Atmadharma magazine - Ank 291
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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:१८: आत्मधर्म : पोष : २४९४
सविकल्प गमे ते दशा वखते पण) जुदुं ज परिणमे छे. ज्ञान कदी पण विकल्पना कर्तापणे
परिणमतुं नथी. एवा अकर्ता ज्ञानने ओळखे तो ज ज्ञानीनी खरी ओळखाण थाय छे, ने
पोतानेय तेवुं ज्ञान प्रगटे छे.
स्वसन्मुख विचार ते ज्ञान छे, ते विकल्प नथी, –एम गतांकमां (अंक २९० मां) आवेल
ते संबंधी अहीं विशेष स्पष्टीकरण छे. साधकने विचारदशा वखते ‘ज्ञान’ अने ‘विकल्प’ बंने
एक साथे वर्ते छे, पण त्यां ज्ञानी तो ज्ञानरूपे ज पोताने जाणे छे, ने विकल्परूपे पोताने जाणता
नथी, एटले तेने विकल्पना काळेय ज्ञानमां विकल्पनुं कर्तृत्व नथी; विचारदशा वखतेय तेने ज्ञान
अने विकल्प बंने भिन्न भिन्न कार्य करी रह्या छे; ते वखतेय बंने एक थईने कार्य करता नथी. –
ज्ञानीनी आ वात खास समजवानी छे. ‘निर्विकल्पता वखते तो ज्ञानीनुं ज्ञान विकल्पथी जुदुं ज
छे, ने सविकल्पता वखते पण ज्ञानीनुं ज्ञान विकल्पथी जुदुं ज छे–ए वात लक्षमां लेवा जेवी छे.
निर्विकल्पअनुभवपूर्वक रागथी भिन्न ज्ञान परिणम्युं ते पछी साधकदशामां (सविकल्पदशा वखते
पण) सदाय जुदुं ज परिणमे छे. ते ज्ञान कदी पण विकल्पना कर्तापणे परिणमतुं नथी. आवा
अकर्ता ज्ञानने ओळखे तो ज ज्ञानीनी खरी ओळखाण थाय छे, ने पोतानेय तेवुं ज्ञान प्रगटे छे.
साधकदशाअनुसार, ज्ञान अने विकल्पना कार्यनी भिन्नता दरेक भूमिकामां समजी लेवी.
ज्ञाननो अनुभवनशील एटले के सम्यग्द्रष्टि जीव, तेना ज्ञानमां विकल्परूप परिणमन
नथी एटले ते विकल्पनो कर्ता नथी. मिथ्याद्रष्टिने विकल्पथी भिन्न ज्ञाननो अनुभव नथी एटले
विकल्पने ज अनुभवतो थको ते तेनो कर्ता थाय छे. जेवा परिणामरूपे जे परिणमे ते परिणामनो
तेने कर्ता कहेवाय छे. ज्ञानपरिणामे परिणमतो ज्ञानी ज्ञाननो ज कर्ता छे, ने विकल्पपणे
परिणमतो अज्ञानी विकल्पने ज करवामां ऊभो छे. आत्माने जेवा स्वरूपे जाणे छे तेवा ज
स्वरूपे पोते परिणमे छे. आत्माने जेणे अशुद्ध ज (विकल्परूप–रागरूप) जाण्यो तो ते
शुद्धपरिणामने क्यांथी करशे? ते अशुद्धपरिणामनो ज कर्ता थईने तेवो पोताने अनुभवशे. ने
जेणे पोताना आत्माने शुद्ध आनंदझरतो ज्ञानमय जाण्यो ते अशुद्धतानो कर्ता केम थशे? ते तो
ज्ञान–आनंदरूपे परिणमतो थको तेनो कर्ता थईने तेवो ज पोताने अनुभवशे. जे जेनो कर्ता
थईने परिणमे तेनो ज तेने अनुभव थाय. रागनो कर्ता थाय तेने निर्विकल्प–आनंदनो अनुभव
थाय नहीं.

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :१९:
स्वभावनी सन्मुखतामां रागादिनुं कर्तृत्व रहेतुं नथी.
स्वभावथी विमुखपरिणाममां ज रागादिनुं कर्तृत्व छे.
ए रीते सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्याद्रष्टि ए बंनेना परिणाममां घणो तफावत छे, तद्न जात
ज जुदी छे. एक ज्ञान, एक विकल्प, बंनेनी जात साव जुदी छे. जेम सूर्यनो प्रकाश थतां अंधकार
न रहे, तेम आत्मामां सम्यक्त्वरूप ज्ञानप्रकाश थतां तेमां विकल्पनुं कर्तृत्व रहेतुं नथी. अरे,
ज्ञानीथी विरुद्धभावनुं कर्तृत्व ज्ञानमां केम शोभे? ज्ञान विकल्परूपे थतुं नथी, छतां अज्ञानी
ज्ञानमां विकल्पनुं कर्तृत्व माने छे, ते कर्तृत्व आत्माने शोभतुं नथी, ज्ञाननो आदर न करतां
विकल्पनो आदर करे तेमां शोभा नथी, अशोभा छे–मिथ्यात्व छे.
शरीरना कर्तृत्वनी तो वात ज क्यां रही? पण ज्ञानमां रागनुं कर्तृत्व माने ते खरेखर
जैन नथी. जे ज्ञायकपणे आत्माने अनुभवे छे एटले शुद्धतारूपे परिणमे छे ते खरो जैन छे; ते
ज जिनना मार्गमां आव्यो छे एटले मोक्षना मार्गमां आव्यो छे.
ते मोक्षमार्गी जीव शुं करे छे? –के पोताना ज्ञान–आनंदरूप परिणामने करे छे,
–तेरूपे परिणमे छे; रागादिने पोताना ज्ञानपरिणामथी भिन्न जाणे छे– ‘जो जानै सो
जाननहारा’ जाणनार ते जाणनार ज रहे छे, ज्ञानी ज्ञानभावपणे ज परिणमे छे,
ज्ञानथी भिन्न विकल्पोमां कदी तन्मयरूप परिणमता नथी, तेने करता नथी. अहो, ज्ञान
अने विकल्पनी भिन्नतानी अद्भुत वात! –तेने पोतानी जाणीने प्रेमथी सांभळ तो खरो. आवुं
मारुं स्वरूप छे–एम लक्षमां तो ले. –ए लक्षमां लेतां अंदर रस्तो थई जशे.
चैतन्यनुं लोहचूंबक लगाडतां जे परिणाम आत्मामां खेंचाई आवे ते आत्माना खरा
(शुद्ध) परिणाम छे, ते परिणाम ज्ञान–आनंदनी पुष्टिरूप छे. जे परिणाम अंदर खेंचाई न आवे
ने बहार रहे ते रागादि अशुद्धपरिणामो खरेखर आत्माना नथी.
सविकल्पदशाना काळे पण ज्ञानीने ज्ञानमय भाव वर्ते छे, विकल्पथी जुदुं ज्ञान वर्ते छे.
ओछी शुद्धता हो, वधु शुद्धता हो ने पूरी शुद्धता थाय, ते शुद्धतानो जे भाव छे ते रागथी जुदो ज
छे; ते शुद्धता ज मोक्षनो मार्ग छे. स्ववस्तुना आश्रये शुद्धता छे; स्ववस्तुना अनुभव वगर
शुद्धता थाय नहि. आम बंनेने भिन्न जाणे त्यारे साचो अनुभव थाय ने मोक्षमार्ग प्रगटे.–
अनुभव रत्नचिंतामणि, अनुभव है रसकूप
अनुभव मारग मोक्षका, अनुभव मोक्षस्वरूप.
(स. कळश–९६)

