: २२ : आत्मधर्म : महा : र४९४
श्रीमद् राजचंद्रजीनां वचनामृत
श्रीमद् राजचंद्रजीनी जन्मशताब्दि निमित्ते अपाती लेखमाळामां आ
पांचमो लेख छे. अनेक जिज्ञासुओ तरफथी पसंद करायेला वचनामृतोमांथी
आ संकलन करवामां आवे छे. (सं.)
(र७६) हुं सच्चिदानंद परमात्मा छुं.
(र७७) ज्ञानीओ अंतरंग खेद अने हर्षथी
रहित होय छे.
(र७८) एकनिष्ठाए ज्ञानीनी आज्ञा
आराधतां तत्त्वज्ञान प्राप्त थाय छे.
द्रष्टिए जुओ.
(र८०) वीरनां कहेला शास्त्रमां सोनेरी
वचनो छूटकछूटक अने गुप्त छे.
(र८१) सम्यक्नेत्र पामीने तमे गमे ते ‘धर्म
शास्त्र’ विचारो तोपण आत्महित
प्राप्त थशे.
(र८र) माणस परमेश्वर थाय छे एम
ज्ञानीओ कहे छे.
(र८३) जीवतां मराय तो फरी मरवुं न पडे;
एवुं मरण ईच्छवा योग्य छे.
(र८४) जगतमां मान न होय तो अहीं ज
मोक्ष होत.
(र८प) वस्तुने वस्तुगते जुओ.
(र८६) धर्मनुं मूळ विवेक छे.
(र८७) तेनुं नाम विद्या, के जेनाथी अविद्या
प्राप्त न थाय.
(र८८) वीरना एक वाक्यने पण समजो.
(र८९) आत्मानो धर्म आत्मामां ज छे.
(र९०) निर्विकारी दशाथी मने एकलो रहेवा
दो.
(र९१) महावीरे जे ज्ञानथी आ जगतने
जोयुं छे ते ज्ञान सर्व आत्मामां छे
पण आविर्भाव करवुं जोईए.
(र९र) न्याय मने बहु प्रिय छे. वीरनी
शैली ए ज न्याय छे. समजवुं
दुर्लभ छे.
(र९३) दुःखना मार्या वैराग्य लई जगतने
आ लोको भरमावे छे.
(र९४) आत्मा जेवो कोई देव नथी.
(र९प) प्रमादने लीधे, आत्मा मळेलुं स्वरूप
भूली जाय छे.
(र९६) जे जे काळे जे जे करवानुं छे तेने
सदा उपयोगमां राख्या करो. क्रमे
करीने पछी तेनी सिद्धि करो.
(र९७) सर्वोत्तमपद सर्वत्यागीनुं छे.
(र९८) वैराग्य अने गंभीर भावथी बेसवुं.
(र९९) विवेकी विनयी अने प्रिय पण
मर्यादित बोलवुं.
(३००) सर्व प्राणीमां समभाव राखुुंं.