Atmadharma magazine - Ank 292
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : महा : र४९४
(४७) जे जीव सर्वसंगथी रहित थईने पोताना आत्माने आत्माद्वारा ध्यावे छे ते अल्पकाळमां
सर्वदुःखथी छूटकारो पामे छे.
(४८) जे भयानक संसाररूपी महा समुद्रमांथी नीकळवा ईच्छे छे ते आ प्रमाणे जाणीने
शुद्धात्मानुं ध्यान करे छे.
(४९) प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, प्रतिहरण, धारणा, निवृत्ति, निन्दन, गर्हण अने शुद्धि–ए
बधायनी प्राप्ति निजात्मभावना वडे थाय छे.
(प०) दर्शनमोहग्रंथिने नष्ट करीने जे श्रमण राग–द्वेषनो क्षय करतो थको सुख–दुःखमां
समभावी थाय छे ते अक्षय सुखने प्राप्त करे छे.
(प१) देह अने धनमां आ हुं अने ‘आ मारुं’ एवा ममत्वने जे छोडतो नथी ते मूर्ख–अज्ञानी
जीव–दुष्ट–अष्ट कर्मोथी बंधाय छे.
(पर) पुण्यथी विभव, विभवथी मद, मदथी मतिमोह, अने मतिमोहथी पाप थाय छे;– माटे
पुण्यने पण छोडवा जोईए.
(प३) जे परमार्थथी बाह्य छे ते जीव संसारगमनना अने मोक्षना हेतुने नहि जाणतो थको
अज्ञानथी पुण्यनी ईच्छा करे छे.
(प४) पुण्य अने पापमां कोई भेद नथी–आम जे नथी मानतो ते मोहथी युक्त थयो थको घोर
अने अपार संसारमां भमे छे.
(पप) मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप अने पुण्य, –तेमनो त्रणे प्रकारे त्याग करीने योगीओए
निश्चयथी शुद्धआत्मानुं ध्यान करवुं जोईए.
(प६) जीव परिणामस्वभावरूप छे, ते ज्यारे शुभ अथवा अशुभ परिणामरूपे परिणमे छे
त्यारे शुभ अथवा अशुभ थाय छे, अने ज्यारे शुद्धपरिणामरूपे परिणमे छे त्यारे शुद्ध
थाय छे.
(प७) धर्मरूपे परिणमेलो आत्मा जो शुद्धउपयोगयुक्त होय तो निर्वाणसुखने पामे छे, अने जो
शुभोपयोगथी युक्त होय तो स्वर्गसुखने पामे छे.
(प८) अशुभोदयथी आत्मा कुमनुष्य, तिर्यंच अथवा नारकी थईने सदा हजारो दुःखोथी पीडीत
थयो थको संसारमां अत्यंत भमे छे.
(प९) शुद्धोपयोगथी प्रसिद्ध एवा अरिहंतो तथा सिद्धोने अतिशय, आत्माथी ज समुत्पन्न,
विषयातीत, अनुपम, अनंत अने विच्छेदरहित सुख होय छे.
(६०) रागादि संगथी मुक्त एवा मुनि, अनेक भवोमां संचित करेला कर्मरूपी इंधनसमूहने
शुक्लध्यान नामना ध्यानवडे शीघ्र भस्म करे छे.