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:२०: आत्मधर्म : पोष : २४९४
ज्ञान थयुं त्यारे.......
एक तरफ पुण्य पापना समस्त परभावो, अने बीजी तरफ ज्ञानस्वभाव, ए बंनेनी
भिन्नता जाणीने भेदज्ञान कर्युं त्यां शुद्धस्वरूपने प्रकाशित करतुं ज्ञान प्रगट्युं; ते ज्ञान केवुं छे? के
अतीन्द्रिय सुखप्रवाहनी साथे परिणमी रह्युं छे. अहा, अतीन्द्रिय सुखनो प्रवाह ज्ञानीना
आत्मामां वहे छे.....ते आत्मा पोते अतीन्द्रिय सुखप्रवाहरूपे परिणमे छे.
जुओ, आ आत्मामां सुखनो प्रवाह प्रगट करवानी रीत! बाकी तो दुनिया आखी
दुःखमां ध्रुजी रही छे. हमणां ज धरतीकंपनो ध्रूजारो जोयोने! पण भाई, तारो आत्मा अध्रुव
एवा परभावोमां अनादिथी ध्रूजी रह्यो छे; तेने निजस्वरूपमां स्थिर कर. –स्वरूपमां स्थिरता वडे
ज निर्भयता ने शांति प्रगटे छे. धरतीकंपमां लोको केवा भयभीत ने अशांत थई गया? पण
अंदर मोहनी अस्थिरतामां ज्ञान आकुळताथी कंपी रह्युं छे ते दुःखनो भय अज्ञानीने देखातो
नथी; एटले ते भयथी ने अशांतिथी छूटवानो उपाय ते करतो नथी.
जीव ज्यारे धर्मी थाय छे त्यारे पोताना स्वभावना साधनथी ज तेने सुखनो अनुभव
थाय छे. ते सुखने माटे तेने शुभविकल्पोनी के पुण्यसामग्रीनी जरूर नथी. पुण्यने साधन
बनाव्या वगर पोते पोताना ज्ञानथी ज परम सुखरूपे परिणमे छे.
पुण्य–पापना कर्तृत्वमां रोकायेलो आत्मा निरंतर दुःखी हतो; हवे पुण्य–पापरहित
अतीन्द्रियज्ञानरूप शुद्धदशामां परिणमतो आत्मा निरंतर सुखी छे. तेना सुखमां रागनी अपेक्षा
नथी, अन्य वस्तुनी अपेक्षा नथी, कोई क्षेत्रनी के काळनी अपेक्षा नथी; निरपेक्ष स्वाधीनसुख छे.
आवा स्वाधीन ज्ञान–सुखरूपे परिणमतो ज्ञानी रागादि क्रियाने के देहनी क्रियाने करतो
नथी; ते हो भले, पण तेनाथी भिन्न ज्ञानरूपे परिणमतो ज्ञानी तेने करतो नथी, तेने ते मोक्षनुं
साधन समजतो नथी. आवुं ज्ञान ते ज्ञानीनुं कार्य छे, ते ज्ञानीनुं चिह्न छे. ते ज्ञानी पोताना
ज्ञानस्वरूपमां सदा अकंप वर्ते छे.
जागृत थईने आत्माने जगाड्यो त्यां जुदी जातनी दशा थई जाय. तेने

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :२१:
पोताना सामर्थ्य वडे शुद्धस्वरूपनो प्रकाश थयो.....परभावोमां ज्ञान ऊंघतुं ते हवे जागीने
परभावोथी जुदुं पड्युं ने आनंदना प्रवाह साथे परिणमवा लाग्युं.
ज्ञाननुं परिणमन तेने कहेवाय के जे ज्ञानस्वभावरूप होय. शुभाशुभविकल्पो ते ज्ञाननुं
परिणमन नथी. विकल्प वखतेय धर्मीनुं ज्ञान तो ज्ञानरूपे ज परिणमी रह्युं छे; ते शुद्धपरिणमन
छे, ने तेटलो ज मोक्षउपाय छे. एना सिवाय जे कोई शुभ–अशुभ चारित्ररूप विकल्पो छे ते
निजस्वभावरूप नथी एटले ते मोक्ष उपाय नथी; ते तो बंधनुं साधन ज छे.
शुभआचरणने चारित्र कहेवुं ते केवुं छे? –के कामळाना सिंह जेवुं.
जेम कामळामां चितरेलो सिंह ते खरो सिंह नथी,
तेम शुभरागरूप चारित्र ते खरूं चारित्र नथी.
जेम कामळामां चितरेलो सिंह कोईने मारतो नथी, तेम शुभरागरूप चारित्र कोईने तारतुं
नथी. शुद्धतारूप जे आचरण छे ते ज खरो मोक्षमार्ग छे.
अहा, क्षणभर परभावथी जुदो पडतां जे परम सुख अनुभवाय छे ते ज्ञानी ज जाणे
छे.....तो सर्वथा परभावना अभावथी जे पूर्ण सुख थाय–तेनी शी वात! चैतन्यभगवान
पोताना आनंदसमुद्रमां तरबोळ थाय छे. –जाणे आनंदनुं नंदनवन खील्युं! आनंदनी गूफामां
गरी गया त्यां बहारनुं (परभावनुं) वेदन रहेतुं नथी.
ज्ञान थयुं त्यारे आवी आनंददशा खीली.....ने मोक्षनी साधना शरू थई.
(स. कळश १११)
विदेहक्षेत्रमां विद्यमान तीर्थंकरपणे बिराजमान श्री सीमंधरभगवान,
जेमनी पासे सो ईन्द्रो भक्तिपूर्वक आवीने श्रवण करे, ते भगवान पासे जईने
कुंदकुंदाचार्यदेव आ अद्भुत आत्मवैभव लाव्या छे; पोते जाते अनुभवीने
भरत – क्षेत्रना जीवोने आ ‘आत्मवैभव’ आप्यो छे. – अद्भुत आनंदकारी
वैभव बतावीने तेमणे उपकार कर्यो छे.

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:२२: आत्मधर्म : पोष : २४९४
अरिहंतने ओळखतां आत्मा ओळखाय
समयसारनुं साथीदार एवुं जे प्रवचनसार तेनी ८० – ८१ – ८२ मी
गाथामां कुंदकुंदस्वामीए मोहक्षयनो जे अमोघ उपाय बताव्यो छे.ते
गुरुदेवना हृदयमां कोतराई गयो छे. गुरुदेव ज्यारे प्रवचनमां ए
उपायना पुरुषार्थनो धोधमार उपदेश करता होय त्यारे श्रोताना
अंतरमां जागती ऊर्मिओ वडे मोह तूटुं – तूटुं थतो होय छे.)


