Atmadharma magazine - Ank 292
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: महा : र४९४ आत्मधर्म : १९ :
(जुओ, आ सिद्धपदना हेतुभूत भावना चाले छे; आ भावनाथी मोक्षसुख पमाय छे.)
(३३) आ प्रमाणे जाणीने जे विशुद्धआत्मा उत्कृष्ट आत्माने ध्यावे छे ते अनुपम अपार
अतीन्द्रिय (अनंतचतुष्टयात्मक) सुखने पामे छे.
(३४) हुं परपदार्थोनो नथी अने परपदार्थो मारां नथी, आ जगतमां मारुं कोईपण नथी, –आ
प्रमाणे जे भावना भावे छे ते संपूर्ण कल्याणने पामे छे.
(३प) आ ऊर्ध्व–अधो के मध्य त्रणलोकमां कोईपण परपदार्थ मारो नथी, आ जगतमां कंई
पण मारुं नथी–आवी भावनाथी युक्त जीव अक्षय सुखने पामे छे.
(३६) जे जीव मद–मान–मायाथी रहित तेमज लोभथी रहित, अने निर्मळस्वभावथी युक्त
थाय छे ते अक्षयस्थानने पामे छे.
(३७) देहादिकमां जेने परमाणुमात्र पण मूर्छा छे ते जीव, भले सर्वआगमनो धारी होय तोपण
स्वकीय–समयने ते जाणतो नथी.
(३८) माटे मोक्षना अभिलाषी जीवोए देहमां जरापण राग न करवो; देहथी भिन्न ईन्द्रियातीत
आत्मानुं ध्यान करवुं.
(३९) देहमां स्थित, देहथी जराक न्यून, देहथी रहित, शुद्ध, देहाकार अने ईन्द्रियातीत आत्मा
ध्यातव्य छे.
(४०) जेना ध्यानमां ज्ञानवडे निजात्मा जो नथी भासतो तो तेने ध्यान नथी, परंतु प्रमाद
अथवा मोहमूर्छा ज छे –एम जाणवुं.
(४१) मीणथी रहित बीबाना अंदरना आकाश जेवा आकारवाळा, रत्नत्रयादि गुणोथी युक्त,
अविनश्वर अने जीवघनदेशरूप एवा निजात्मानुं ध्यान करवुं जोईए.
(४र) जे साधु नित्य उद्योगशील (उपयुक्त) थईने आ आत्मभावनानुं आचरण करे छे ते
अल्पकाळमां ज सर्व दुःखथी मुक्त थाय छे.
(४३) कर्म–नोकर्ममां ‘आ हुं छुं’ अने हुं–आत्मा कर्म–नोकर्मरूप छुं–आ प्रकारनी बुद्धिवडे प्राणी
घोर संसारमां घूमे छे.
(४४) जे मोहकर्मनो क्षय करीने, तथा विषयोथी विरक्त थईने अने मनने रोकीने स्वभावमां
समवस्थित थाय छे ते जीव कर्मबंधनरूप सांकळथी छूटी जाय छे.
(४प) जे प्रकृति–स्थिति–अनुभाग अने प्रदेशबंधथी रहित आत्मा छे ते ज हुं छुं –एम चिन्तन
करवुं जोईए तथा तेमां ज स्थिरभाव करवो जोईए.
(४६) जे केवळज्ञानस्वभावी छे, केवळदर्शनस्वभावी छे, सुखमय छे अने केवळ वीर्यस्वभावी
छे –ते हुं छुं –एम ज्ञानी चिन्तवे छे.