Atmadharma magazine - Ank 292
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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र९र
धर्मीनुं चित्त
‘भक्तामर स्तोत्र’ मां भगवान ऋषभदेव परमात्मानी
स्तुति करतां स्तुतिकार मानतूंगस्वामी कहे छे के हे जिनेन्द्र!
पहेलांं अज्ञानदशामां अनेक कुदेवोने देख्या; परंतु आपना जेवा
वीतराग–सर्वज्ञपरमात्माने देख्या पछी हवे बीजा कोई प्रत्ये
अमारुं चित्त लागतुं नथी. तेम साधकधर्मात्मा कहे छे के हे नाथ!
संयोगने अने रागने अमे जोई लीधा, अज्ञानपणे रागनो स्वाद
पण चाखी लीधो, पण हवे आपे बतावेला अमारा आ परम
चिदानंदस्वभावने जोयो; अचिंत्यशक्तिवाळा आ चैतन्यदेवने
देख्या पछी हवे आ चैतन्य सिवाय बीजे क््यांय कोई परभावमां
अमारुं चित्त लागतुं नथी. आवा स्वभावनी द्रष्टि ते सम्यग्दर्शन
छे, ने ते सम्यदर्शन केवळज्ञानने निमंत्रे छे– बोलावे छे.
तंत्री: जगजीवन बावचंद दोशी संपादक: ब्र. हरिलाल जैन