जे जाणतो अर्हंतने गुण द्रव्य ने पर्ययपणे,
ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे. ८०
जे खरेखर द्रव्य–गुण–पर्यायपणे अर्हंतने जाणे छे ते पोताना आत्माने जाणे ज छे, ने
कोईने एम शंका थाय के अत्यारे तो अहीं अरिहंत नथी तो पछी अरिहंतने जाणवानी
वात केम करी? तो तेनुंसमाधान करे छे: भाई! अहीं अरिहंतना क्षेत्रनी वात नथी पण
अरिहंतनुं स्वरूप जाणवानी वात करी छे; अरिहंतनी अहीं ज साक्षात् हाजरी होय तो ज तेमनुं
स्वरूप जाणी शकाय, ने दूर होय तो न जाणी शकाय–एवो कोई प्रतिबंध नथी. अमुक क्षेत्रमां
अत्यारे अर्हंत नथी पण तेमनुं होवापणुं अन्यत्र–महाविदेहक्षेत्र वगेरेमां–तो अत्यारे पण छे.
अरिहंतप्रभु सामे साक्षात् बिराजता होय त्यारे पण तेमनुं स्वरूप ज्ञानद्वारा ज नक्क्ी थाय छे.
त्यां अरिहंत तो आत्मा ज छे, तेमना द्रव्य–गुण के पर्याय नजरे तो देखाता नथी छतां ज्ञानद्वारा
तेमना स्वरूपनो निर्णय थई शके छे, तो पछी तेओ क्षेत्रे जराक दूर होय त््यारे पण ज्ञानद्वारा
तेमनो निर्णय अवश्य थई शके छे. साक्षात् बिराजता होय त्यारे पण आंखथी (ईन्द्रियज्ञानथी)
तो अरिहंतनुं शरीर देखाय छे, शुं शरीर ते अरिहंतना द्रव्य–गुण–पर्याय छे? के शुं दिव्यवाणी ते
अरिहंतना द्रव्य–गुण–पर्याय छे? ना, ए बधुं तो आत्माथी जुदुं छे. चैतन्यस्वरूप आत्मा द्रव्य,
तेना ज्ञान–दर्शनादि गुणो अने तेनी केवळज्ञानादि पर्याय ते अरिहंत छे, ते द्रव्य–गुण–पर्यायने
यथार्थपणे ओळखे तो अरिहंतनुं स्वरूप जाण्युं कहेवाय. साक्षात् अरिहंत

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :२३:
प्रभुनी सामे बेसीने स्तवन करे परंतु तेमना द्रव्य–गुण–पर्यायनुं स्वरूप न समजे तो तेणे
अरिहंतनी परमार्थस्तुति करी नथी.
क्षेत्रथी नजीक अरिहंतनी हाजरी होय के न पण होय तेनी साथे संबंध नथी पण पोताना
ज्ञानमां तेमना स्वरूपनो निर्णय छे के नहि तेनी साथे संबंध छे. क्षेत्रथी नजीक अरिहंतप्रभु
बिराजता होय परंतु ते वखते जो ज्ञान वडे पोते तेमना स्वरूपनो निर्णय न करे तो ते जीवने
आत्मा जणाय नहि अने तेना माटे तो अरिहंत घणा दूर छे, अने अत्यारे क्षेत्रथी नजीक
अरिहंतप्रभु न होवा छतां पण जो पोताना ज्ञानवडे अत्यारे पण अरिहंतप्रभुना स्वरूपनो
निर्णय करे तो आत्मानी ओळखाण थाय अने तेना माटे अरिहंतप्रभु नजीक हाजराहजुर छे,
एना अंतरमां ज अरिहंतदेव बिराजे छे. क्षेत्र अपेक्षाए वात नथी पण भाव अपेक्षाए वात छे.
साची समजणनो संबंध तो भाव साथे छे.
अरिहंत क्यारे छे अने क्यारे नथी–ते कह्युं. महाविदेहक्षेत्रमां अथवा तो भरतक्षेत्रमां
चोथा काळे साक्षात् अरिहंत वखते पण जे आत्माओए द्रव्य–गुण–पर्यायपणे अरिहंतना
स्वरूपनो खरो निर्णय पोताना ज्ञानमां न कर्यो ते जीवोना ज्ञानमां तो ते वखते पण अरिहंतनी
हाजरी नथी, अने भरतक्षेत्रमां पंचमकाळे साक्षात् अरिहंतनी गेरहाजरीमां पण जे आत्माओए
द्रव्य–गुण–पर्यायपणे अरिहंतना स्वरूपनो खरो निर्णय पोताना ज्ञानमां कर्यो तेओने माटे तो
अरिहंतप्रभु साक्षात् मोजूद बिराजे छे.
समवसरणमां पण जे जीवो अरिहंतना स्वरूपनो निर्णय करीने आत्मस्वरूप समज्या ते
जीवोने माटे ज अरिहंतप्रभु मोहक्षयना निमित्त कहेवाया, पण जेओए निर्णय न कर्यो तेमने
माटे तो साक्षात् अरिहंतप्रभु पण धर्मना निमित्त कहेवाया नहीं. अत्यारे पण जे अरिहंतनो
निर्णय करीने आत्मस्वरूप समजे तेने ज्ञानमां अरिहंतप्रभु निमित्त कहेवाय छे.
जेनी द्रष्टि निमित्त उपर छे ते क्षेत्रने जुए छे के अत्यारे आ क्षेत्रे अरिहंत नथी; भाई,
रे! अरिहंत नथी परंतु अरिहंतने नक्क्ी करनार तारुं ज्ञान तो छे ने? ए ज्ञानने लंबाव तो
भावभेद तूटी जशे, ने क्षेत्रभेद पण नडशे नहि. जेनी द्रष्टि उपादान उपर छे ते पोताना ज्ञानना
जोरे अरिहंतनो निर्णय करीने क्षेत्रभेद काढी नाखे छे. अरिहंत तो निमित्त छे, अंतर्मुख थईने ते
अरिहंतनो निर्णय करनार

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:२४: आत्मधर्म : पोष : २४९४
ज्ञाननो महिमा छे. मूळ सूत्रमां “जो जाणदि” एम कह्युं छे एटले जाणनार ज्ञान ते मोहक्षयनुं
कारण छे. परंतु अरिहंत तो जुदा छे, तेओ आ आत्मानो मोहक्षय करता नथी.
समवसरणमां बेसनार जीव पण अरिहंतथी तो दूरक्षेत्रे ज बेसे छे एटले क्षेत्रथी तो तेने
पण दूर छे अने अहीं पण क्षेत्रथी जरा वधारे दूर छे, परंतु क्षेत्रथी फेर पड्यो एटले शुं? जेणे
भावमां अरिहंतने नजीक कर्या तेने सदाय नजीक बिराजे छे अने जेणे भावमां अरिहंतने दूर
कर्या तेने दूर छे. क्षेत्रे नजीक हो के न हो तेथी शुं? भाव साथे मेळ करीने नजीकपणुं करवुं छे.
अहो! अरिहंतना विरह भूलावी दीधा; कोण कहे छे के अत्यारे अरिहंतप्रभु नथी?
आ पंचमआराना मुनिनुं कथन छे, पंचमकाळे आ थई शके छे. जे कोई जीव पोताना
ज्ञान वडे अरिहंतना द्रव्य–गुण–पर्यायने जाणे तेनो दर्शनमोह नाश थाय छे.
(ि) त्त्र् (ि)
सरदारशहेरनिवासी सद्धर्मप्रेमी भाईश्री दीपचंदजी शेठिया तथा तेमना
परिवार आदि तरफथी जयपुर तत्त्वचर्चा भाग १ अने २ विना मूल्ये, विनंति–पत्र
मळ्‌येथी भेटस्वरूपे भारतभरना श्री दिगंबर जैन मंदिर, श्री दिगंबर जैन मुमुक्षु
मंडळो अथवा दिगंबर जैन संस्थाने नीचेना सरनामे पत्र लखवाथी मळी शकशे.
पोस्टेज–पेकींगना खर्चनुं वी. पी. रूा. २–८० नुं करवामां आवशे. दरेकने मात्र एक
ज सेट (भाग–१ तथा भाग–२) आपवामां आवशे. स्टोकमां हशे त्यां सुधी ज
आपवामां आवशे.
पत्रव्यवहारनुं सरनामुं–
श्री दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट.
सोनगढ (सौराष्ट्र)

