म : पोष : २४९४
नहि. समभावनुं परिणमन ते धर्म छे, ते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे, तेमां विकल्पनो खखडाट
नथी.
बीजा विकल्पोमां रोकाया करे एने आत्मा क्यांथी समजाय? जे वस्तु समजवानी छे ते
वस्तुनी सन्मुख न जाय तो ते केम समजाय? वस्तुस्वभावनी सन्मुख उपयोग करे ने
विकल्पमांथी उपयोगने हठावे तो ज आत्मवस्तु समजाय ने अनुभवमां आवे.
जुओ तो खरा, आ समरसनी केवी सरस वात छे! आजे तो भगवान महावीर
परमात्माए मुनिदशा अंगीकार करी; शुद्धोपयोग प्रगट करीने मुनि थया; चारित्रदशा आजे थई.
अहा, ईन्द्रोए जेमना चारित्रनो महोत्सव कर्यो–एनी शी वात! त्रण ज्ञान तो जन्मथी ज लाव्या
हता, ने आजे (कारतक वद दशमे, शास्त्रीय भाषामां मागशर वद दशमे) चोथुं ज्ञान
आत्मध्यानमां प्रगट थयुं; शुद्धोपयोगरूप महा समरसभाव प्रगट थयो. सम्यग्दर्शनरूप समरस
तो पहेलेथी हतो ज, आजे तो चारित्ररूपी महान समरस प्रगट्यो.
विकल्पमां चैतन्यना समरसनो अनुभव नथी; ने समरसना अनुभवमां विकल्पनी
विषमता नथी. निर्विकल्प शांतरसना अनुभवपूर्वक सम्यग्दर्शन थाय छे. सम्यग्दर्शन थतां द्रव्य
ने पर्याय बंने समरसपणे अनुभवाय छे. जेवी वस्तु हती. तेवी पर्याय थईने अनुभवमां
आवी. शुद्ध परिणामद्वारा शुद्धद्रव्य नक्क्ी थाय छे. वीतरागमार्गनो आ रस छे. आमां पर्याये
‘वीतराग’ थईने वीतरागस्वरूपनां दर्शन कर्या. रागवडे वीतरागस्वरूप अनुभवमां न आवे.
द्रव्य ने पर्याय बंने समरस एकरूप थाय त्यारे शुद्ध वस्तु अनुभवमां आवे छे, तेमां विकल्पो
रहेता नथी.
विकल्पो तो ईन्द्रजाल जेवा छे. ‘हुं शुद्ध छुं’ एवा विकल्पमां शुद्धआत्मा प्रकाशतो नथी,
माटे विकल्पो तो ईन्द्रजाल जेवा छे; शुद्धचैतन्यनी अनुभूति थतां ज विकल्पनी ईन्द्रजाल अलोप
थई जाय छे; आत्मतत्त्व महा आनंदसहित स्फूरायमान थाय छे. ते आनंदमां बीजो कोई विकल्प
रहेतो नथी. आवुं जे चैतन्यतत्त्व ते हुं छुं–एम धर्मी अनुभवे छे.
शुद्ध स्वभावनी सन्मुख निशान लईने ज्यां ज्ञाननो टंकार थयो त्यां विकल्पजाळ क्यांय
भागी गई. चैतन्यसूर्यना तेज पासे विकल्परूप अंधकार टकतो नथी. सुखनो सूरज ऊग्यो त्यां
विकल्परूप दुःख केम रहे?

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:अषाढ: २४९८ आत्मधर्म :११:
विकल्प तो राग छे–स्थूळ छे, तेमां सम्यग्दर्शनादि देवानी ताकात नथी. विकल्पमां आत्मा
आ रीते शुद्धचैतन्यने अनुभववो–ते ज कार्यसिद्धि छे, ते ज मुमुक्षुनुं खरूं कार्य छे. आवा
आत्मानी ऊर्ध्वता
अद्भुत ज्ञानवैभववाळो आत्मा त्रिलोकनो सार छे. बधा पदार्थोमां
आत्मानी ऊर्ध्वता छे, केमके आत्मा न होय तो जगतने जाणे कोण?
जगत छे–एम तेना अस्तित्वनो निर्णय आत्माना अस्तित्वमां ज थाय
छे. जगतनो जाणनार एवो जे ज्ञानस्वरूप आत्मा, तेना अस्तित्वना
स्वीकार वगर जगतना कोई पदार्थना अस्तित्वनो निर्णय थई शके
नहीं. माटे बधा पदार्थोमां आत्मानी ऊर्ध्वता छे.

