: महा : र४९४ आत्मधर्म : २३ :
(३०१) क्रोधीवचन भाखुं नहि.
(३०र) रात्रीभोजन करुं नहि.
(३०३) परमात्मानी भक्ति करुं.
(३०४) ज्ञानीनी निंदा करुं नहि.
(३०प) वैरीना गुणनी पण स्तुति करुं.
(३०६) आत्माने परमेश्वर मानुं.
(३०७) गम पड्या विना आगम अनर्थ–
कारक थई पडे छे.
सत्संग विना ध्यान ते तरंगरूप थई पडे छे.
संत विना अंतनी वातमां अंत पमातो नथी.
लोकसंज्ञाथी लोकाग्रे जवातुं नथी. लोकत्याग
विना वैराग्य यथायोग्य पामवो दुर्लभ छे.
(१र८)
(३०८) क्षमा ए अंतरशत्रुने जीतवामां
खड्ग छे, पवित्र आचारनी रक्षा
करवामां बख्तर छे. शुद्धभावे असह्य
दुःखमां समपरिणामथी क्षमा
राखनार मनुष्य भवसागर तरी
जाय छे. (शिक्षापाठ ४३)
(३०९) मुक्ति एटले संसारना शोकथी मुक्त
थवुं ते. परिणाममां ज्ञानदर्शनादिक
अनुपम वस्तुओ प्राप्त करवी. जेमां
परमसुख अने परम आनंदनो
अखंड निवास छे, जन्म–मरणनी
विटंबनानो अभाव छे, शोक ने
दुःखनो क्षय छे. (भावनाबोध)
(३१०) आज जे पळे तुं मारी कथा मनन करे
छे ते ज तारुं आयुष्य समजी
सद्वृद्धिमां दोराजे. (पुष्पमाळा–८र)
(३११) सर्व जीव आत्मापणे समस्वभावी छे.
बीजा पदार्थमां जीव जो निज– बुद्धि
करे तो परिभ्रमणदशा पामे छे, अने
निजने विषे निजबुद्धि थाय तो
परिभ्रमणदशा टळे छे. (प३९)
(३१र) जेने संपूर्ण ऐश्वर्य प्रगटे तेने
भगवान कहेवाय. जेम भगवान
वर्तमान होत, अने तमने बतावत
तो मानत नहिं...तेम वर्तमानमां
ज्ञानी होय तो मनाय नहिं. स्वधाम
पहोंच्या पछी कहे के आवा ज्ञानी
थवा नथी. पछवाडेथी जीवो तेनी
प्रतिमाने पूजे, पण वर्तमानमां
प्रतीत न करे. जीवने ज्ञानीनुं
ओळखाण प्रत्यक्षमां, वर्तमानमां थतुं
नथी. (उपदेशछाया)
नोंध:– आ लेखमाळा माटे जुदा जुदा जिज्ञासुओए लखी मोकलेला अनेक वचनामृतोमां कोई
कोई वचनामृत एकथी वधु जिज्ञासुओए लखी मोकलेल छे; ते एवा वचनामृतोनी
जिज्ञासुओमां विशेष प्रियता सूचवे छे. जो के लेखमाळानुं संकलन करती वखते
वचनामृतोनी चूंटणी करेल छे, छतां कोईक कोईक विशेष वचनामृत बेवडाई जवानो पण
संभव छे. (सं.)