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :२५:
स्त्र ष् ि
(अनुसंधान पृ. ६ थी चालु)
(२६) आत्मसिद्धि–प्रवचनो: श्रीमद्राजचंद्रप्रणीत ‘आत्मसिद्धि’ उपर पू. गुरुदेवे राजकोटमां
सं. १९९प मां जे प्रवचनो करेला ते आ पुस्तकमां छपाया छे. गुरुदेवना प्रवचनोनुं
सौथी पहेलुं आ पुस्तक बहार पड्युं. (सं. १९९९मां) अने तेनी बे आवृत्ति घणी
झडपथी खलास थई गई. सुगम शैली होवाथी प्राथमिक जिज्ञासुओने उपयोगी छे.
किंमत ४–००
(२७) सामायिक: श्रावक हंमेशां निवृत्तिथी शांतचित्तपूर्वक अमुक समय सुधी आत्म–
चिन्तनना अभ्यासरूप सामायिक करे छे. ते वखते कोई अमुक ज पाठ बोलवो एवो
कोई नियम नथी. पण जे प्रकारे परिणाम आत्मचिंतनमां स्थिर रहे ते हेतु छे.
अमितगति स्वामी रचित सामायिकपाठ (अर्थ सहित) आ पुस्तकमां छे, तेमां
सामायिकनुं साचुं स्वरूप शुं छे ते पण स्पष्ट करवामां आव्युं छे. स्वाध्याय माटे पण
उपयोगी छे. किंमत ०–३प
(२८) मोक्षमार्ग प्रकाशकनां किरणो: पू. गुरुदेवना प्रवचनोमांथी सारभूत न्यायोनो संग्रह
सुंदर ढंगथी करवामां आव्यो छे. सौने माटे उपयोगी छे. (अप्राप्त)
(२९) योगसार (दोहरा) योगीन्दुस्वामी रचित योगसारना गुजराती दोहा. सरळ शैलीमां
अध्यात्मभावो भरेला छे. –स्वाध्याय माटे सौने उपयोगी छे. किं. ०–१प
(३०) पंचमेरु–नंदीश्वरपूजा (हिंदीमां) अष्टाह्निका वगेरे प्रसंगे पूजा माटेनुं पुस्तक
किंमत १–००
(३१–३२) पंचाध्यायी भाग १ तथा २: तत्त्वना अभ्यास माटेनुं सुंदर पुस्तक: (अप्राप्त)
(३३) प्रवचनसार: कुंदकुंदाचार्यरचित मूळशास्त्र: संस्कृत टीका सहित गुजराती अनुवाद नवी
आवृत्ति छपाय छे: (जयसेनाचार्यनी संस्कृत टीका सहित) थोडा वखतमां तैयार थशे.
(३४) प्रवचनसार हरिगीत: किंमत ०–३६
(३प) मूळमां भूल: उपादाननिमित्तना संवाद उपर प्रवचनो. (अप्राप्त)
(३६) दशलक्षण धर्म: पर्युषण दरमियान, पद्मनंदी पच्चीसीमांथी उत्तमक्षमादि दशधर्म उपर पू.
गुरुदेवना खास प्रवचनो, उत्तमक्षमा वगेरे दशधर्मनुं स्वरूप बहु ज सरस रीते वर्णव्युं
छे. सौने माटे उपयोगी छे. घणा जिज्ञासुओ दशलक्षणी पर्वना दिवसमां आ पुस्तकनुं
वांचन करे छे. गुजराती तेमज हिंदीमां अनेक आवृत्ति छपायेल छे. मुखपृष्ठ उपर
दशधर्मनुं सुंदर चित्र छे: (अप्राप्त)

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:२६: आत्मधर्म : पोष : २४९४
(३७) योगसार अने उपादान–निमित्तना दोहा: किंमत ०–१२
(३८) जैनसिद्धांत प्रश्नोत्तरमाळा: तत्त्वोना अभ्यास माटे उपयोगी पुस्तक; जेमां प्रश्नोत्तररूपे
अनेक चर्चाओनुं संकलन छे. अनेक आवृत्ति छपायेल छे. किंमत १–१२ हिन्दी भाग १
किं. ०–७प भाग २ किं. ०–६० भाग ३ किं. ०–६०
(३९) भेदविज्ञानसार: स. गा. ३९० थी ४०४ उपरनां प्रवचनो: स्व–परनुं भेदज्ञान अत्यंत
सुगम अने सचोट शैलीथी समजावे छे. पूठां उपरनुं रंगीनचित्र भेदज्ञाननौका वडे
भवसमुद्रने तरवानी प्रेरणा आपे छे. (अप्राप्त)
(४०) मोक्षमार्ग प्रकाशक: जयपुरना पं. श्री टोडरमल्लजी रचित आ पुस्तक जैनसिद्धांतनुं
रहस्य समजवा माटे खूब उपयोगी छे, सत्यनो निर्णय करवा माटे कोई पण जिज्ञासुए
अभ्यास करवा जेवुं आ पुस्तक छे. छेल्ला दशकामां आ पुस्तक घणुं ज प्रसिद्ध बन््युं छे.
छेल्ली आवृत्ति मूळ हस्तलिखित (पं. टोडरमल्लजीना पोताना हस्ताक्षरवाळी) प्रति
साथे मेळवीने तैयार थयेल छे. किं. त्रण रूपिया
(४१) सम्यग्दर्शन (भाग–१) सम्यग्दर्शननुं अपार माहात्म्य समजावीने तेना पुरुषार्थनी
प्रेरणा आपतुं आ पुस्तक बधा जिज्ञासुओने खूब उपयोगी छे. प्रवचनोमांथी ने
शास्त्रोमांथी सम्यग्दर्शनने ज लगता खास महत्त्वना लेखोनुं आमां संकलन छे.
सम्यग्दर्शन संबंधी आवा दश पुस्तकोना संकलननुं आयोजन छे. तेमांथी त्रण पुस्तको
प्रगट थया छे. दरेक पुस्तक सम्यग्दर्शननी वधु ने वधु स्पष्टता करे छे. भाग १ संशोधित
बीजी आवृत्ति ०–प० भाग २ ने ३ (अप्राप्त)
[४२] दसलक्षणधर्मः (हिन्दी) (अप्राप्त)
(४३) जैनबाळपोथी: जैनसमाजनी कोईपण व्यक्ति होंशथी वांचे ने बाळकोमां धर्मरसनुं
सींचन करे एवुं सुंदर सचित्र पुस्तक, गुजराती–हिन्दी–मराठीमां जेनी पंदर जेटली
आवृत्ति द्वारा पोणोलाख जेटली नकलो छपाई चूकी छे. सर्वत्र प्रचार करवा योग्य,
पाठशाळानुं पाठ्यपुस्तक किंमत: पचीस पैसा
(४४) मोक्षमार्ग प्रकाशकनां किरणो: (हिन्दी) (अप्राप्त)
(४प) प्रवचनसार गूटको: (अप्राप्त)
(४६) आलोचना: पद्मनंदी स्वामीचरित आलोचनानो गुजराती अनुवाद: किं. ०–१३
(४७) चिद्दविलास: पं. श्री दीपचंदजी काशलीवाल रचित हिन्दीनो गुजराती अनुवाद : किं. ०–
७प (हिन्दी – १–प०)