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:१२: आत्मधर्म : पोष : २४९४
परम शांतिदातारी अध्यात्मभावना
(लेखांक – प८) (अंक २९० थी चालु)
भगवानश्री पूज्यपादस्वामीरचित समाधिशतक उपर पूज्यश्री
कानजीस्वामीनां अध्यात्मभावनाभरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
(सं. २०१२ श्रावण सुद शनिवार)
आत्मस्वरूपनी भावना करवाथी आत्मा पोते स्वत: परमात्मपदने पामे छे–एम हवे कहे छे–
इतीदं भावयेन्नित्यम् अवाचांगोचरं पदम् ।
स्वतएव तदाप्नोति यतो नावर्तते पुनः ।।९९।।
आगली गाथाओमां भिन्नउपासनानुं अने अभिन्न उपासनानुं स्वरूप कह्युं, ए बंनेमां
शुद्धात्मस्वरूपनी सन्मुखता छे. ए रीते जाणीने निरंतर ते शुद्ध आत्मानी भावना करवी जोईए;
तेनी भावनाथी वचनने अगोचर एवुं परमपद आत्मा स्वत: पामे छे–के जेमांथी कदी पण
पुनरागमन थतुं नथी.
सिद्ध भगवान तथा अर्हंत भगवानने जाणीने पहेलांं तो आत्माना वीतराग–विज्ञान
स्वभावनो निर्णय करवो जोईए, ने पछी तेनी भावनाथी तेमां एकाग्रतानो द्रढ अभ्यास करवो
जोईए. आ ज परमात्मा थवानो उपाय छे. कोई निमित्तनो आश्रय करीने के रागादिनो आश्रय
करीने सिद्ध के अर्हंत भगवंतो परमात्मदशाने नथी पाम्या, पण आत्मस्वरूपनो आश्रय करीने तेना
ध्यानथी ज परमात्मदशा पाम्या छे.
समयसार गा. ४१० मां कहे छे के– शरीराश्रित मोक्षमार्ग नथी; अर्हन्त भगवंतोए शरीरनुं
ममत्व छोडीने शुद्धात्माना आश्रये दर्शन–ज्ञान–चारित्रने ज मोक्षमार्गपणे उपास्या छे. भगवंतोए
स्वद्रव्याश्रित एवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने ज मोक्षमार्ग कह्यो छे. माटे हे भव्य!
शुद्धज्ञानचेतनामय थई ने तुं तारा आत्माने ध्याव.
पोताना शुद्धआत्मानी भावनाना प्रभावथी ज आत्मा सर्वज्ञ थाय छे; अहो, सर्वज्ञपदनो
महिमा वचनथी अगोचर छे, तेनी प्राप्ति शुद्धात्मानी भावना वडे एटले के स्वानुभव वडे थाय छे.
तेथी श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के ‘अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो. ’ सर्वज्ञस्वभावथी भरेला
पोताना चैतन्यपदने छद्मस्थज्ञानी पण पोताना स्वानुभव वडे बराबर जाणी शके छे. एने जाणीने
एनी ज नित्य भावना करवा जेवी छे.
शुद्धस्वरूपनी भावना करनार, एटले के पर्यायने अंतर्मुख करीने स्वरूपमां लीन करनार

