Atmadharma magazine - Ank 292
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: महा : र४९४ आत्मधर्म : २१ :
(६१) हृदयमां ज्यांसुधी आत्मस्वभावलब्धि प्रकाशमान नथी थती. त्यांसुधी ज जीव शुभ–
अशुभजनक एवा संकल्प–विकल्परूप कर्मने करे छे.
(६र) बंधोना स्वभावने तेमज आत्माना स्वभावने जाणीने, जे बंधोमां अनुरक्त नथी थतो
ते जीव कर्मोथी छूटकारो करे छे.
(६३) ज्यां सुधी आत्मा अने आस्रव ए बंनेना विशेष–अंतरने नथी जाणतो त्यां सुधी ते
अज्ञानी जीव विषयादिमां प्रवृत्त रहे छे.
(६४) ज्ञानी जीव अनेक प्रकारना पुद्गलद्रव्यने जाणतो होवा छतां, परद्रव्यपर्यायपणे ते
परिणमतो नथी, तेने ग्रहण करतो नथी, अने ते–रूपे ऊपजतो नथी.
(६प) जे विमूढमति परद्रव्यने शुभ अथवा अशुभ माने छे ते मूढ अज्ञानी जीव दुष्ट–अष्ट
कर्मोथी बंधाय छे.
–आ प्रमाणे भावना समाप्त थई.
सिद्धपदना हेतुभूत एवी आ उत्तम शुद्धात्मभावना भाववाथी मुमुक्षु जीव सिद्धपदने पामे छे.
णमो सिद्धाणं।।
अपूर्व भावना
मिथ्यात्व–आदिक भावने
चिरकाळ भाव्या छे जीवे;
सम्यक्त्व–आदिक भाव रे!
भाव्या नथी पूर्वे जीवे.
निरंजन निज परमात्मतत्त्वना श्रद्धानरहित अनासन्न भव्यजीवे
खरेखर सामान्य प्रत्ययोने पूर्वे सुचिरकाळ भाव्या छे; जेणे परम नैष्कर्म्यरूप
चारित्र प्राप्त कर्युं नथी एवा ते स्वरूपशून्य बहिरात्म–जीवे सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र भाव्यां नथी. आ मिथ्याद्रष्टिजीवथी विपरीत
गुणसमुदायवाळो अति–आसन्नभव्यजीव होय छे.
–नियमसार गा. ९०