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :२७:
(४८) समयसार प्रवचन: (हिन्दी) भाग १–२–३ अप्राप्त भाग ४ किं: रूा. ४–००
(४९) समयसार गुटको: (अर्थसहित मूळगाथाओ तथा गुजराती हरिगीत) किं. : ०–७प
(प०) जैन बालपोथीः (हिन्दी) सौने उपयोगी पुस्तक (जुओ नं. ४३) किं: पचीस पैसा
(प१) पंचकल्याणक प्रवचन: सोनगढ–राजकोट–वींछीया–लाठीमां कुल पांचवखतना
पंचकल्याणकना भावभीनां संस्मरणो; तथा ते वखतनां प्रवचनो; पंचकल्याणकने लगता
अनेक चित्रो सहित सुंदर संकलन दरेक जिज्ञासुने उपयोगी: किं: २–२प
(प२) जिनेन्द्रस्तवनमाळा: किं. : १–१२
(प३) अनेकान्तनुं रहस्य: श्रीमद्राजचंद्रजीना जन्मधाम ववाणीयामां पू. गुरुदेवनुं खास
प्रवचन जे अनेकान्तसंबंधी भ्रमणाओ दूर करे छे: (अप्राप्त)
(५४) भेदविज्ञानसारः (हिन्दी) (अप्राप्त)
(पप) नियमसार प्रवचनो: (भाग २) (जुओ नं. ८) किं. : १–६२
(प६) आत्मसिद्धि गूटको: (अर्थसहित गाथाओ) किं. : ०–६०
[५७] सम्यग्दर्शनः भाग १ [हिन्दी] (जुओ नं. ४१) अप्राप्त (भाग २–३ छपाया नथी.)
(प८) नियमसार–गुजराती: कुंदकुंदाचार्यदेव रचित मूळशास्त्र: संस्कृतटीका सहित गुजराती
अनुवाद: (अप्राप्त)
(प९) नियमसार (हरिगीत) अप्राप्त
(६०) समयसारप्रवचनः [भाग ३ हिन्दी] अप्राप्त
(६१) समयसार: कुंदकुंदाचार्यदेवरचित सर्वोच्च शास्त्र–जे आजे जैनसाहित्यना
मुगटमणिसमान छे. संस्कृतटीका सहित गुजराती अनुवाद: (अप्राप्त) नवी आवृत्ति
छपाय छे. –जे दीवाळी लगभगमां तैयार थवा संभव छे.
(६२) जिनेन्द्रपूजा पल्लव: मानस्तंभनी पूजा माटेनुं पुस्तक–किं. : ०–प०
(६३) समयसार–प्रवचन: भाग प बंधअधिकार प्रवचनो: (जुओ नं. २)
किं. त्रण रूपीया.
(६४) लघु जैनसिद्धांत प्रवेशीका: (हिन्दी) पाठशाळा माटे उपयोगी: अनेक आवृत्ति
छपायेल छे: किं: ०–३प

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:२८: आत्मधर्म : पोष : २४९४
[६५] मोक्षशास्त्र [टीकासंग्रह–हिन्दी] (अप्राप्त)
(६६) मोक्षमार्गप्रकाशकनां किरणो: (भाग २) किं–२–०
[६७] ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयस्वभावः ज्ञान अने ज्ञेय बंनेनो व्यवस्थित स्वभाव (क्रमबद्ध
पर्याय) समजावीने स्वसन्मुखता करावतुं पुस्तक–जेमां पू. गुरुदेवना खास १३
प्रवचनोनुं सुंदर संकलन छे. (हिंदीमां) (अप्राप्त)
(६८) जैनसिद्धांत प्रश्नोत्तरमाळा: (जुओ नं ३८) किं. १–१२.
(६९) जिनेन्द्र भजनमाळा: (जुओ नं. ७) किं. एक रूपियो.
(७०) तीर्थपूजाः सम्मेदशिखरजी वगेरे भारतभरना प्रसिद्ध तीर्थोना टूंका परिचय सहित
पूजाओनो संग्रह. तीर्थयात्रा वखते साथे राखवुं उपयोगी छे. (हिंदीमां) (अप्राप्त)
[७१] मोक्षमार्ग प्रकाशककी किरणेंः [हिंदी भाग २] [अप्राप्त]
(७२) अपूर्व अवसर उपर प्रवचनो: मुनिदशाना महिमानुं तथा भावनानुं पुस्तक
किं. ०–प०
(७३) पंचास्तिकाय–संग्रह: कुंदकुंदाचार्य देवरचित मूळशास्त्र, संस्कृत टीकासहित गुजराती
अनुवाद किं. ३–००
(७४) पंचास्तिकाय–हरिगीत: किं. ०–३१
(७प) जिनेन्द्रपूजन संग्रह: (अप्राप्त)
(७६) लघु जिनेन्द्र पूजा पाठ: (पूजन माटेनी नानी पुस्तिका) : किं. ०–१३
(७७) सम्यग्दर्शन (भाग बीजो) जुओ नं. ४१) (अप्राप्त)
(७८) आत्मप्रसिद्धि: ४७ शक्ति उपरनां भावभीनां प्रवचनो. किं. ३–७प
[७९] समयसार–प्रवचन [भाग १ हिंदी] [अप्राप्त]
(८०) लघु जैनसिद्धांत प्रवेशिका: बाळकोने तत्त्वना अभ्यास माटे उपयोगी किं. ०–३प
[८१] समयसार–पद्यानुवाद [हिन्दी] किं. ०–२प
[८२] अनुभवप्रकाश [हिन्दी] (जुओ नं. १प) किं. ०–३प
[८३] समयसार–प्रवचन [भाग ४ हिन्दी] (परिचय माटे जुओ नं. २) किं. ४–००
[८४] दसलक्षणधर्म–पूजन विधानः पर्युषणमां पूजा माटेनुं पुस्तक (अप्राप्त)