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :१३:
जीव, स्वयं पोताथी ज सिद्धपद पामे छे, कोई बीजा बाह्यसाधनने लीधे सिद्धपद नथी पामतो,
संस्कृतमां लखे छे के मोक्ष कई रीते पामे छे? –के
‘स्वत एव आत्मनैव परमार्थतो न पुनः
गुरुआदि बाह्यनिमित्तात्’ अर्थात् पोताथी–पोताना आत्माथी ज परमार्थे मोक्ष पामे छे, नहि के
जेने पोताने मोक्षपद साधवुं छे, तो तेवा मोक्षपदने पामेला (अरिहंतो ने सिद्धो) तथा
तेने साधनारा (साधुमुनिराज वगेरे) जीवो केवा होय तेनी ओळखाण तो तेने होय ज. एनाथी
विपरीत तरफ तेनो भाव झुके नहि. पण अहीं तो एनाथी आगळ वधीने ठेठ आराधनानी
पूर्णतानी उत्कृष्ट वात छे. साचा देव–गुरुने ओळख्या पछी पण तेमना ज लक्षे रागमां रोकाई
रहेतो नथी पण एमना जेवा निजस्वरूपना अनुभवमां एकाग्र थईने मोक्षने साधे छे. जेटली
निजस्वरूपमां एकाग्रता तेटलो मोक्षमार्ग. अहो, एकला स्वाश्रयमां मोक्षमार्ग समाय छे.
अंशमात्र पराश्रय मोक्षमार्गमां नथी. मोक्षमार्गमां परनो आश्रय माने तेणे साचा मोक्षमार्गने
जाण्यो नथी. भाई, परना आश्रये मोक्षमार्ग मानीश तो तेनुं लक्ष छोडीने निजस्वरूपनुं ध्यान तुं
क्यारे करीश? पर लक्ष छोडी, निजस्वरूपना ध्यानमां लीन थया वगर त्रणकाळमां कोईनो मोक्ष
थाय नहीं. –हजी आवो मार्ग पण नक्क्ी न करे ते तेने साधे क्यारे? मार्गना निर्णयमां ज जेनी
भूल होय ते तेने साधी शके नहीं. अहीं तो निर्णय उपरांत हवे पूर्ण समाधी प्राप्त करीने जन्म–
मरणना अभावरूप सिद्धपद थवानी वात छे. –ए ज साचुं समाधिसुख छे. “सादि अनंत अनंत
समाधि सुखमां, अनंत दर्शन ज्ञान अनंत सहित जो” –आवा निजपदनी प्राप्तिनो अपूर्वअवसर
आवे–एवी आ वात छे.
।। ९९।।
अर्हन्तमार्गमां मोक्षना उपायनुं यथार्थस्वरूप शुं छे ते बताव्युं ने तेना फळमां परमपदनी
प्राप्ति पण बतावी. हवे आवो यथार्थ मोक्षमार्ग बीजा कोई अन्य मतोमां होतो नथी, –ए वात
समजावे छे–
अयत्नसाध्यनिर्वाणं चित्तत्त्वं भूतजं यदि ।
अन्यथा योगतस्तस्मान्न दुःखं योगिनां क्वचित् ।।१००।।
चैतन्यतत्त्व आत्मा स्वतःसिद्ध, देहथी भिन्न तत्त्व छे, ते अविनाशी छे. आ
चैतन्यतत्त्व ‘भूत’ एटले के पृथ्वी–पाणी–अग्नि–वायु वगेरेथी उत्पन्न थयुं होय तो तो देहनी
उत्पत्ति साथे तेनी उत्पत्ति, अने देहना नाशथी तेनो नाश–एम थाय, एटले मोक्षने माटे कोई
यत्न करवानुं न रहे. देहना संयोगोथी आत्मा उपजे ने देहना वियोगथी आत्मा नाश पामे, –
देहथी जुदो कोई आत्मा छे ज नही–एम नास्तिक लोको माने छे;

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:१४: आत्मधर्म : पोष : २४९४
वळी बीजा कोई एम माने छे के आत्मा तो सर्वथा शुद्ध ज छे, पर्यायमांय अशुद्धता नथी.
आ रीते, देहथी भिन्न आत्मतत्त्वनी नित्यता, तेनी पर्यायमां अशुद्धता, तथा प्रयत्नद्वारा
देह ते आत्मा नथी एम भिन्नता जाणीने जेणे पोताना उपयोगने निज स्वरूपमां जोड्यो
अहीं तो कहे छे के देह आत्मा नथी,
‘तस्मात् न दुःखं योगिनां क्वचित’ एटले देहथी भिन्न चैतन्यतत्त्वमां ज्यां उपयोगने
आम देहथी भिन्न आत्मतत्त्वने जाणीने तारा निजस्वरूपमां उपयोगने जोड, –एवो
उपदेश छे. निजस्वरूपमां उपयोगने जोडवो ते ज मोक्षमार्ग छे, तेमां सुख छे, तेमां समाधि छे,
तेमां महा आनंद छे, तेमां किंचित् दुःख नथी.
।। १००।।

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :१५:
दरेक जीवनी फरज
आ मोंघुं मानवजीवन पामीने तेने जेम तेम वेडफी न नांखतां, हे
जीव! आत्महित माटे सन्तो तने तारी जे फरज बतावे छे ते समजीने
ते माटे उद्यमी था....ने तारा जीवनने सफळ कर.
पोताना आत्माने ओळखवानो प्रयत्न
करवो ते ज दरेक जीवनी पहेली फरज छे.
अत्यारे तो लोको बहारमां फरज–फरज करे छे,
देशनी फरज, कुटुंबनी फरज पुत्रनी फरज,
युवानोनी फरज–एम अनेक प्रकारे बहारनी
फरज मनावे छे ने मोटा मोटा भाषण करे छे,
–पण अहीं तो कहे छे के, भाई, ए बधी
बहारनी फरज ते तो वृथा व्यथा छे, –मफतनी
हेरानगती छे. आ आत्मानी समजण करवी ते
ज बधायनी खरी फरज छे, –ए फरज एक वार
बजावे तो मोक्ष मळे.
जुओ, आ आत्मानी फरज! बहारमां
क्यांय आत्मानी फरज छे? के ना; बहारनुं तो
आत्मा कांई करी शकतो नथी, छतां फरज माने
ते तो मिथ्या–अभिमान छे, तारो स्व–देश तो
तारो आत्मा छे, अनंत गुणथी भरेलो तारो
असंख्यप्रदेशी आत्मा ज तारो ‘स्वदेश’ छे,
तेने ओळखीने तेनी सेवा (आराधना) कर, ते
तारी फरज छे; ए सिवाय बहारनो देश ते तो
‘पर–देश’ छे, तेमां तारी फरज नथी.
हवे अंदर शुभराग थाय ते तो फरज छे ने?
–तो कहे छे के ना; राग ते पण खरेखर फरज
नथी. राग करे छे पोते, पण ते फरज नथी–
कर्तव्य नथी, केम के तेमां पोतानुं हित नथी.
जेमां पोतानुं हित न होय तेने फरज केम
कहेवाय? अंतरमां चैतन्यमूर्ति आनंदथी
भरपूर पोताना आत्माने ओळखीने तेना
आश्रये सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र प्रगट
करवा, ने ए रीते आत्माने भवदुःखथी
छोडाववो ते दरेक जीवनी फरज छे.
आ देह तारो नथी,
देहमां तारी कंई फरज नथी,
ने देह तने शरण नथी.
तारी अनंत शक्तिमां राग नथी,
राग ते तारी फरज नथी,
ने राग तने शरण नथी.
तारो आत्मा अनंतशक्तिसंपन्न छे,
ते ज तारुं स्वरूप छे,
ने ते शक्तिनी संभाळ करीने तेमांथी