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :२९:
[८५] छहढाला (मूळ) स्वाध्याय माटे उपयोगी किं. १प पैसा
[८६] समयसार [हिन्दी] मूळ संस्कृत टीका सहित हिंदी अनुवाद किं. पांच रूपीया.
[८७] प्रवचनसार [हिन्दी] मूळ संस्कृत टीका सहित हिन्दी अनुवाद किं. चार रूपिया
(८८) मंगल तीर्थयात्रा: पू. श्री कानजीस्वामीए सं. २०१३मां सम्मेदशिखरजी वगेरे पचास
जेटला प्रसिद्ध तीर्थोनी संघसहित यात्रा करी तेना आनंदभर्या संस्मरणो. तेमां
तीर्थयात्रानुं एवुं रोमांचक वर्णन छे के वांचतां वांचतां तीर्थयात्रा करता होईए तेवा
आह्लाद थाय छे. बसो जेटला तीर्थयात्रानां द्रश्यो छे. ठेर ठेर तीर्थ महिमा संबंधी
गुरुदेवना उद्गारो छे. किं. छ रूपीया.
(८९) छहढाला (मराठी आवृत्ति) कारंजा प्रकाशीत
(९०) जैन बालपोथी [मराठी आवृत्ति] कारंजाथी प्रकाशीत
(९१) द्रव्यसंग्रह [हिन्दी नवी आवृत्ति] (जुओ नं. २०) किं : ०–८प
(९२) योगसार व उपादान–निमित्त दोहा [हिन्दी आवृत्ति] (अप्राप्त)
(९३) समयसार कलशटीकाः समयसार टीकामां अमृतचंद्राचार्यदेवे रचेला कलशनी हिंदीटीका
पं. श्री राजमल्लजीए लखेल छे. सुंदर अध्यात्मरसपूर्ण पुस्तक छे. गुरुदेवना प्रवचनमां
वंचाय छे. किंमत: २–७प (गुजराती : किं: २–प०)
(९४) पंचास्तिकायः संग्रहः [हिन्दी] मूळ संस्कृतटीका सहित हिन्दी अनुवाद किं. ३–प०
(९५) छहढाला [हिन्दी–सचित्र] (जुओ नं. ४) किं. : एक रूपीओ.
(९६) पुरुषार्थ सिद्धिउपाय: श्री अमृतचंद्राचार्य विरचित, जेमां श्रावकना सम्यग्दर्शनादि
धर्मोनुं वर्णन छे.....गुजराती अनुवाद किं: २–००
(९७) नियमसार [हिन्दी] मूळ संस्कृत टीका सहित हिन्दी अनुवाद: किं : चार रूपीआ
(९८) अध्यात्म सन्देश: त्रण चिठ्ठी (बनारसीदासजीनी बे तथा टोडरमल्लजीनी एक) तेना
उपर अध्यात्मभावोथी भरपूर प्रवचनो: सम्यग्दर्शन संबंधी अने स्वानुभव संबंधी घणुं
सरस वर्णन छे...दरेक जिज्ञासुने अंतरंग अभ्यास माटे खास उपयोगनुं छे. गुजरातीमां
(अप्राप्त) हिन्दीमां मात्र टोडरमल्लजीनी एक चिठ्ठि उपरनां प्रवचनो: किं: १–प०
(९९) मोक्षमार्ग प्रकाशकः जयपुरना शास्त्रभंडारमां पं. टोडरमल्लजीनी पोतानी हस्तलिखित
प्रतिने अनुसार तैयार करवामां आवेल आधुनिक हिंदी आवृत्ति किं: बे रूपीआ
(गुजराती किंमत त्रण रूपीआ)

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:३०: आत्मधर्म : पोष : २४९४
(१००) समाधितंत्र: पूज्यपादस्वामी रचित भेदज्ञाननी भावनानो खास ग्रंथ, अत्यंत सुबोध
शैलिमां छे, तेनुं गुजराती भाषांतर: किं: बे रूपीआ
(१०१) शास्त्रस्वाध्याय: स्वाध्याय माटेनुं पुस्तक–जेमां समयसार, प्रवचनसार, नियमसार,
योगसार उपादाननिमित्तना दोहा तथा छहढाळा छे: (अप्राप्त)
(१०२) मोक्षमार्ग प्रकाशकनो सातमो अध्याय–जेमां जैनमतानुयायी मिथ्याद्रष्टिनुं स्वरूप
समजाव्युं छे, ने निश्चय–व्यवहार वगेरेनुं यथार्थ स्वरूप समजाव्युं छे ते जिज्ञासुओने
विशेष उपयोगी होवाथी अलग छपायेल छे: (हिन्दीमां)
(१०३) नियमसार हरिगीत (हिन्दी) किं. ०–२प
(१०४) समाधितंत्र (दोहा) स्वाध्याय माटे उपयोगी: किं. ०–१प
(१०प) श्रावकधर्मप्रकाश: पद्मनंदी पचीसीना देशव्रतउद्योतन अधिकार उपर सुंदर प्रवचनो –
जे भावभीनी शैलीथी श्रावकनुं कर्तव्य समजावे छे, ने देव–गुरु–धर्मनुं स्वरूप
समजावीने विशेष भक्ति जगाडे छे. सौने समजाय तेवी सुगम शैलीमां: किं: बे रूपीआ
(१०६) समयसार–कळश टीका: गुजराती अनुवाद (जुओ नं. ९३) किंमत: २–प०
(१०७) अनुभवप्रकाश–प्रवचनो: स्वानुभवनी प्रेरणा आपनारां प्रवचनो: किं. : २–प०
(१०८) ‘आत्मवैभव’ : ४७ शक्ति उपरनां खास प्रवचनो–जे आत्मवैभवनो अद्भुत
महिमा समजावीने स्वानुभव माटे आत्मामां झणझणाट पेदा करे छे: सुंदर पुस्तक:
किंमत: ३–प०
पुस्तको मंगाववानुं सरनामुं: श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ (सौराष्ट्र)
आ उपरांत ‘आत्मधर्म मासिक’ –जेनुं रजत जयंतिनुं वर्ष चाली रह्युं छे ने जे आपना
हाथमां ज छे. ते पण जरूर मंगावो: हिंदी लवाजम त्रण रूपिया: गुजराती–चार रूपिया.
बाळकोने उपयोगी पुस्तको: भगवान महावीर (०–१प) भगवान ऋषभदेव

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :३१:
धरतीकंप ते वखतेय ज्ञानी अकंप
ज्ञानी पोताना ज्ञानमां अचल छे, धरतीकंप पण तेने चलायमान करी शकतो नथी;
धरतीकंपमां एवी ताकात नथी के ज्ञानीना ज्ञानने कंपावे. ज्ञानी पोताना असंख्य प्रदेशमां
पोताने स्वयंसिद्ध अचल ज्ञानरूप अनुभवे छे. ते ज्ञानमां ज्ञानथी भिन्न बीजुं कांई थतुं नथी,
एटले तेमां अकस्मातनो भय नथी. वज्रपात थाय के धरतीकंपथी धरती धणधणी ऊठे तोपण
सम्यग्द्रष्टि जीवो निःशंक अने निर्भय वर्तता थका पोताने अवध्य ज्ञानशरीरीपणे अनुभवे छे.
मने भयभीत करीने मारा ज्ञानमांथी चलायमान करी द्ये एवुं सामर्थ्य जगतमां कोई संयोगमां
नथी. हुं मने ज्ञानस्वरूपे ज अवलोकुं छुं; धरती ध्रूजे तेथी मारा ज्ञानमां तीराड पडती नथी. मारा
ज्ञाननी वेदनामां बीजी कोई वेदना नथी; मारुं ज्ञान स्वयमेव ‘सत्’ छे ते कदी नाश पामतुं नथी.
मारुं ज्ञान निजस्वरूपमां ज गुप्त छे. चैतन्यप्राणवडे शाश्वत जीवंत मारो आत्मा, तेने कदी मरण
थतुं नथी; अने अनादिअनंत ज्ञानमां वच्चे बीजो कोई अकस्मात थतो नथी–के जे ज्ञानने
अन्यथा करी नांखे
आवा ज्ञानस्वरूपे पोताने अनुभवता धर्मीने धरतीकंपनो भय केम होय? धरतीना
धणधणाट वखतेय ए तो पोताना ज्ञानमां अकंप छे–अडोल छे.
हमणां मागशर सुद १०–११ ना दिवसोमां महाराष्ट्रमां मुंबई–कोयनानगरी वगेरेमां
धरतीकंप थयो; कोयनानगरीमां तो बसो उपरांत माणसो मृत्यु पाम्या, हजारो घायल थया, ने
मोटाभागना मकानो जमीनदोस्त थई गया....कुदरती घटनाथी मृत्यु पामेला ने घवायेला ए
मानवबंधुओ प्रत्ये आपणने वैराग्यभीनी हमदर्दी जरूर जागे छे. परंतु आ अध्रुव संसारमां
आवा प्रसंगो तो बन्या ज करवाना–एवुं वस्तुस्वरूप लक्षमां होवाथी ज सन्तोए कह्युं छे के–
एवो वज्रपात थाय के जेना भयथी त्रणलोक खळभळी ऊठे–तोपण हे भव्य! तुं तारा ज्ञानमां
अकंप रहेजे.–तारा ज्ञानशरीरने कोई हणी शके तेम नथी. त्रणलोक खळभळी ऊठे तोपण धर्मी
पोताना ज्ञानथी च्युत थता नथी. ज्ञानी तो पोताना अकंप परमज्ञानस्वभावमां स्थित छे.
निशंकपणे पोताने सहज ज्ञानपणे ज अनुभवता ते शाश्वतपुरी तरफ चाल्या जाय छे.

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:३२: आत्मधर्म : पोष : २४९४
कंपन एटले अस्थिरता, अध्रुवता;
जेटला रागादि परभावो के शरीरादि संयोगो छे ते बधा अस्थिर छे, अध्रुव छे.... तेने
स्थिर राखवा मांगे तो रही शके नहि. स्थिर तो आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे; ते स्वभावमां
उपयोगनी स्थिरता ते शांति छे –तेमां निर्भयता छे. उपयोग बहारमां जईने रागादिमां भमतां
अस्थिर थईने कंपे छे, तेमां अशांति छे, थाक छे. दुनिया भले डोले, सिद्धो कदी कंपता नथी......
संसारनुं तो स्वरूप ज कंपनवाळुं छे तेमां स्थिरता क्यांथी होय? अकंप तो निजस्वरूपमां जामेलुं
ज्ञान छे.
श्रीमद् राजचंद्रजीनां वचनामृत
श्रीमद् राजचंद्रजीनी जन्मशताब्दि निमित्ते अपाती लेखमाळामां आ चोथो
लेख छे. अनेक जिज्ञासुओ तरफथी पसंद करायेला वचनामृतोमांथी आ
संकलन करवामां आवे छे. (सं.)
(२४१) पठन करवा करतां मनन करवा भणी बहु लक्ष आपजो.
(२४२) ते वस्तुना विचारमां पहोंचो के जे वस्तु अतीन्द्रियस्वरूप छे.
(२४३) ज्ञानचर्चा अने विद्याविलासमां तथा शास्त्राध्ययनमां गुंथावुं.
(२४४) जेटला पोतानी पुद्गलिक मोटाई ईच्छे तेटला हलका संभवे.
(२४प) हे आर्य! अंतर्मुख थवानो अभ्यास करो.
(२४६) संसाररूपी कुटुंबने घेर आपणो आत्मा परोणा दाखल छे.
(२४७) ईन्द्रियोना निग्रहपूर्वक सत्समागम अने सत्श्रुत उपासनीय छे.
(२४८) खेद नहीं करतां, शूरवीरपणुं ग्रहीने ज्ञानीने मार्गे चालतां मोक्षपाटण सुलभ ज छे.
(२४९) सद्देवगुरुशास्त्रनी भक्ति अप्रमत्तपणे उपासनीय छे.
(२प०) नियमितपणे नित्य सद्ग्रंथनुं वांचन तथा मनन राखवुं योग्य छे.
(२प१) जे श्रुतथी असंगता उल्लसे ते श्रुतनो परिचय कर्तव्य छे.
(२प२) जे वाटेथी आत्मत्व प्राप्त थाय ते वाट शोधो.
(२प३) ज्यां–त्यांथी राग–द्वेष रहित थवुं ए ज मारो धर्म छे.
(२प४) बाह्य भावे जगतमां वर्तो अने अंतरंगमां एकांत शीतलीभूत निर्लेप रहो.
(२पप) उदासीनता ए अध्यात्मनी जननी छे.

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :३३:
(२प६) जेनुं हृदय शुद्ध सन्तनी बतावेली वाटे चाले छे, तेने धन्य छे.
(२प७) मोक्षनो मार्ग बहार नथी पण आत्मामां छे.
(२प८) जेम बने तेम आत्माने ओळखवा भणी लक्ष दो.
(२प९) मुमुक्षुपणुं जेम द्रढ थाय तेम करो.
(२६०) आत्म उपयोग ए कर्म मुकवानो उपाय.
(२६१) कोई बांधनार नथी, पोतानी भूलथी बंधाय छे.
(२६२) गुणीना गुणमां अनुरक्त थाओ.
(२६३) आत्माने सत्यरंग चढावे ते सत्संग.
(२६४) मोक्षनो मार्ग बतावे ते मैत्री.
(२६प) दुर्जनता करी फाववुं–ए ज हारवुं, एम मानवुं.
(२६६) आपणे जेनाथी पटंतर पाम्या तेने सर्वस्व अर्पण करतां अटकशो नहीं.
(२६७) हजारो उपदेशवचनोनुं कथन सांभळवा करतां तेमांनां थोडां वचनो पण विचारवा ते
विशेष कल्याणकारी छे.
(२६८) ज्ञानीओए एकत्र करेला अद्भुत निधिना उपभोगी थाओ.
(२६९) राग करवो नहि, करवो तो सत्पुरुष पर करवो. द्वेष करवो नहि, करवो तो कुशील पर
करवो.
(२७०) अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र अने अनंतवीर्यथी अभेद एवा आत्मानो एक
पळ पण विचार करो.
(२७१) निर्ग्रंथता धारण करतां पहेलांं पूर्ण विचार करजो. ए लईने खामी आणवा करतां
अल्पारंभी थजो.
(२७२) आ तो अखंड सिद्धांत मानजो के संयोग, वियोग, सुख, दुःख, खेद, आनंद अणराग,
अनुराग ईत्यादि योग कोई व्यवस्थित कारणने लईने रह्या छे.
(२७३) समर्थ पुरुषो कल्याणनुं स्वरूप पोकारी पोकारीने कही गया, पण कोई विरलाने ज ते
यथार्थ समजायुं.
(२७४) अमे बहु विचार करीने आ मूळ तत्त्व शोध्युं के गुप्त चमत्कार ज सृष्टिना लक्षमां नथी.
(२७प) रे जीव! हवे भोगथी शांत था, –शांत था. विचार तो खरो के एमां कयुं सुख छे?