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:१६: आत्मधर्म : पोष : २४९४
–माटे तेने ओळखीने तेनुं शरण कर, ने
तारी फरज बजाव. हुं परनुं करी दउं एवी
मान्यतामां जे रोकाय छे ते पोतानी वास्तविक
फरज चूकी जाय छे. माटे हे भव्य! परनुं
करवानी बुद्धि तुं छोड, ने आत्महितमां तारी
बुद्धि जोड. आत्मानी
संभाळ कर, तेनुं शरण कर, ने तेना शरणे
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट करीने तारा
आत्माने भवभ्रमणथी छोडाव....ने ए रीते
तारी फरज बजाव. आ मनुष्यपणुं पामीने
आत्माने हवे भवदुःखथी छोडाववो ते ज, हे
जीव! तारी फरज छे, ने ते माटे तुं तारा
आत्माने ओळखवानो प्रयत्न कर.
(आत्मप्रसिद्धि)
आत्मानुं सुख
आत्माना स्वभावमां सहज सुख छे, बहारमां आनंद न
होवा छतां कल्पनाथी तेमां जे आनंद माने छे ते पोते आनंदस्वरूप छे.
पोतानो आनंद पोतामां भर्यो छे पण पोताना आनंदने भूल्यो एटले
तेनो आरोप बीजामां कर्यो के ‘आमां मारो आनंद छे. ’ –पण ए
आरोप मिथ्या छे–खोटो छे.
‘परमां मारुं सुख’ –एनो अर्थ ए थयो के आत्मा अहीं ने
तेनुं सुख क्यांक बीजे, एटले आत्मा अने सुख बंने जुदा ज ठर्या;
सुख ते आत्मानो स्वभाव न रह्यो! पण भाई, एवो (सुख
वगरनो) आत्मा न होय. आत्मा तो सुखस्वरूप छे. आत्मा आनंदथी
खाली नथी, आत्मा पोताना आनंदथी भरेलो छे. एनुं भान करतां
आनंदना स्वादनुं वेदन थाय छे.

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :१७:
अनुभवनो मार्ग
आत्माना अनुभवनो मार्ग ऊंडो गंभीर अंतरनो छे.
भगवाननो मार्ग ए अनुभवनो मार्ग छे, जैनशासन आत्मानी अनुभूतिमां समाय छे.
जे विकल्प करवामां ज ऊभो छे ने निर्विकल्पतामां आवतो नथी ते ज विकल्पनो कर्ता छे;
विकल्पने पोतारूप जाणे तेने तेनुं कर्तापणुं केम छूटे? अने अंतर्मुख ज्ञानभावमां आव्यो
चैतन्यना प्रवाहमां वच्चे विकल्पनुं कर्तृत्व रहेतुं नथी. ने जे जीव विकल्पना प्रवाहमां
अरे, चैतन्यना आनंदनी अनुभूति शुं छे –ते विकल्पमां आवती नथी. ‘धर्मात्माने
विचारदशा वखत ज्ञानीने ज्ञान अने विकल्प बंने जुदुं जादुं का्र्य करे छे, ते वखतेय बंने
एक थईने काम करता नथी. ‘निर्विकल्पता वखते ज ज्ञानीने ज्ञान अने विकल्प जुदा छे ने
सविकल्पदशा वखते तेनुं ज्ञान विकल्पथी जुदुं नथी’ –एम नथी. अनुभवपूर्वक रागथी भिन्न
ज्ञान परिणम्युं ते पछी साधकदशामां सदाय (निर्विकल्प के