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:३४: आत्मधर्म : पोष : २४९४
देडकानी वारता

(देडकामांथी देव)
राजगृहीनगरी घणी ज रळीयामणी.
श्रेणीकराजा त्यां राज करे. ते राजा
जैनधर्मना महान भक्त. अढी हजार वर्ष
पहेलांंनी वात छे. ए वखते भगवान
महावीर आ भरतभूमिमां विचरता
हता...ने धर्मनो उपदेश देता हता.
महावीरप्रभु एकवार
राजगृहीनगरीमां पधार्या.
माळीए आवीने राजाने समाचार
आप्या के आपणी नगरीमां प्रभु पधार्या छे.
श्रेणीकराजा तो ए सांभळीने
राजा तो हाथी उपर बेसीने भगवानने
वंदन करवा चाल्यो.
भों...भों....भूंम भूंम!
पों...पों....पूं....पूं...
वाजां वाग्या ने ढोल ढमक्या. राजानी
साथे हजारो नगरजनो दर्शन करवा चाल्या.
आ बधुं जोईने एक देडकानेय मन
थयुं के हुं पण भगवानना दर्शन करवा जाउं.
एटले मोढामां एक फूल लईने ए पण
उपड्युं भगवानना दर्शन करवा.
भक्तिभावथी ए तो दोड्युं जाय छे–
देडकुं देडकुं दोड्युं जाय,
मोढामां फूल लईने जाय;
वीर प्रभुने पूजवा जाय,
एने देखी आनंद थाय.

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :३५:
डग....डग....डबक...!
टब....टब....टबक...!
देडकाभाई तो चाल्या जाय छे. एना हैयामां
आनंद मातो नथी. पाछळ श्रेणीकराजानो
हाथी पण चाल्यो आवे छे.
राजा हाथी उपर बेसीने जाय.....ने देडका
भाई कूदता कूदता जाय.....बंनेने
भगवानना दर्शननी भावना छे. बंनेने
भगवान उपर भक्ति छे. होंशे होंशे देडकुं
ठेकडा मारतुं जाय छे.
टब टब टबक...!
डग डग डबक...!
एने आसपासनुं कांई भान नथी; एक ज
एवामां राजाना हाथीनो पग एना
उपर आवी गयो. अरर! देडका उपर
देडकुं देडकुं दोड्युं जाय;
वीर प्रभुने पूजवा जाय;
रस्तामां ए मरी जाय;
मरीने ए देव थाय.
देडकुं तो हाथीना पग नीचे कचडाई
आ बाजु राजा श्रेणिक वैभार पर्वत

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:३६: आत्मधर्म : पोष : २४९४
एने देखीने श्रेणीकने आश्चर्य थयुं ने
त्यारे भगवाननी वाणीमां एम
थयुं. त्यां अवधिज्ञानथी तेने खबर पडी के
भगवानना दर्शन–पूजननी भावनाना
प्रतापे हुं ‘देडकामांथी देव’ थयो छुं, एटले ते
अहीं आवीने तारी साथे दर्शन–पूजन करी
रह्यो छे.
भगवानना श्रीमुखथी आ वात
सांभळीने ए देवने घणो हर्ष थयो ने
भगवाननो उपदेश सांभळीने ते
सम्यग्दर्शन पाम्यो.
प्रिय पाठक! आपणे पण ए देडकानी
वार्ता पूरी.
बोलो, महावीरभगवानकी....जय.

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म :३७:
त्त्र्
(सर्वे जिज्ञासुओनो प्रिय विभाग)
वांचकोना अंतरनी उर्मि
(ध्रांगध्राना आगेवान कार्यकार भाईश्री
केशवलाल डी. शाह (वकील) पोतानी उर्मि व्यक्त
करतां लखे छे के–
(१) श्रीमद् राजचंद्रजीनी जन्मशताब्दि
वखते आपणुं आ अध्यात्मपोषक मासीक
रजतजयंतीना वर्षमां मंगळ प्रवेश करे छे, ते शुभ
प्रसंगे अत्रेना समग्र वाचक अने मुमुक्षुओ हार्दिक
अभिनंदन पाठवे छे.
(२) ‘अनेकान्तनुं फळ सम्यक्एकांत
एवा निजपदनी प्राप्ति ’ –होवानुं अर्थगंभीर सूत्र
प्रसिद्ध करनार तेओश्री परत्वे, तेमज आवा
अनेक गूढ सिद्धांतोने सामान्य जिज्ञासु सरलताथी
समजी शके तेवी अमृतवाणीनो प्रवाह पूज्य
गुरुदेव प्रत्यक्ष वहेवडावी रहेल छे तेओश्री परत्वे,
अमो तमाम अत्यंत भक्तिभावे सादर वंदन
करीए छीए.
(३) आ क्षणभंगुर दुनियामां
सत्पुरुषनो समागम थवो ते एक अमूल्य अने
अनुपम लाभ छे; परंतु अमारा जेवा देश–
विदेशना जिज्ञासुओ–जे प्रत्यक्ष लाभ नथी लई
शकता तेमना माटे आपणुं आ मासीक बराबर
अवेजी पूरे छे; आ मासीक महान कल्याणनुं एक
बळवान निमित्त छे. आ मासीक क्रमश: वृद्धि पामे
अने नियत समये सुवर्ण तथा हीरक जयन्तीओ
पूज्यश्री गुरुदेवनी छत्रछायामां उजववा
मदाया (बरमा) थी बालसभ्यो दीनेश
अने मीनाबेन लखे छे के–अमने अहीं ऋषभदेव
भगवाननुं जीवनचरित्र मळ्‌युं छे ते वांची अमने
घणो ज आनंद थाय छे. आवा अनार्य देशमां
अमने आवुं शास्त्र मळ्‌युं–अहो! अमारा भाग्य!
तमारो घणो उपकार मानीए छीए. गुरुदेवने
भक्तिपूर्वक नमस्कार; बालविभागना बधा
साथीओने यादी (साथे अनेक प्रश्नो लख्या छे;
तेना जवाब हवे पछी आपीशुं.)
जेतपुरथी मुकेश जैन लखे छे–“ नवा
वर्षनो नवो अंक हाथमां लेतां ज हर्ष
अनुभव्यो....नवा वर्षनी उत्तम बोणी
मळी...प्रवचननी मीठी प्रसादी पण मळी. ‘संतोनो
सिंहनाद’ गम्यो–के जे आत्माने जगाडे छे.
‘रत्नसंग्रह’ पुस्तक रत्नसमान छे. तेमांना एकेक
रत्न महान अने आत्माने राह देखाडनारा छे.
बालविभाग शरू थयो त्यारथी अमे चीवटपूर्वक
अभ्यास करीए छीए, ने अमृतरूपी वांचनथी
रोमरोममां धन्यता अनुभवाय छे.
(भाईश्री, आपना सूचनो लक्षमां लीधा
छे.....प्रश्नोना जवाब हवे पछी; पत्रो जरा टूंका
लखाय तो अमने विशेष अनुकूळता रहे.)